शनि की कृदुष्टि (भगवान शिव जी की कथाएँ) – शिक्षाप्रद कथा
पार्वती जब भी अपने पति शिव के साथ दूसरे देवताओं के निवास स्थान पर जातीं और वहां उनके सजे-धजे सुंदर भवनों को देखतीं तो उन्हें बड़ी हीनता का बोध होता| वे यह महसूस करतीं कि हमसे छोटे-छोटे देवताओं के पास भी बड़े-बड़े भव्य भवन हैं, लेकिन हमारे पास कुछ भी नहीं| कहने को मैं आदिदेव शिव की पत्नी हूं, लेकिन रहने के लिए मिली है कैलाश पर्वत की कंदराएं और पहनने के लिए वल्कल| किसी उचित आवास के अभाव में मैं अन्य सुख-सुविधाओं का भी उपभोग नहीं कर सकती|
एक दिन पार्वती ने अपने मन की यह व्यथा अपने पति शिव से कही| सुनकर शिव मुस्कराए, फिर बोले – “इसमें हीनता की तो कोई बात नहीं देवी! प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अपनी जीवन शैली होती है| हमारी जीवन शैली यही है, हम अपनी इस शैली को हीन क्यों समझें? अन्य देवगण प्रकृति से बहुत दूर हैं, जबकि हम प्रकृति की गोद में निवास करते हैं यह तो हमारे लिए गौरव की बात है, हीनता की नहीं|”
शिव के तर्कों से पार्वती संतुष्ट नहीं हुईं और बोलीं – “मुझे आपकी ये बातें समझ में नहीं आतीं देव! मुझे तो अपना एक आवास चाहिए – बहुत ही भव्य और सुख-सुविधा से पूर्ण|”
शिव ने अपनी सहज मुस्कान के साथ उत्तर दिया – “इसमें क्या मुश्किल है देवी! मैं अभी विश्वकर्मा को बुलवा देता हूं| उनसे जैसा चाहें वैसा आवास बनवा लें|”
विश्वकर्मा को बुलाया गया| पार्वती ने आदेश दिया – “हमारे लिए ऐसा भव्य भवन बनाओ जैसा विश्व में कहीं न हो|”
विश्वकर्मा ने आदेश स्वीकार किया, निर्माण कार्य प्रारंभ हो गया| कुछ ही समय में पार्वती की इच्छानुसार भव्य भवन तैयार हो गया| अपने भवन को देखकर पार्वती अति प्रसन्न हुई| गृहप्रवेश की तैयारी होने लगी| पार्वती चाहती थीं कि गृहप्रवेश के समय सभी प्रमुख देवता हमारे यहां उपस्थित रहें| शिव ने अपनी सहमति दे दी| सभी प्रमुख देवी-देवताओं को आमंत्रण भेजा गया| गृहप्रवेश के समय वे सब कैलाश पर्वत पर आ गए| उन्होंने पार्वती के भव्य भवन की भूरि-भूरि प्रशंसा की, लेकिन विश्वनियंता ब्रह्मा खामोश रहे|
जब सब देवी-देवता जाने लगे तो पार्वती ने ब्रह्मा जी से पूछा – “देव! क्या आपको यह आवास पसंद नहीं आया?”
ब्रह्मा जी ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए पार्वती से ही प्रश्न कर दिया – “देवी! मैंने ऐसा कब कहा?”
“आपके चेहरे की भाव-भंगिमा कुछ ऐसा ही कह रही है प्रभो!” पार्वती ने अपनी शंका स्पष्ट की| फिर ब्रह्मा जी को मौन देखकर पार्वती ने अपनी बात आगे बढ़ाई – “देव! आप कुछ संकोच कर रहे हैं| स्पष्ट कहिए, क्या बात है?”
ब्रह्मा जी ने तनिक रुककर उत्तर दिया – “देवी! और तो सब ठीक है, लेकिन इस प्रासाद पर शनि की कुदृष्टि है|” इतना कहकर वे वहां से चले गए|
पार्वती ने ब्रह्मा जी की बात शिव को बतलाई तो वे भी कुछ चिंता में पड़ गए| पार्वती ने शिव से पूछा – “प्रभो! शनि की दृष्टि से क्या हो सकता है?”
