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शिक्षाप्रद कथाएँ (1569)

एक गांव में लक्ष्मीनारायण का मंदिर था। उसके दूसरी ओर ही शिवालय था। इन मंदिरों के बाहर एक वृद्धा फूल बेचती थी। एक दिन वृद्धा के पास फूल कम पड़ गए। तभी वहां एक शिवभक्त आया और फूल मांगने लगा।

जोधपुर के महाराजा जसवंत सिंह की मृत्यु के बाद बादशाह औरंगजेब जोधपुर को हड़पना चाहता था लेकिन जसवंत सिंह के मंत्री दुर्गादास राठौर ने औरंगजेब की कोई भी चाल कामयाब नहीं होने दी। जसवंत सिंह के पुत्र राजकुमार अजीत सिंह को जोधपुर की गद्दी पर बिठाने के लिए दुर्गादास ने मुगल सेना से डटकर युद्ध किया। दुर्गादास ने भी कभी हार नहीं मानी।

वनवास के तेरह वर्ष पूर्ण हो चुके थे और पांडव अपना राज्य वापस चाहते थे| युधिष्ठिर ने यह संदेश देकर अपने दूत को हस्तिनापुर भेजा| पांडव शांति की कामना करते थे, फिर भी उन्होंने संभावी युद्ध के लिए तैयारियाँ आरंभ कर दी थीं|

प्राचीन काल में माहिष्मति नाम की एक श्रेष्ठ नगरी थी, जो नृपश्रेष्ठ वरेण्य की राजधानी थी| महाराज वरेण्य परम धर्म परायण थे| ऐसा लगता था कि मानो मूर्तिमान धर्म ने उनके रुप में अवतार ग्रहण किया हो| वे बड़ी तत्परता से प्रजा का पालन करते थे| उन्हीं की भांति उनकी पत्नी महारानी पुष्पिका भी परम गुणवती, पतिव्रता एवं सदाचारिणी थी|

स्वामी रामकृष्ण परमहंस के शरीर-त्याग के बाद उनके शिष्य स्वामी विवेकानंद तीर्थयात्रा के लिए निकले|

एक आदमी को बहुत ही दीन और हैरान देखकर दूसरे ने पूछा – “क्यों भाई क्या बात है?”

एक बार यूनान का राजदूत भारत आया। उसने मौर्य साम्राज्य के महामंत्री चाणक्य की प्रशंसा प्रत्येक व्यक्ति के मुख से सुनी। वह चाणक्य से मिलने के लिए उत्सुक हो उठा। राजदूत चाणक्य से मिलने उनके निवास स्थान गंगा के किनारे चल दिया।

मत्स्यराज विराट एक उदार, स्नेहशील राजा थे| विराट की पत्नी सुदेष्णा का भाई कीचक उनका सेनापति था| वह बहुत ही शक्तिशाली और क्रूर था| इसलिए विराट पर आक्रमण करने का साहस कोई नहीं करता था|

एक बार महाराज युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण से नागपंचमी-व्रत के विषय में जिज्ञासा व्यक्त की, तब भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा- ‘युधिष्ठिर! दयिता-पंचमी नागों के आनंद को बढ़ाने वाली होती है| श्रावण शुक्ला पंचमी में नागों का महान् उत्सव होता है| उस दिन वासुकि, तक्षक, कालिक, मणिभद्रक, धृतराष्ट्र, रैवत, कर्कोटक और धनंजय- ये सभी नाग प्राणियों को अभय (दान) देते है|

एक साधु था| वह नदी के किनारे कुटिया बनाकर रहता था, सांसारिक बंधनों को तिलांजलि देकर वह एकाग्र भाव से ईश्वराधना में डूबा रहता था|

एक दिन वन में गुजरते हुए नारदजी ने देखा कि एक मनुष्य ध्यान में इतना मग्न है कि उसके शरीर के चारों ओर दीमक का ढेर लग गया है। नारदजी को देखकर उसने उन्हें प्रणाम किया और पूछा -प्रभु! आप कहां जा रहे हैं? नारदजी ने उत्तर दिया- मैं बैकुंठ जा रहा हूं।

