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मैं युद्ध नहीं, शांति चाहता हूँ

मैं युद्ध नहीं, शांति चाहता हूँ

वनवास के तेरह वर्ष पूर्ण हो चुके थे और पांडव अपना राज्य वापस चाहते थे| युधिष्ठिर ने यह संदेश देकर अपने दूत को हस्तिनापुर भेजा| पांडव शांति की कामना करते थे, फिर भी उन्होंने संभावी युद्ध के लिए तैयारियाँ आरंभ कर दी थीं|

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उन्होंने अपने समस्त मित्र राज्यों को संदेश भिजवा दिये थे| द्वारिका में कृष्ण से मिलने अर्जुन स्वयं गए| दुर्योधन को भी द्वारिका में देखकर, उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ| कृष्ण के शयनकक्ष में पहुँचने पर अर्जुन ने देखा कि कृष्ण गहरी निद्रा में थे और दुर्योधन उनके सिराहने एक सुन्दर सिंहासन पर बैठा था| वास्तव में वह भी कृष्ण से सहायता माँगने आया था| अर्जुन कृष्ण के चरणों के समीप विनम्रता से जा बैठे| जागने पर कृष्ण की दृष्टि अर्जुन पर पहले पड़ी|

श्रीकृष्ण ने दुर्योधन से कहा, “तुम मुझसे मदद माँगने पहले पहुँचे, परन्तु मैंने सर्वप्रथम अर्जुन को देखा इसलिए पहले वह चयन करेगा| परन्तु मैं तुम दोनों के साथ न्याय करूंगा| तुममें से एक मेरी विशालसेना मांग सकता है और दूसरा केवल मुझे-वह भी सारथी के रूप में| याद रहे, मै स्वयं युद्ध नहीं करूंगा|

अर्जुन ने कृष्ण को अपने रथ के सारथी के रूप में स्वीकार किया और दुर्योधन ने उनकी सेना को चुना| दोनों प्रसन्न थे-दुर्योधन हर्षित था, यह सोचकर कि उसे अतिरिक्त सैनिक प्राप्त हो गए, अर्जुन प्रसन्न थे क्योंकि कृष्ण उनके साथ थे| उन्होंने सोचा, “यदि कृष्ण हमारे साथ हैं तो हमारी विजय निश्चित है|”

हस्तिनापुर भेजा हुआ शान्ति-दूत खाली लौट आया| युधिष्ठिर की प्रार्थना व्यर्थ गई| दुर्योधन पांडवों को उनका राज्य लौटना नहीं चाहता था| वह बोला, “नहीं नहीं मैं उन्हें सुई की नोक के बराबर भूमि नहीं दूँगा|” भीष्म और द्रोण दोनों ने दुर्योधन को समझाने का प्रयास किया, “तुमने वचन दिया था कि वनवास से लौटने पर उनका राज्य वापस लौटा दोगे| अब तुम्हे अपना वचन पूरा करना चाहिए|” परन्तु दुर्योधन अहंकार से चूर होकर बोला, “नहीं, पांडवों को राज्य कभी नहीं मिलेगा| यदि वे युद्ध करना चाहते हैं तो अवश्य करें|”

युधिष्ठिर निराश होकर बोले, “मै शान्ति चाहता हूं, युद्ध नहीं| मुझे आशा थी कि दुर्योधन हमारा राज्य लौटा देगा| क्या हम शांतिपूर्वक इस समस्या का समाधन नहीं कर सकते?”

भाइयों ने भी युधिष्ठिर का समर्थन करते हुए कहा, “हाँ, हमें शान्ति चाहिए|” यहां तक कि भीम ने भी कहा कि दोनों ओर से समस्या का समाधान शांतिपूर्वक होना चाहिए| केवल द्रौपदी सिसकते हुए बोली, “आप सभी ने देखा था कि मुझे किस तरह अपमानित किया गया| फिर भी आप शांति चाहते हैं? मै प्रतिशोध चाहती हूँ, दुर्योधन और दुशासन का वध होना चाहिए|”

कृष्ण, बलराम, द्रुपद और धृष्टद्युम्न पांडवों से भेंट करने के लिए आए|

द्रुपद और धृष्टद्युम्न ने कहा, “यदि युद्ध छिड़ा तो हम आपकी ओर से लड़ेंगे| बलराम बोले, “पांडव और कौरव दोनों ही मुझे प्रिय हैं| मै युद्ध और अनावश्यक रक्तपात से घृणा करता हूँ| इस विनाशकारी युद्ध में मैं भाग नहीं लेना चाहता|” और वे तीर्थ-यात्रा पर चले गये|

