सती और शिव (भगवान शिव जी की कथाएँ) – शिक्षाप्रद कथा
दक्ष प्रजापति की कई पुत्रियां थीं| सभी पुत्रियां गुणवती थीं, पर दक्ष के मन में संतोष नहीं था| वे चाहते थे कि उनके घर में एक ऐसी पुत्री का जन्म हो, जो शक्ति-संपन्न हो, सर्वविजयिनी हो| दक्ष एक ऐसी पुत्री के लिए तप करने लगे| उन्हें तप करते-करते कई दिन बीत गए| उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवती आद्या ने प्रकट होकर कहा – “वत्स! मैं तुम्हारे तप से प्रसन्न हूं| मैं स्वयं तुम्हारी पुत्री के रूप में जन्म लूंगी| मेरा नाम होगा सती| मैं सती के रूप में जन्म लेकर, अपनी लीलाओं का विस्तार करूंगी|” यह कहकर भगवती आद्या अंतर्धान हो गई|
कुछ समय बाद आद्या ने सती के रूप में दक्ष के यहां जन्म लिया| सती दक्ष की सभी पुत्रियों में गुणवती और तेजस्विनी तो थीं ही, अतीव शक्तिसंपन्न भी थीं| उन्होंने बाल्यावस्था में ही कई ऐसे अलौकिक कृत्य कर दिखाए, जिन्हें देखकर स्वयं पक्ष को भी विस्मय की लहरों में डूब जाना पड़ा था| सती जब विवाह के योग्य हुई, तो दक्ष को उनके लिए वर की चिंता हुई| उन्होंने ब्रह्मा जी से परामर्श किया| ब्रह्मा जी ने कहा – “सती आद्या का अवतार हैं| आद्या आदिशक्ति और शिव आदिपुरुष हैं| अत: सती के विवाह के लिए शिव ही उचित और योग्य वर हैं|”
दक्ष ने ब्रह्मा जी की बात मानकर सती का विवाह भगवान शिव के साथ कर दिया| सती कैलाश में जाकर भगवान शिव के साथ रहने लगीं|
एक बार ब्रह्मा जी ने धर्म के निरूपण के लिए एक सभा का आयोजन किया था| सभी बड़े-बड़े देवता सभा में एकत्र थे| भगवान शिव भी एक ओर बैठे हुए थे| सभा मंडप में दक्ष का भी आगमन हुआ| दक्ष के आगमन पर सभी देवता उठकर खड़े हो गए, पर भगवान शिव खड़े नहीं हुए| उन्होंने पक्ष को प्रणाम भी नहीं किया| फलत: दक्ष ने अपमान का अनुभव किया| केवल यही नहीं, उनके हृदय में भगवान शिव के प्रति ईर्ष्या की आग जल उठी| वे उनसे बदला लेने के लिए समय और अवसर की प्रतीक्षा करने लगे|
भगवान शिव को किसी के मान और अपमान से क्या मतलब? वे तो समदर्शी हैं| उन्हें तो चारों ओर अमृत ही अमृत दिखाई पड़ता है| जहां अमृत होता है, वहां कडुवाहट और कसैलेपन का क्या काम? भगवान शिव कैलाश में दिन-रात ‘राम-राम’ कहा करते थे| सती के मन में जिज्ञासा उत्पन्न हो उठी| उन्होंने अवसर पाकर भगवान शिव से पूछा – “आप ‘राम-राम’ क्यों कहते हैं? राम कौन हैं?”
भगवान शिव ने उत्तर दिया – “राम आदिपुरुष हैं, स्वयंभू हैं, मेरे आराध्य हैं| सगुण भी हैं, निर्गुण भी हैं| अयोध्या के नृपति दशरथ के पुत्र राम के रूप में उनका अवतार हुआ है| सीता उनकी सहधर्मिणी हैं|”
किंतु सती के कंठ के नीचे बात उतरी नहीं| वे सोचने लगीं कि अयोध्या के नृपति दशरथ के पुत्र राम आदिपुरुष के अवतार कैसे हो सकते हैं? वे तो आजकल अपनी पत्नी सीता जी के वियोग में दंडक वन में उन्मत्तों की भांति विचरण कर रहे हैं| वृक्षों और लताओं से उनका पता पूछते फिर रहे हैं| यदि वे आदिपुरुष के अवतार होते, तो क्या इस प्रकार का आचरण करते? यह सोचकर उनके मन में राम की परीक्षा लेने का विचार उत्पन्न हुआ| वे सीता का रूप धारण करके दंडक वन में जा पहुंची और राम के सामने प्रकट हुईं|
भगवान राम ने सती को सीता के रूप में देखकर कहा – “माता! आप एकाकिनी यहां वन में कहां घूम रही हैं? बाबा विश्वनाथ कहां हैं?”
