नारद का गर्व भंग (भगवान शिव जी की कथाएँ) – शिक्षाप्रद कथा
एक समय की बात है कि देवर्षि नारद ने विषय-वासनाओं पर विजय प्राप्त करने के लिए परब्रह्म की कठोर साधना की| वे हिमालय पर्वत के एक निर्जन स्थान में जाकर समाधिस्थ हो गए और परब्रह्म की आराधना करने लगे| उनको इस प्रकार कठोर साधना करते देख देवराज इंद्र भयभीत हो गए| उन्होंने इस विषय में देवगुरु बृहस्पति से परामर्श करने का विचार किया| वे आचार्य बृहस्पति के पास पहुंचे और उनसे कहा – “आचार्य! नारद हिमालय पर्वत पर कठिन साधना कर रहे हैं| मेरी समझ में यह नहीं आ रहा है कि वे इतना कठोर तप किस उद्देश्य के लिए कर रहे हैं?”
देवगुरु बृहस्पति बोले – “इंद्र! संभव है नारद के मन में तुम्हारे सिंहासन को प्राप्त करने की लालसा पैदा हो गई| शायद इसीलिए वे इतनी कठोर साधना कर रहे हैं|”
देवगुरु की बात सुनकर इंद्र और भी भयभीत हो गए| उन्होंने आचार्य बृहस्पति से पुन: पूछा – “आचार्य! यदि ऐसा हुआ तो मेरे लिए यह बहुत भयंकर बात होगी| मुझे परामर्श दीजिए कि ऐसी हालत में मैं क्या करूं?”
आचार्य बृहस्पति बोले – “इंद्र! तुम तो देवों के राजा हो, सर्वशक्ति संपन्न हो, सामर्थ्यवान हो, मैं तुम्हें इस विषय में क्या परामर्श दे सकता हूं, तुम स्वयं ही कोई उपाय सोचो|”
“हां मुझे ही कोई न कोई उपाय सोचना पड़ेगा|” कहते हुए इंद्र वहां से चले आए|
अपने महल में पहुंचकर उन्होंने कामदेव को बुलवाया और उनसे कहा – “कामदेव! नारद हिमालय पर्वत पर निर्जन स्थान में बैठे कठोर तपस्या कर रहे हैं| मैं चाहता हूं कि तुम उनके पास जाओ और अपनी शक्ति द्वारा जैसे भी हो, उनकी तपस्या भंग कर दो|”
‘आज्ञा पाकर कामदेव तत्काल उस स्थान को चल पड़े, जहां नारद तपस्या कर रहे थे| वहां पहुंचकर उन्होंने अपनी मायावी शक्ति का जाल बिछाया| उसके संकेत मात्र से उस बियावान क्षेत्र में बहार आ गई| कुछ क्षण बीतते-बीतते स्वर्ग-लोक की एक अप्सरा प्रकट हुई और नारद के सामने मनोहारी नृत्य करने लगी| उसके घुंघरुओं की मधुर ध्वनि वातावरण में गूंजने लगी| लेकिन कामदेव का यह प्रयास व्यर्थ ही साबित हुआ| अप्सरा नृत्य करते-करते थक गई, किंतु नारद का ध्यान नहीं टूटा| थक-हारकर अप्सरा वापस लौट गई|
तप पूरा होते ही नारद ने आंखें खोलीं| कामदेव ने सोचा – ‘यदि नारद को बाद में यह पता लग गया कि मैंने उनकी तपस्या में विघ्न डालने की चेष्टा की है तो वह मुझे शाप दे देंगे, उचित यही है कि मैं स्वयं ही उन्हें सच्ची बात बता दूं| यही सोचकर उन्होंने नारद के समक्ष पहुंचकर उन्हें साष्टांग प्रणाम किया| नारद ने उन्हें आशीर्वाद देकर पूछा – “आओ कामदेव! किस कार्य हेतु यहां आगमन हुआ?”