“यह प्रासाद जल सकता है|” शिव ने उत्तर दिया|
यह सुनकर पार्वती भी चिंतित हो गईं, बोलीं – “प्रभो! इसके लिए कोई उपाय कीजिए|”
शिव ने निराशा व्यक्त की – “शनी की दृष्टि को हटाना सरल नहीं है देवी!”
शिव का उत्तर सुनकर पार्वती आवेश में आ गईं और बोलीं – “सरल क्यों नहीं है? आप अभी शनिलोक जाइए और शनि से कहिए कि वह हमारे प्रासाद पर से अपनी कृदुष्टि हटा ले| यदि वह मान जाए तो आप तत्काल उसे कोई वरदान दे दीजिएगा और यदि न माने तो आप अपना डमरू जोर से बजा दीजिएगा| मैं स्वयं अपने प्रासाद को आग लगा दूंगी| यदि प्रासाद को जलना ही है तो यह मेरे हाथों से जलेगा, शनि की कुदृष्टि से नहीं| इसके बाद मैं शनि को शाप दूंगी|”
पार्वती की इच्छानुसार शिव शनि लोक गए| वहां शनि देव ने उनकी अभ्यर्थना की और आदर के साथ आसन पर बैठाया| आसन ग्रहण करने के बाद शिव ने अपने आने का प्रयोजन बताया – “देवी पार्वती ने जो प्रासाद बनवाया है उस पर तुम्हारी कुदृष्टि है| अत:, वे चाहती हैं कि तुम उधर से अपनी कुदृष्टि हटा लो|”
शनि देव ने करबद्ध होकर निवेदन किया – “आप निश्चिंत रहें देव! माता पार्वती के प्रासाद पर कुदृष्टि डालने का मैं दुस्साहस कर ही नहीं सकता|”
शनि से आश्वासन पाकर शिव प्रसन्न हो गए, बोले – “शनि! मैं तुमसे प्रसन्न हूं| तुम जो चाहो वर मांग सकते हो|”
शनि ने विनम्रभाव से कहा – “प्रभो! आपका दिया हुआ सब कुछ मेरे पास है| अब और क्या मांगूं? हां, एक इच्छा अवश्य है, वह है आपका तांडव नृत्य देखने की| बहुत दिन हो गए उसे देखे हुए| अपना नृत्य दिखला सकें तो कृपा होगी|”
शनि का यह अनुरोध शिव को अच्छा लगा| उन्होंने तत्काल अपना डमरू उठा लिया और लगे नृत्य करने| भोले भंडारी यह भी भूल गए कि पार्वती ने डमरू की आवाज सुनकर अपने नवनिर्मित प्रासाद को जला देने की बात कही थी| बस, डमरू बजा-बजाकर वे नृत्य करते रहे|
उधर पार्वती ने जब कैलास पर डमरू की ध्वनि सुनी तो उन्होंने सोचा कि शनि ने अपनी कुदृष्टि हटाना अस्वीकार कर दिया है| अत: वे बहुत दुखी हुईं| उन्हें लगा कि यदि मैं तत्काल अपने नवनिर्मित आवास को आग लगा दूंगी तो वह शनि की कुदृष्टि से बच जाएगा| अत: उन्होंने स्वयं ही अपने प्रासाद में आग लगा दी| वह ‘धू-धू’ करके जल उठा|
प्रासाद को जलता देख पार्वती का शनि पर क्रोध धीरे-धीरे बढ़ने लगा| अब वे उसे शाप देने के लिए तैयार हो गईं, लेकिन उसी समय भगवान शिव वहां पहुंच गए| उन्होंने वहां प्रासाद को जलते देखा तो वे आश्चर्यचकित रह गए| उनकी समझ में ही नहीं आया कि यह कैसे हो गया| फिर, अचानक उन्हें सब कुछ स्मरण हो आया| अपनी भूल का उन्हें अहसास हुआ| उन्होंने पार्वती को सब कुछ सुनाया| सच्चाई जानकार पार्वती को भी अपनी जल्दबाजी पर दुख हुआ| अब शनि को शाप देने का कोई अर्थ नहीं था| प्रत्यक्षत: उसका कहीं कोई अपराध नहीं था| फिर भी, पार्वती और शिव को यह लग रहा था कि यह सब हुआ शनि की कृदृष्टि से ही, लेकिन स्थिति को देखते हुए वे उसे दोषी नहीं ठहरा सकते थे|
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