राम के प्रश्न को सुनकर सती से कुछ उत्तर देते न बना| वे अदृश्य हो गईं और मन ही मन पश्चाताप करने लगीं कि उन्होंने व्यर्थ ही राम पर संदेह किया| राम सचमुच आदिपुरुष के अवतार हैं| इंद्रियों से परे हैं|
सती जब लौटकर कैलाश गईं, तो भगवान शिव ने उन्हें देखते ही कहा – “सती! तुमने सीता के रूप में राम की परीक्षा लेकर अच्छा नहीं किया| सीता मेरी आराध्या हैं| अब तुम मेरी अर्धांगिनी कैसे रह सकती हो? इस जन्म में हम और तुम पति और पत्नी के रूप में नहीं मिल सकते|”
शिव के कथन को सुनकर सत्ती अत्यधिक दुखी हुईं, पर अब क्या हो सकता था? शिव के मुख से निकली हुई बात असत्य कैसे हो सकती थी?
उन्हीं दिनों सती के पिता कनखल में बहुत बड़ा यज्ञ कर रहे थे| उन्होंने यज्ञ में सभी देवताओं और मुनियों को आमंत्रित किया था, किंतु शिव को आमंत्रित नहीं किया था, क्योंकि उनके मन में शिव के प्रति ईर्ष्या थी| सती को जब यह ज्ञात हुआ कि उनके पिता ने बहुत बड़े यज्ञ का आयोजन किया है तो उनका मन यज्ञ के समारोह में सम्मिलित होने के लिए आकुल हो उठा| वे शिव के पास गईं और यज्ञ की बात बताई|
शिव ने कहा – “हम नहीं जा सकते प्रिये! दक्ष मुझे अपना शत्रु मानते हैं| जान-बूझकर उन्होंने हमारी उपेक्षा की है|”
लेकिन सती अपनी जिद पर अड़ी रहीं और बोलीं – “यह सब ठीक है, फिर भी मैं जाना चाहती हूं|”
शिव जानते थे कि उनका जाना ठीक नहीं है, फिर भी उन्होंने उनका मान रखा| बोले – “ठीक है, अगर तुम जाना चाहती हो तो जाओ पर मैं नहीं चलूंगा| वीरभद्र तुम्हें राजसी ठाठ बाट से ले जाएगा|”
सती वीरभद्र के साथ अपने पिता के घर गईं, किंतु उनसे किसी ने भी प्रेमपूर्वक वार्तालाप नहीं किया| न तो उनकी बहनों ने किया, न उनकी मां ने किया| दक्ष ने उन्हें देखकर कहा – “तुम क्या यहां मेरा अपमान करने आई हो? अपनी बहनों को तो देखो, वे किस प्रकार भांति-भांति के अलंकारों और सुंदर वस्त्रों से सुसज्जित हैं| तुम्हारे शरीर पर बाघांबर है| तुम्हारा पति श्मशानवासी और भूतों का नायक है| वह तुम्हें बाघांबर को छोड़कर पहना ही क्या सकता है?”
दक्ष के कथन से सती के हृदय में पश्चाताप का सागर उमड़ पड़ा| वे सोचने लगीं कि उन्होंने यहां आकर अच्छा नहीं किया| भगवान ठीक ही कह रहे थे, बिना बुलाए पिता के घर भी नहीं जाना चाहिए| पर अब क्या हो सकता है| अब तो आ ही गई हूं| यह सोचकर वह यज्ञ मंडप में गईं| यज्ञ मंडप में उन्होंने सभी देवताओं के तो भाग देखे, किंतु भगवान शिव का भाग नहीं देखा| वे भगवान शिव का भाग न देखकर अपने पिता से बोलीं – “पितृश्रेष्ठ! यज्ञ में तो सभी के भाग दिखाई पड़ रहे हैं, किंतु कैलाशपति का भाग नहीं है| आपने उनका भाग क्यों नहीं दिया?”