कामदेव बोले – “देवर्षि! मेरा अपराध क्षमा हो| मैंने आपकी तपस्या भंग करने का प्रयास किया था|”
नारद ने पूछा – “पर क्यों? किसके आदेश से तुमने ऐसा किया?”
कामदेव ने कहा – “मुनिवर! मुझ अंकिचन में इतनी हिम्मत नहीं जो स्वयं ही आपको तप से डिगाने का कार्य करता| मुझे ऐसा करने को कहा गया था|”
“किसने ऐसा करने को कहा था कामदेव?”
“देवराज इंद्र ने| उन्होंने ही मुझे यहां भेजा था|” कामदेव ने सच्ची बात बता दी|
कामदेव की बात सुनकर नारद ने मुस्कुराकर कहा – “मैंने तुम्हें क्षमा किया कामदेव! अब तुम जाओ और देवराज को बता देना कि नारद ने इच्छाओं को वश में कर लिया है| अब मैं संसार के किसी भी भौतिक आकर्षण में नहीं फंस सकता|”
‘जान बची और लाखो पाए|’ कामदेव ने सोचा और जल्दी से वहां से चले गए| कामदेव के जाने के पश्चात नारद सोचने लगे – ‘मैंने कामदेव को परास्त कर दिया| अब मेरा नाम भी भगवान शिव के समान हो गया, क्योंकि कामदेव को या तो शिव ने परास्त किया था या फिर अब मैंने|’ यह सोचकर नारद कैलाश पर्वत पहुंचे| उन्होंने भगवान शिव और पार्वती को नमन किया| भगवान शिव ने नारद के चेहरे पर झलकती प्रसन्नता की चमक देखी तो उन्होंने पूछा – “क्या बात है नारद! आज आप बहुत प्रसन्न दिखाई दे रहे हैं?”
नारद बोले – “हां भगवान्! बात ही कुछ ऐसी है|”
“ऐसी क्या बात है, हमें भी तो बताओ?”
“भगवन्! मैंने कामदेव को जीत लिया है| इंद्र ने उसे मेरी तपस्या भंग करने के लिए भेजा था, किंतु वह अपने प्रयासों में सफल नहीं हुआ| मैंने निर्विघ्न अपनी तपस्या पूरी की है|”
नारद की बात सुनकर शिव मुस्कुराए और बोले – “नारद! मुझे यह जानकर बहुत प्रसन्नता हुई कि तुमने काम पर विजय प्राप्त कर ली| पर देखो, यह बात तुमने मुझे बता दी तो बता दी, और किसी देव को यह बात मत बताना, विशेषकर विष्णु को तो भूलकर भी यह बात मत बताना|”
लेकिन नारद को चैन कहां! यह बात बताने के लिए तो उनके पेट में मरोड़ उठ रही थी, अत: भगवान शिव के परामर्श को उन्होंने नहीं माना और क्षीर सागर की ओर चल पड़े| रास्ते में उन्होंने सोचा – ‘कामदेव पर मेरी विजय की खबर सुनकर शिव विशेष प्रसन्न नहीं हुए| शायद उन्हें मुझसे ईर्ष्या हो रही है, इसलिए वे भगवान विष्णु से भी यह बात न बताने को कह रहे थे| भला इतनी बड़ी सफलता की बात मैं भगवान विष्णु को क्यों न बताऊं? वे तो मुझसे बहुत स्नेह रखते हैं| काम पर मेरी विजय की बात सुनकर उन्हें तो मुझ पर बहुत गर्व होगा|’
ऐसा ही कुछ सोचते हुए वे क्षीर सागर में पहुंचे और भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी के सामने पहुंचकर उन्हें प्रणाम किया| भगवान विष्णु बोले – “आओ नारद! बहुत समय बाद तुम्हें देखकर बहुत प्रसन्नता हुई| कहां रहे इतनी दिनों तक?'”
