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यहूदी हकीम की कहानी

यहूदी हकीम की कहानी

पहले मैं दमशिक नगर में हकीमी किया करता था| अपनी चिकित्सा के कारण वहाँ मेरी बड़ी प्रतिष्ठा हो गई थी| एक दिन वहाँ के हकीम ने मुझसे कहा, “फलां मकान में एक रोगी है, वह वहाँ आ नही सकता| उसको वही जाकर देखो|”

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मैं वहाँ गया तो देखा, एक अत्यंत सुंदर नवयुवक चारपाई पर लेटा है| उसने मेरे अभिवादन के उत्तर में इशारे से कहा कि आपका यहाँ स्वागत है|

मैंने इससे नाड़ी दिखाने को कहा तो उसने बायाँ हाथ बढ़ा दिया| मैंने समझा कि इसे मालूम नही है कि नाड़ी दाएँ हाथ की देखी जाती है| किंतु मैंने बहस किए बगैर नाड़ी देखी और दवा लिख दी| नौ दिन तक मैं उसे देखने को जाता रहा| नवें दिन मैंने कहा, “अब आप बिल्कुल स्वस्थ है, स्नान कीजिए|”

दमशिक के हाकिम ने मुझे यथेष्ठ पारितोषिक दिया और मुझे शाही दवाखाने का प्रमुख बना दिया| जिस युवक का मैंने इलाज किया था, वह भी मुझे बहुत मानने लगा| उसने कहा, “मैं आपकी निगरानी में ही स्नान करूँगा|” फलस्वरूप मैं स्नानागार में उसके साथ गया| उसके कपड़े उतारने पर मैंने देखा कि उसका दाहिना हाथ कटा हुआ है| वह हाथ कटने से ही बीमार पड़ा था और इसी कारण बायाँ हाथ दिखाया करता था| मुझे ये देखकर बड़ा दुख हुआ| उसने मेरी आँखों की करुणा देखकर कहा, “आप मेरा दाहिना हाथ कटा देखकर ही आश्चर्य और दुख में डूबे हुए है| अगर आप मेरी कहानी सुनेंगे तो और भी आश्चर्य करेंगे| स्नान के बाद जब मैं भोजन करने बैठूँगा, तो आपको पूरी कहानी सुनाऊँगा| लेकिन यह बताइए कि क्या इस समय बाग की सैर करने में मुझे कुछ हानि होगी?”

मैंने कहा, “बाग की सैर करने से तुम्हें फायदा ही होगा, नुकसान नही|”

उसने कहा, “ठीक है, बाग की सैर करते-करते ही मैं आपको सारा किस्सा सुनाऊँगा|”

फिर उसने अपने सेवकों को भोजन तैयार करने की आज्ञा दी और हम दोनों बाग में गए| हमने दो-तीन चक्कर लगाए और फिर वहाँ पर बिछे एक कालीन पर बैठ गए और उस युवक ने अपना वृतांत आरम्भ किया|

मैं मोसिल का रहने वाला हूँ| मैं एक बड़े घराने का लड़का हूँ| मेरे पितामह के दस बेटे थे, जिनमें मेरे पिता सबसे बड़े थे| अपने पिता का मैं एकमात्र पुत्र था और मेरे किसी चाचा की कोई संतान नही थी| मेरे पिता ने मेरी शिक्षा-दीक्षा पर बहुत ध्यान दिया और मुझे केवल प्रत्येक पठनीय विषय की ही शिक्षा ही नही दिलाई, बलिक मुझे अनेक कला के क्षेत्रों में पारंगत करवा दिया|

एक दिन मैं अपने पिता और चाचा के साथ जुमे की नमाज को गया| नमाज के बाद सारे नमाजी अपने-अपने काम पर चले गए और मेरे पिता और चाचा बातें करने लगे| मेरे चाचा ने कहा, “कोई देश मिस्त्र जैसा सुंदर नही है|” उन्होंने मिस्त्र देश और उसमें बहने वाली नील नदी की इतनी प्रशंसा की कि मेरा मन बेतहाशा उसे देखने के लिए मचलने लगा| घर पर भी यही चर्चा रही| मेरे पिता भी मिस्त्र के बड़े प्रशंसक थे| मेरे दूसरे चाचा लोग कह रहे थे कि बगदाद जैसी सुंदर जगह कोई नही है| किंतु मेरे पिता ने उनकी बात का विरोध किया और मिस्त्र की बहुत प्रशंसा की|

उन्होंने कहा, “जिसने मिस्त्र नही देखा, उसने ईश्वर की महिमा भी नही देखी| वहाँ की भूमि सोना उगलती है| वहाँ के निवासी बड़े संपन्न है| मिस्त्र की स्त्रियाँ अत्यंत रूपवती और चतुर होती है| नील नदी जैसी कोई नदी नही है| उसका पानी बहुत स्वादिष्ट और पाचक होता है और कई रोगों की दवा जैसा काम करता है| वह सारे देश को हरा-भरा रखती है| वहाँ की मिट्टी बड़ी नर्म है, जहाँ खेती करने में बहुत श्रम नही करना पड़ता| वहाँ के निवासी अरबी भाषा में नील की प्रशंसा में गीत गाते है, जिसका भाव यह है- नील नदी तुम्हारे लिए कितनी लंबी यात्रा करती है और बड़े खेद की बात होगी, अगर तुम उसे छोड़कर अन्यत्र जा बसो|”