दक्ष ने गर्व से उत्तर दिया – “मैं तुम्हारे पति कैलाशपति को देवता नहीं समझता| वह तो भूतों का स्वामी, नग्न रहने वाला और हड्डियों की माला को धारण करने वाला है| वह देवताओं की पंक्ति में बैठने योग्य नहीं है| उसे कौन भाग देगा|”
पिता की बात सुनकर सती के नेत्र लाल हो उठे| उनकी भौंहें कुटिल हो गईं| उनका मुखमंडल प्रलय के सूर्य की भांति तेजोद्दीप्त हो उठा| उन्होंने पीड़ा से तिलमिलाते हुए कहा –
“ओह, मैं इन शब्दों को कैसे सुन रही हूं, मुझे धिक्कार है| देवताओं! तुम्हें भी धिक्कार है| तुम भी उन कैलाशपति के लिए इन शब्दों को कैसे सुन रहे हो, जो मंगल के प्रतीक हैं और जो क्षणमात्र में संपूर्ण सृष्टि को नष्ट करने की शक्ति रखते हैं| वे मेरे स्वामी हैं| नारी के लिए उसका पति ही स्वर्ग होता है| जो नारी अपने पति के लिए अपमानजनक शब्दों को सुनती है, उसे नर्क में जाना पड़ता है| मेरे पिता ने मेरे स्वामी का अपमान किया है| मैं अब एक क्षण भी जीवित रहना नहीं चाहती|”
यह कहकर सती यज्ञकुंड में कूद गईं और जलती हुई आहुतियों के साथ उनका शरीर भी जलने लगा| यज्ञ-मंडप में खलबली मच गई| चारों तरफ ‘हा-हाकार’ मच गया| यह देख वीरभद्र क्रोध से कांप उठे| वे उछल-उछलकर यज्ञ को विध्वंस करने लगे| यज्ञ मंडप में भगदड़ मच गई| देवता और ऋषि-मुनि भाग खड़े हुए| वीरभद्र ने देखते ही देखते दक्ष का मस्तक काटकर फेंक दिया|
जब यह समाचार भगवान शिव के कानों में पड़ा तो वे प्रचंड आंधी की भांति कनखल जा पहुंचे| सती के जले हुए शरीर को देखकर वे अपने आपको भूल गए| सती के प्रेम और उनकी भक्ति ने शिव के मन को व्याकुल कर दिया| वे सती के प्रेम में खो गए, बेसुध हो गए| उन्होंने सती के जले हुए शरीर को कंधे पर रख लिया| वे आठों दिशाओं में भ्रमण करने लगे| शिव और सती के इस अलौकिक प्रेम को देखकर पृथ्वी रुक गई, हवा रुक गई जल का प्रवाह रुक गया और रुक गई देवताओं की सांसें| सृष्टि व्याकुल हो उठी, सृष्टि के प्राणी पुकारने लगे – पाहिमान, पहिमान्!
भयानक संकट को उपस्थित देखकर सृष्टि के पालक भगवान विष्णु आगे बढ़े| वे भगवान शिव की बेसुधी में अपने चक्र से सती के एक-एक अंग को काट-काटकर गिराने लगे| धरती पर इक्यावन स्थानों पर सती के अंग कट-कटकर गिरे| जब सती के सारे अंग कट-कटकर गिर गए तो भगवान शिव पुन: अपने आपे में आए| जब वे अपने आपे में आए, तो पुन: सृष्टि के सारे कार्य चलने लगे|
धरती पर जिन इक्यावन स्थानों पर सती के अंग कट-कट कर गिरे थे, वे ही स्थान आज शक्ति के पीठ-स्थान माने जाते हैं| आज भी उन स्थानों पर सती की पूजा होती है| धन्य था शिव और सती का प्रेम| शिव और सती के प्रेम ने उन्हें अमर बना दिया, वंदनीय बना दिया|
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