“भगवान! मैं तपस्या कर रहा था और आपको जानकार हर्ष होगा कि मेरी तपस्या पूर्ण हुई यद्यपि देवराज इंद्र ने कामदेव द्वारा मेरी तपस्या भंग करने की कोशिश की, किंतु कामदेव को भी मुझसे हार माननी पड़ी|”
“अच्छा! क्या सचमुच?” भगवान विष्णु ने कृत्रिम आश्चर्य व्यक्त किया|
“हां, प्रभु! अब मैंने भी कामदेव पर विजय प्राप्त कर ली है| अब अकेले शिव ही नहीं हैं काम देव को जीतने वाले| आपका यह भक्त भी सारे सांसारिक प्रलोभनों से परे हो गया है|”
भगवान विष्णु समझ गए कि नारद के मन में अभिमान पैदा हो गया है, किंतु प्रकटत: वे बोले – “यह तो बहुत अच्छी बात है नारद! फिर भी तुम सदा सावधान रहना| कौन जाने कब क्या घटित हो जाए|”
फिर भगवान विष्णु से विदा लेकर नारद लौट पड़े| उनके मन में उत्साह की बजाय कुछ विक्षोभ-सा था| उन्होंने सोचा – ‘मेरी सफलता पर भगवान विष्णु भी बहुत प्रसन्न नहीं हुए| मैं कोई दुर्बल व्यक्ति थोड़े ही हूं| फिर वे क्यों मुझे सावधान रहने की सीख दे रहे थे?’
नारद विचारों की ऐसी ही रौ में बहते हुए आकाश मार्ग में चले जा रहे थे कि तभी उनकी निगाहें नीचे बने एक भव्य नगर पर जाकर टिक गईं – ‘अरे वाह! यह तो बड़ा सुंदर नगर लगता है| ऐसा नगर तो मैंने पहले कभी नहीं देखा| इसमें चलकर देखना चाहिए|’ यही सोचकर नारद नीचे उतरे और वहां के राजमार्ग पर जाते एक व्यक्ति से पूछा – “सुनो भाई! इस विशाल और सुंदर नगर का राजा कौन है?’
वह व्यक्ति बोला – “आश्चर्य है, आप यहां के राजा को नहीं जानते? यहां के राजा का नाम है शीलनिधि| आप उनसे मिलना चाहते हैं तो उनके महल में चले जाइए|”
नारद राजमहल के दरवाजे पर पहुंचे तो उनके आगमन का समाचार सुनकर राजा शीलनिधि स्वयं बाहर आए और बड़े आदर-सत्कार पूर्वक नारद को अपने महल में ले गए| तभी राजकुमारी भी वहा आ पहुंची| राजा शीलनिधि ने नारद को उसका परिचय दिया – “यह मेरी पुत्री है मुनिवर! इसका नाम श्रीमती है|”
श्रीमती की सुंदरता देखकर नारद ने मन-ही-मन उसकी प्रशंसा की| जब श्रीमती ने प्रणाम किया तो नारद ने उसे मुक्त कंठ से आशीर्वाद प्रदान किया|
राजा शीलनिधि बोले – “मुनिवर! श्रीमती अब विवाह योग्य हो गई है| मैंने निश्चय किया है कि शीघ्र ही एक स्वयंवर का आयोजन कराऊंगा ताकि यह स्वेच्छा से अपना पति वरण कर सके|”
नारद बोले – “तुम्हारी कन्या साक्षात लक्ष्मी है| कोई भी हरि जैसा गौरवशाली व्यक्ति इसे पत्नी रूप में पाकर धन्य हो सकता है|”
राजा शीलनिधि बोले – “आपके कथन से मेरा उत्साह बढ़ा है मुनिवर! अब तो शीघ्र ही इसके स्वयंवर का आयोजन करूंगा|”
नारद ने मन ही मन सोचा – ‘इस राजकन्या का विवाह यदि मेरे साथ हो जाए तो कितना अच्छा रहे| इसे पत्नी रूप में पाकर मैं तो जैसे धन्य हो जाऊंगा| अगर यह मुझे प्राप्त हो जाए तो मैं पुरे ब्रह्मांड में स्वयं को सबसे भाग्यशाली पुरुष समझूंगा, पर मैं इसे प्राप्त करूं कैसे?’