यह कहने के बाद मेरे पिता ने कहा, “मिस्त्र में सारी ऋतुओं में हरियाली रहती है| वहाँ नाना प्रकार के स्वादिष्ट फलों के वृक्ष और भांति-भांति के पशु-पक्षी रहते है| वहाँ की राजधानी काहिरा की आबादी बहुत अधिक है| वहाँ के महल बहुत बड़े-बड़े और रत्नजड़ित है| मैंने कई नगर देखे है और सैकड़ों कलाकारों और विद्वानों से मिला हूँ| मिस्त्र जैसा देश और वहाँ के निवासियों जैसे लोग कही भी नही देखे|”

उस जवान ने कहा कि अपने पिता के मुहँ से मिस्त्र की इतनी प्रशंसा सुनकर मेरी उत्कंठा बहुत बलवती हो गई रात-दिन भगवान से प्रार्थना करने लगा कि वह कुछ ऐसी परिस्थिति उत्पन्न कर दे कि मुझे मिस्त्र देश को देखने का अवसर मिल जाए| मेरे पिता के मुहँ से मिस्त्र की प्रशंसा सुनकर मेरी चाचाओं ने कहा, “हम लोगों को भी चलकर मिस्त्र देश देखना चाहिए|”

उन्होंने मेरे पिता से कहा, “आप भी हमारे साथ चलिए|”

उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया| मेरे चाचाओं ने, जो सब व्यापार करते थे, तरह-तरह की दिसावरी माल खरीदा ताकि मिस्त्र में सैर-की-सैर हो ओर व्यापार-का-व्यापार| रात-दिन उन लोगों में मिस्त्र की यात्रा की चर्चा होती रहती थी| जब मैंने यह तैयारियाँ देखी तो एक दिन रोता हुआ अपने पिता के पास गया और कहा, “मैं भी आप लोगों के साथ मिस्त्र जाना चाहता हूँ|”

उन्होंने कहा, “तुम अभी छोटे हो|”

एक-एक करके मैं सभी चाचाओं के पास गया और उनसे कहा, “मेरे पिता से मुझे भी ले चलने की सिफ़ारिश करे|”

उन्होंने मेरे पिता से कहा, “लड़का इतना चाहता है, तो उसे भी साथ ले चलिए|”

मेरे पिता मुझे मिस्त्र तक ले जाने को राजी न हुए, लेकिन यह मान गए कि मुझे दमशिक तक ले चलेंगे और जब दमशिक से मिस्त्र की ओर बढ़ेंगे तो इसे वापिस मोसिल भेज देंगे| दमशिक भी जलवायु, पानी और सौंदर्य के लिहाज़ से बहुत अच्छा नगर है|

यधपि मेरी इच्छा मिस्त्र देश को देखने को थी, तथापि मैंने इस बात को गनीमत जाना कि मुझे दमशिक देखने को मिलेगा| कुछ दिन बाद मैं अपने पिता और चाचाओं के साथ विदेश यात्रा पर चल पड़ा| हम लोग कई नगरों से होते हुए दमशिक पहुँचे| मुझे यह नगर बड़ा सुंदर जान पड़ा ओर मैं इसे देखकर बड़ा प्रसन्न हुआ| हम लोग एक सराय में ठहरे| कई दिनों तक हम वहाँ के बागों और महलों की सैर करते रहे| वास्तव में मुझे ऐसा मालूम होता था कि स्वर्ग के बाद अगर कोई जगह है तो यहाँ है| मेरे पिता और चाचाओं ने वहाँ काफ़ी अच्छा व्यापार किया| मेरे हिस्से का भी जो माल बिका, उसमें पाँच अशर्फी प्रति सैकड़े का लाभ हुआ| यह लाभ की राशि मुझे दे दी गई| मेरे पास काफ़ी पैसा हो गया| अब यह तय हुआ कि जब सब लोग मिस्त्र से वापस होंगे तो मुझे साथ लेते हुए जाएँगे|

उनके जाने के बाद मैंने अपने रुपयों को बड़ी होशियारी और किफ़ायत से खर्च किया| एक छोटी हवेली अपने रहने के लिए किराए पर ली| वह बड़ी खूबसूरत संगमरमर की बनी हवेली थी, जिसकी दीवारों पर मनोहर चित्रकारी थी और अंदर एक सुंदर पुष्पवाटिका थी| मैंने उसे दो अशर्फी के किराए पर ले लिया|