कृष्ण ने कहा, “मैं पुनः प्रयत्न करूँगा कि दुर्योधन तुम्हारा राज्य लौटा दे| इस बार शांति-संदेश लेकर मैं स्वयं वहां जाऊंगा|”

द्रौपदी ने आहत स्वर में कहा, “आप कोशिश करेंगे कि दुर्योधन शांतिपूर्वक हमारा राज्य लौटा दे? परन्तु मै बदला चाहती हूँ, मेरे अन्दर प्रतिशोध की ज्वाला भड़क रही है” यह कहते-कहते द्रौपदी की आँखों से अश्रुधारा बह निकली|

कृष्ण बोले, “द्रौपदी तुम चिंता न करो| मैं दुर्योधन के पास जाऊंगा, परन्तु मै जानता हूँ कि वह मेरी बात नहीं मानेगा| युद्ध निश्चित है और दुर्योधन का विनाश भी| फिर भी मैं प्रयत्न करूँगा कि युद्ध रुक जाये|” और कृष्ण हस्तिनापुर की ओर चल पड़े|

अहंकारी दुर्योधन से कृष्ण ने पांच सौ ग्रामों की मांग की| दुर्योधन ने मना कर दिया| उन्होंने पचास ग्रामों की सलाह दी, वह नहीं माना| अंत में कृष्ण ने कहा, “दुर्योधन, केवल पांच गांव पांडवों को दे दो, महायुद्ध टल जाएगा|”

दुर्योधन ने हर बार एक ही उत्तर दिया, “नहीं, नहीं मैं पांडवों को सुई की नोक के बराबर भूमि भी नहीं दूँगा|”

भीष्म और द्रोणाचार्य ने भी उसे बहुत समझाने का प्रयत्न किया परन्तु उसने किसी की बात नहीं सुनी| कृष्ण ने कठोर शब्दों में कहा, “दुर्योधन शक्ति के मद में अंधा हो गया| वह सभी कौरवों की मृत्यु का कारण बनेगा|”

दुर्योधन चिल्लाया, “कृष्ण का वध कर दो|” दुशासन कृष्ण को रस्सी से बाँधने के लिए तुरन्त उछलकर खड़ा हो गया| उसी क्षण कृष्ण ने अपनी दिव्य शक्ति का परिचय दिया| पूरी सभा में अनोखी ज्योति फैल गई| कण-कण में कृष्ण समाए थे-सभी के हृदय में, कक्ष के कोने-कोने में| अचानक प्रकाश जितनी शीघ्रता से लुप्त हो गया| कृष्ण सभागृह जितनी शीघ्रता से लुप्त हो गया| कृष्ण सभागृह छोड़कर जा चुके थे| परन्तु वे दुखी थे| जब वे शान्ति के उद्देश्य से हस्तिनापुर गए थे तब भी उन्हें पूर्वाभास था कि युद्ध होगा और महाविनाशकारी होगा|

कर्ण को एक दिन रात्रि, स्वप्न में अपने पिता भगवान सूर्य के दर्शन हुए| उन्होंने कहा, “इंद्र, ब्राह्मण के वेश में तुम्हारे पास आयेंगे, और कुंडल तथा कवच दान में मांगेंगे| तुम ये चीजे दान नहीं करना क्योंकि इन्हें तुमसे लेकर अर्जुन की रक्षा करना चाहते हैं|”

कर्ण ने उत्तर दिया, “यदि उन्होंने मुझसे माँगा, तो मै मना नहीं कर सकूँगा|” कर्ण अपनी उदारता और दानवीरता के लिए प्रसिद्ध थे| जब ब्राह्मण के वेश में इंद्र उनके पास आये तो कर्ण ने उन्हें तुरन्त पहचान लिया, फिर भी कवच और कुंडल दान कर दिये| लज्जित होकर इंद्र बोले, “कर्ण तुम सचमुच दानवीर हो, उदार हो| मुझसे वरदान मांगों|”

कर्ण ने इंद्र से उनका महाशक्तिशाली वज्रास्त्र माँगा| इंद्र ने चेतावनी दी, “तुम इसे अवश्य ग्रहण करो, परन्तु इसका प्रयोग केवल एक ही बार कर सकते हो| तत्पश्चात यह मेरे पास लौट आएगा|” कर्ण प्रसन्न हो गए| उन्होंने सोचा वह इसका प्रयोग अर्जुन के विरुद्ध करेंगे|