राजा शीलनिधि का आतिथ्य – सत्कार स्वीकार कर नारद उस नगर से बाहर गए और उन्होंने एक स्थान पर खड़े होकर भगवान विष्णु का स्मरण किया| अपने प्रिय भक्त की पुकार सुनकर भगवान विष्णु प्रकट हुए – “क्या बात है नारद! कैसे स्मरण किया मेरा|”
“भगवन! मुझे हरि जैसा सुंदर मुख चाहिए| आप कृपा करके मेरा मुख हरि जैसा कर दीजिए|”
भगवान विष्णु ने ‘तथास्तु!’ कहा और अंतर्धान हो गए|
बस यहीं नारद से एक चूक हो गई| वरदान मांगते समय वे यह भूल गए कि हरि का एक अर्थ ‘ वानर’ भी होता है| भगवान विष्णु ने नारद का मुख बंदर जैसा बना दिया और क्योंकि नारद के पास उस समय अपना रूप देखने के लिए कोई उपकरण भी नहीं था, अत: वे अपना मुख नहीं देख सके| जिस समय नारद स्वयंवर स्थल में पहुंचे, वहां अनेक देशों के राजा एवं राजकुमार उपस्थित थे| नारद बड़े विश्वास के साथ यह सोचते हुए कि अब तो वरमाला मेरे गले में ही पड़ेगी, जाकर एक आसन पर विराजमान हो गए|
नारद को देखकर वहां उपस्थित राजा लोग मंद-मंद मुस्कुराने लगे| उनमें से एक राजा बोला – “अरे, जरा इस मनुष्य का मुख तो देखो| इसका शरीर तो मनुष्य जैसा है और मुख बंदर का|”
दूसरा बोला – “यह शायद अपने आपको बहुत सुंदर समझता है| तभी तो राजकुमारी के स्वयंवर में उसके द्वारा स्वयं का चयन किए जाने की आशा में यहां आया है|”
उस व्यक्ति की बात सुनकर सभी ठठाकर हंस पड़े| तभी राजकुमारी श्रीमती वरमाला लिए स्वयंवर स्थल में पधारी| उसे देखकर उपस्थित राजा हास-परिहास करना भूल गए और सब सावधान, मुद्रा में बैठ गए| सबको आशा थी कि राजकुमारी उनके गले में ही वरमाला डालेगी| विशेषकर नारद के मन में तो किसी प्रकार की कोई शंका ही नहीं थी| भला जिसके पास भगवान विष्णु जैसा सुंदर मुखड़ा हो, उसे कौन-सी सुंदरी अस्वीकार करती| राजकुमारी वरमाला लिए जैसे ही नारद के समीप पहुंची, नारद ने अपनी गर्दन आगे करके मुस्कुराकर कहा – “देवी! एक दृष्टि इधर भी देख लो| मैं भी तुमसे परिणय करने का आकांक्षी हूं|”
नारद की बात सुनकर राजकुमारी हंस पड़ी और बोली – “तनिक अपने मुख को भी तो दर्पण में निहार लो वानर!” यह कहकर उसने एक व्यंग्य भरी दृष्टि नारद पर डाली और उपेक्षा से उनकी ओर देखकर अपना मुख दूसरी ओर मोड़ लिया| राजकुमारी श्रीमती ने स्वयंवर-स्थल में दो तीन-चक्कर लगाए और फिर वरमाला हाथ में लिए एक ओर उदास भाव से खड़ी हो गए| तभी भगवान विष्णु ने स्वयंवर-स्थल में प्रवेश किया, जिन्हें देखकर राजकुमारी का चेहरा खिल उठा| वह तेजी से आगे बढ़ी और वरमाला विष्णु के गले में डाल दी|
