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बारह-वर्षीय वनवास

बारह-वर्षीय वनवास

पांडवों के निष्कासन की सूचना मिलते ही राजा द्रुपद अपने पुत्र धृष्टदयुम्न के साथ अपनी पुत्री से मिलने आए|

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द्वारिका-नरेश कृष्ण भी मिलने आए, जो शाल्व से युद्ध में व्यस्त थे| उन्हें देखते ही द्रौपदी के अश्रु छलक पड़े| उसने भरी सभा में किये गये अपने अपमान और दुर्व्यवहार का वृत्तान्त कह सुनाया| उसे सांत्वना देते हुए कृष्ण बोले, “यदि मैं वहां होता तो इस तरह की अशोभनीय, अपमानजनक घटना कभी न घटती| मै धृतराष्ट्र और विदुर से बात करता| द्रोण को चेतावनी देता कि वे अपने शिष्यों को इस तरह से दुर्व्यवहार और लज्जपूर्ण कार्य करने से रोकें| परंतु अब रोने से क्या लाभ! मैं तुम्हे आश्वासन देता हूँ कि उसके कुकर्मों के लिए मृत्यु-दंड अवश्य मिलेगा|”

दूसरी ओर, हस्तिनापुर में, दुर्योधन को अब भी चैन नहीं था| वह सदैव इसी उधेड़बुन में रहता कि किस तरह पांडवों से छुटकारा पाया जाए| उन्हीं दिनों ऋषि दुर्वासा हस्तिनापुर आए| वे सुप्रसिद्ध और महान ऋषि थे| दुर्योधन ने उनकी बहुत सेवा-सुश्रूषा की| ऋषिवर ने प्रसन्न होकर दुर्योधन से वरदान माँगने के लिए कहा| दुर्योधन ने विनती की कि वे वन में जाकर पांडवों से भेंट करें| उसने सोचा, “ऋषि दुर्वासा के शिष्यों की संख्या अधिक बहुत अधिक है| पांडवों के पास इतना अन्न भला कहां होगा कि वे सब ब्राह्मणों को एक साथ भोजन कराएँ| शीघ्र क्रोधित हो जाने वाले ऋषि दुर्वासा इस बात से अपमानित होकर उन्हें अवश्य श्राप दे देंगे|”

जब द्रौपदी ने ऋषि दुर्वासा को अपने शिष्यों सहित निकट आते देखा तो वे चिंतित हो उठीं| सबने उसी समय अपना भोजन समाप्त किया था और वे बरतन आदि भी उठा चुकी थीं| आते हुए अनगिनत मेहमानों को खिलाने के लिए उनके पास कुछ भी शेष नहीं था|

एकाग्र मन से द्रौपदी ने श्री कृष्ण का ध्यान किया और पूछा, “मै क्या करूँ?” कृष्ण ने दर्शन दिये और कहा, “पात्र में बिलकुल नहीं बचा है क्या?” द्रौपदी ने पुनः सावधानी से पात्र देखा, उसमें चावल का एक दाना चिपका हुआ था| कृष्ण ने कहा, “कोई बात नहीं, केवल इतना ही पर्याप्त है|” उन्होंने चावल के दाने सहित पात्र हाथ में लेकर भीम से कहा, “जाओ, ऋषि दुर्वासा और उनके शिष्यों को भोजन के लिए आमंत्रित करो|” भीम ने आज्ञा का पालन किया|

इसी बीच ऋषिवर स्नान आदि के उपरांत अपने शिष्यों सहित वहां पहुँचे| ठीक उसी समय श्री कृष्ण ने चावल का वह दाना ग्रहण किया| अचानक ऋषि दुर्वासा और उनके दस हजार शिष्यों ने घोषित किया कि वे तृप्त हैं तथा भोजन नहीं करेंगे| यह चमत्कार था| दुर्वासा ने पांडवों को आशीर्वाद दिया और चले गए| और इस तरह दुर्योधन का षड्यंत्र फिर असफल रहा|

कुछ समय बाद दुर्योधन ने निश्चय किया कि वे अपने सैनिकों को लेकर द्वैतवन जाएगा जहां पांडव निवास कर रहे थे| उसने सोचा, “जब पांडव यह देखेंगे कि हम किस राजसी ठाठ-बाट के साथ रहते हैं तो वे अवश्य ही जलभुन जाएँगे और दुखी होंगे| मै अपनी समृद्धि और ऐश्वर्य दिखाकर उनमें ईर्ष्या की भावना पैदा करूँगा|” वह नहीं जानता कि दयालु, सुशील और उदार युधिष्ठिर में ईर्ष्या उत्पन्न करना उसके बस की बात न थी|

दुर्योधन अपने सैनिकों, कर्ण और शकुनि के साथ वन में गए| वहां उन्होंने गन्धर्वों की सेना तथा राजा चित्रसेन को पांडवों की रक्षा करते हुए पाया| गन्धर्व सेना ने दुर्योधन आदि को पांडवों के पास जाने से रोका| दुर्योधन के सैनिकों ने तलवारे निकाल लीं और गन्धर्वों के साथ युद्ध किया| दुर्योधन की सेना परास्त हो गई| कर्ण और शकुनि बच निकले, दुर्योधन को बंदी बना लिया गया| पता लगने पर युधिष्ठिर ने आपसी वैर भुलाकर, भीम और अर्जुन को दुर्योधन की सहायता के लिए भेजा|

पांडवों के प्रार्थना करने पर गंधर्व नरेश ने उनके चचरे भाई दुर्योधन को मुक्त कर दिया| हस्तिनापुर लौटने पर दुर्योधन और भी अधिक क्रोधित हुआ क्योंकि उसे गंधर्व-राज से मुक्ति दुर्योधन की दया से हुई थी|

कुछ समय बाद, ऋषि व्यास के कहे अनुसार अर्जुन हिमालय पर्वत पर जाकर तपस्या करने लगे जिससे कि वह दिव्य अस्त्र प्राप्त कर सकें| वहीँ एक दिन उन्होंने एक जंगली सूअर को देखा और उस पर तीर चला दिया| उसी समय एक और बाण सूअर को आकर लगा| अर्जुन ने देखा, एक और शिकारी सामने खड़ा था| उन्होंने पूछा, “तुम कौन हो? मैंने इस सूअर को मारा है, यह मेरा है|”

शिकारी ने उत्तर दिया, “इसे मैंने मारा है, और यह वन भी मेरा है| यदि तुम चाहते हो तो हम मल्ल युद्ध कर सकते हैं|” मल्ल युद्ध में अर्जुन शिकारी को परास्त न कर पाया क्योंकि शिकारी के वेश में महादेव स्वयं अर्जुन की परीक्षा ले रहे थे| अर्जुन ने उनके चरणों में गिरकर क्षमा माँगी| भगवान शिव ने कहा, “मैं केवल तुम्हारी परीक्षा लेने और तुम्हें पाशुपत अस्त्र भेंट करने आया था| अब तुम देवनगरी जाओ| वहां रहकर उन सभी विषयों में निपुणता प्राप्त करो, जो आने वाले युद्ध में तुम्हारे सहायक होंगे|”

अर्जुन प्रसन्नचित होकर देवनगरी गए वहाँ पांच वर्ष तक युद्धकला के अतिरिक्त ललित कलाओं में निपुणता प्राप्त की| तत्पश्चात वे इंद्र के रथ पर सवार होकर, द्वेतवन में अपने भाइयों के पास लौट आए|

बालक की