द्रौपदी और चारों पांडव भाइयों की खुशी का ठिकाना न रहा, जब अर्जुन पांच वर्ष पश्चात उनसे आ मिले|

एक बार देवताओं द्वारा संपूर्ण दैत्यकुल का संहार हो जाने पर दैत्य माता दिति को अपार कष्ट हुआ| तब वह पृथ्वी-लोक में स्यमन्तपंचक क्षेत्र में आकर सरस्वती नदी के तट पर अपने पति महर्षि कश्यप की आराधना करते हुए भीषण तप में निरत हो गई|

एक दिन एक शिष्य भगवान बुद्ध के पास गया| प्रणाम-निवेदन करके बोला – “भंते, मैं देश में घूमना चाहता हूं| आपके आशीर्वाद का अभिलाषी हूं|”

एक बार एक गांव में सूखा पड़ा। सारे तालाब और कुएं सूख गए। तब लोगों ने एक सभा की। उस सभा में सभी ने एक स्वर में तय किया कि गांव के बाहर जो शिवजी का मंदिर है, वहां चलकर भगवान से वर्षा करने के लिए सामूहिक प्रार्थना करें। अगले दिन सुबह होते ही गांव के सभी लोग शिवालय की ओर चल दिए। बच्चे, बूढ़े, स्त्री, पुरुष सभी जोश से भरे हुए जा रहे थे। इन सभी में एक बालक ऐसा था, जो हाथ में छाता लेकर चल रहा था। सभी उसे देखकर उसका उपहास उड़ाने लगे।

पांडवों के निष्कासन की सूचना मिलते ही राजा द्रुपद अपने पुत्र धृष्टदयुम्न के साथ अपनी पुत्री से मिलने आए|

प्राचीन काल की बात है| कुरुक्षेत्र में कौशिक नामक एक धर्मात्मा ऋषि रहते थे| उनके सात पुत्र थे, जिनके नाम थे- स्वसृप, क्रोधन, हिंस्त्र, विश्रुत, कवि, वाग्दुष्ट और पितृवर्ती| पिता की मृत्यु के पश्चात् वे महर्षि गर्ग के शिष्य हो गए| दैववशात् निरंतर अनावृष्टि के कारण भीषण अकाल का समय उपस्थित हुआ|

किसी नगर में एक सेठ रहता था| उसके पास बहुत धन था| उसकी तिजोरियां हमेशा मोहरों से भरी रहती थीं, लेकिन उसका लोभ कम नहीं होता था| जैसे-जैसे धन बढ़ता जाता था, उसकी लालसा और भी बढ़ती जाती थी|

दुख और पीड़ा जीवन के अनिवार्य अंग हैं। मनुष्य का उससे बिल्कुल अछूते रहने की कल्पना असंभव है। जीवन में सुख के साथ दुख भी अपने क्रम से आएगा ही। अच्छी परिस्थितियों के बाद विपरीत परिस्थितियों का यह चक्र जीवनभर यूं ही चलता रहेगा। आज मनुष्य विकास की उस अवस्था तक पहुंच गया है, जहां से उसे निरंतर विकासपथ पर आगे ही आगे बढ़ते जाना है।

एक कौआ जब-जब मोरों को देखता, मन में कहता- भगवान ने मोरों को कितना सुंदर रूप दिया है। यदि मैं भी ऐसा रूप पाता तो कितना मजा आता। एक दिन कौए ने जंगल में मोरों की बहुत सी पूंछें बिखरी पड़ी देखीं। वह अत्यंत प्रसन्न होकर कहने लगा- वाह भगवान! बड़ी कृपा की आपने, जो मेरी पुकार सुन ली। मैं अभी इन पूंछों से अच्छा खासा मोर बन जाता हूं।

दुर्योधन सदा से ही ही पांडवों को घृणा की दृष्टि से देखता था, परन्तु इंद्रप्रस्थ से लौटने के बाद से तो उसके क्रोध और ईर्ष्या की कोई सीमा नहीं थी| राजसूय यज्ञ में युधिष्ठिर को सर्वशक्तिमान राजा के रूप में प्रतिष्ठा पाते देख उसका हृदय ईर्ष्या से जल रहा था|