नारद ने जब यह दृश्य देखा तो वे ईर्ष्या से जल उठे| वे विष्णु के पास पहुंचे और क्रोध भरे स्वर में बोले – “भगवन! आपने मेरे साथ ऐसा छल क्यों किया? मैंने आपसे आपके जैसा सुंदर मुख मांगा था और आपने मुझे वानर का मुख दे दिया| ऐसा धोखा मेरे साथ आपने क्यों किया? भगवन! यदि आपको स्वयं ही इस राजकुमारी से विवाह करना था तो मुझे पहले ही बता देते, मैं स्वयं ही इस प्रतियोगिता से बाहर हो जाता|”
तब श्री हरि ने नारद से कहा – “नारद! मैंने तुम्हारे साथ किसी प्रकार का कोई छल नहीं किया| तुमने मुझसे हरि का मुख मांगा था, सो मैंने तुम्हें दे दिया| तुम तो संस्कृत के प्रकांड पंडित हो, फिर यह क्यों नहीं समझ सके कि हरि का एक अर्थ वानर भी होता है|”
अपनी गलती महसूस कर नारद के क्रोध में कुछ कमी आई| उन्होंने पूछा – “अब क्या मेरा मुख जीवन-भर इसी प्रकार का बना रहेगा भगवन?”
भगवान विष्णु बोले – “नहीं, बस तुम थोड़ी देर के लिए अपनी आंखें बंद कर लो|”
नारद ने अपनी आंखें बंद कर लीं| भगवान विष्णु पुन: बोले – “अब अपनी आंखें खोलो और देखो कि सच क्या है?”
नारद ने अपनी आंखें खोलीं| इधर-उधर दृष्टि घुमाई| अब वहां न राजा शीलनिधि था, न उसका कोई महल, न स्वयंवर-स्थल और न स्वयंवर में भाग लेने आए प्रतियोगी| वे एक निर्जन स्थान पर खड़े थे और उनके सामने खड़े थे श्रीहरि विष्णु और माता लक्ष्मी| उन्हें इस प्रकार चारों ओर भौचक्के भाव से निहारते देख भगवान विष्णु ने कहा – “नारद! यह सब मेरी माया थी| तुम्हारे मन में घमंड पैदा हो गया था कि तुमने काम पर विजय प्राप्त कर ली है और तुम अब भगवान शिव के समकक्ष हो गए हो| तुम्हारे इसी अहंकार भाव को समाप्त करने के लिए मुझे यह माया रचनी पड़ी और हां, जिसे तुम राजकुमारी श्रीमती समझे हुए थे और जिससे विवाह करने को आतुर हो रहे थे, जानते हो वह कौन थी?”
“कौन थी!” नारद के मुंह से बरबस ही निकल पड़ा|
“लक्ष्मी! मेरी चिरसंगिनी!” लक्ष्मी की ओर संकेत करते हुए भगवान ने कहा – “तुम जिसे माता लक्ष्मी कहकर बुलाते हो, वही लक्ष्मी राजकुमारी श्रीमती थी|”
यह सुनकर नारद का चेहरा शर्म से झुक हो उठा| उन्होंने श्री हरि से कहा -“हे प्रभु! आपने मुझ पर बड़ा उपकार किया, जो समय रहते ही मेरी आंखें खोल दीं| मैं सचमुच पतन के गर्त में गिरने के लिए जा रहा था, किंतु आपने कृपा करके मुझे उबार लिया|”
इस प्रकार भगवान विष्णु की कृपा से नारद के मन में पैदा हुआ अहंकार भाव समाप्त हो गया| राजकुमारी श्रीमती से विवाह करने की जो इच्छा उनसे मन में पैदा हुई थी, वह भी तिरोहित हो गई| नारद ‘नारायण-नारायण’ कहते हुए पुन: अपने मार्ग पर चल पड़े|
Spiritual & Religious Store – Buy Online
Click the button below to view and buy over 700,000 exciting ‘Spiritual & Religious’ products
700,000+ Products