ऋषभ के पुत्र भरत थे, जिनके नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा| भारत के पुत्र शतश्रृंग हुए, उनके आठ पुत्र और एक पुत्री थी| पुत्रों के नाम इंद्रद्वीप, कसेरु, ताम्रद्वीप, गभस्तिमान, नाग, सौम्य, गंधर्व और वरुण थे| राजर्षि शतश्रृंग की कन्या का मुख बकरी के मुख की तरह था| ऐसा होने का कारण उसका पुनर्जन्म में बकरी-शरीर का होना था|

बचपन में गांधीजी को घर के लोग ‘मोनिया’ कहकर पुकारते थे| मोनिया बड़ा ही शरारती था| एक बार बच्चों ने मिलकर मंदिर के खेल के ठाकुरजी को झूला-झूलाने का तय किया| ऐसे खेलों में वे मिट्टी की मूर्ति बना लेते थे, लेकिन इस बार उन्होंने सोचा कि लक्ष्मी नारायण के मंदिर से कुछ असली मूर्तियां उठा लाएं| फिर क्या था! पांच-छ: बच्चों की टोली मंदिर की ओर चल दी| निश्चय हुआ कि और बालक तो इधर-उधर छिपे रहें और सबसे छोटा ‘चंदू’ सिंहासन पर से मूर्तियां उठा लाए|

एक दिन गुरुनानक घूमते हुए उज्जयिनी पहुंचे| उनका नाम सुनकर एक सेठ उनके पास आया| उसके गले में रुद्राक्ष की माला पड़ी थी और माथे पर तिलक लगा था| वह गुरुनानक के लिए तरह-तरह के स्वादिष्ट भोजन का थाल लाया था| गुरुनानक ने थाल की ओर देखा और खाना खाने से इंकार कर दिया|

एक दुकानदार को नौकर की सख्त जरूरत थी। उसने अपने मिलने-जुलने वालों से कह रखा था कि कोई पढ़ा-लिखा, ईमानदार आदमी मिल जाए तो बताना, क्योंकि मैं अकेला हूं। जब कभी बाहर सामान लेने जाता हूं या किसी अन्य काम से यहां-वहां जाता हूं तो मुझे दुकान बंद ही करनी पड़ती है। कहते हैं ग्राहक और मौत का क्या ठिकाना? कब आए और लौट जाए।

इंद्रप्रस्थ में अब राजसूय यज्ञ की तैयारियाँ प्रारम्भ हो गई थी| बड़ी संख्या में राजा और राजकुमारों का आगमन हुआ| नगरी में सब ओर उत्साह की लहर थी| धार्मिक अनुष्ठानों और मंत्रोच्चारण के साथ युधिष्ठिर को सम्राट घोषित किया गया|

प्राचीन काल में एक राजा थे, जिनका नाम था इन्द्रघुम्न| वे बड़े दानी, धर्मज्ञ और सामर्थ्यशाली थे| धनार्थियों को वे सहस्त्र स्वर्णमुद्राओं से कम दान नही देते थे| उनके राज्य में सभी एकादशी के दिन उपवास करते थे| गंगा की बालुका, वर्षा की धारा और आकाश के तारे कदाचित् गिने जा सकते है, पर इन्द्रघुम्न के पुण्यों की गणना नही हो सकती|

एक शिकारी था| वह बड़ा ही क्रूर और निर्दयी था| वह पक्षियों का हनन करके उन्हें खा जाता था| एक दिन की बात है कि उसके जाल में एक कबूतरी फंस गई| वह उसे लेकर चला तो बादल घिर आए|

श्रुतायुध के पास भगवान शंकर के वरदान से प्राप्त एक अमोघ गदा थी। इसके पीछे एक कथा यह थी कि श्रुतायुध के तप से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उपहार स्वरूप यह वरदान उसे इस शर्त पर दिया था कि वह कभी भी उस गदा का अनीतिपूर्वक उपयोग न करे। यदि वह नीति के विरुद्ध आचरण करेगा तो लौटकर वह उसका ही विनाश कर देगी।

युधिष्ठिर के राज्य में चारों ओर सुख, शान्ति और समृद्धि थी| कुछ वर्षों पश्चात राज्य के प्रमुख सदस्यों ने उन्हें राजसूय यज्ञ संपन्न करने का आग्रह किया|