मैंने किफ़ायत से किंतु सुरुचिपूर्वक अपने निवास स्थान को सजाया| उसका मालिक पहले एक अब्दुर्रहीम नामक एक व्यक्ति था, जिसने उसे अपने तत्कालीन मालिक से मोल लिया था| यह व्यक्ति एक प्रसिद्ध जौहरी था| मैंने अपनी प्रतिष्ठा के अनुरुप दास-दासियाँ भी खरीदे और माननीय नगर निवासियों से जान-पहचान बढ़ाई| कभी वे लोग मुझे अपने घरों पर खाने के लिए बुलाते, कभी मैं उन लोगों की दावत अपने घर पर किया करता था| मतलब यह कि अपने पिता और चाचाओं की अनुपस्थिति में मैंने बड़े सुख-सुविधा के साथ दमशिक नगर में जीवन-यापन किया|

एक दिन भोजन करने के बाद मैं अपनी हवेली से बाहर के हिस्से में बैठा था| इतने में एक स्त्री आई, जो अति मूल्यवान वस्त्रों और आभूषणों से सुसज्जित थी| उसने पूछा, “क्या तुम कपड़े के व्यापारी हो?” किंतु इससे पहले कि मेरे मुँह से कोई उत्तर निकले, वह मकान के अंदर चली आई| मैं भी उठा और दरवाजा अंदर से बंद करके उसके पास एक दालन में जा बैठा| फिर मैंने कहा, “मैं कपड़ों का व्यवसाय अवश्य करता हूँ, किंतु खेद है कि इस समय मेरे पास थान नही है|”

उसने अपने सुंदर मुख से नकाब लगभग उलट दी और कहा, “मैं भी कहाँ कपड़े लेने आई हूँ? मैं तो तुमसे मिलने आई हूँ मैं चाहती हूँ कि सुबह तक यही रहूँ| किंतु मुझे भूख लगी है, मुझे कुछ खाने को दो|”

मैंने अपने सेवकों को भोजन आदि लाने को कहा| वे भोजन के साथ फल आदि भी ले आए, जिन्हें मैं इस रमणी का साथ देने के लिए खाने लगा| आधी रात तक हम लोग इसी प्रकार बातचीत करते रहे| फिर हम एक साथ सोने के लिए चले गए| सुबह मैंने दस अशर्फियाँ निकालकर उसे दी, किंतु उसने उन्हें लेने से इनकार ही नही किया, बल्कि दस अशर्फियाँ मुझे दी|

मैंने जब कहा, “मैं तुम्हारा धन नही लूँगा, बल्कि तुम्हें अशर्फियाँ दूँगा|”

वह बोली, “मैं रोज़ तुम्हारे पास आने की सोचती थी, किंतु अगर तुम मेरी बात न मानोगे और अपनी बात पर अड़े रहोगे तो मैं नही आऊँगी|”

इस बात पर मज़बूर होकर मुझे दस हज़ार अशर्फियाँ लेनी पड़ी और वह चली गई| शाम को वह फिर आई और हम लोगों ने रातभर राग-रंग किया और दूसरी सुबह वह फिर दस अशर्फियाँ देकर कहने लगी कि आज शाम को फिर आऊँगी| तीसरी रात को जब हम दोनों मदिरा के नशे में आलिंगनबद्ध थे तो उसने मुझसे पूछा, “प्यारे! तुम मुझे सुंदर समझते हो या नही?”

मैंने कहा, “तुम कैसी बातें कर रही हो? क्या तुम अपने लिए मेरे प्रेम को नही जानती| मैं तुम्हें संसार की सर्वश्रेष्ठ सुंदरी मानता हूँ|”

वह हँसकर कहने लगी, “यह बेकार की बात है| मेरी एक सहेली मुझसे आयु में भी कम है और बड़ी कोमल भी है| उसे भी तुम्हें देखने की बड़ी लालसा है| मैं उसे यहाँ लाऊँगी|”

मैंने कहा, “मैं तुम्हें ही चाहता हूँ| तुम चाहो तो उसे आओ, लेकिन मैं प्रेमी तो तुम्हारा ही रहूँगा|” उस स्त्री ने कहा. “तुमने जो कहा है, उस पर दृण रहना| मैं उसे सामने लाकर तुम्हारी परीक्षा लूँगी|” यह कहकर वह स्त्री विदा हुई| उस दिन उसने मुझे पचास हज़ार अशर्फियाँ दी, जो मुझे लेनी पड़ी| जाते समय वह कहने लगी, “दो दिन बाद मैं आऊँगी और एक नया मेहमान भी लाऊँगी और उसकी अभ्यर्थना के लिए भोजन आदि की अच्छी व्यवस्था रखना|”

जिस दिन की बात हुई थी, उस दिन मैंने घर की सफ़ाई करवाई और नाना प्रकार के फल तथा अन्य खाध-सामग्री घर में तैयार रखी| शाम को दोनों स्त्रियाँ आई| उन्होंने अपने चेहरों से नकाब उतार दिए| वातव में पहली स्त्री से नई स्त्री हर बात में सवाया थी| अगर पहली पर एक बार नज़र जाती थी तो दूसरी पर बार-बार जाती थी| उसका सौंदर्य इतना मनमोहक था कि नज़र उस पर से हटती नही थी| जब उसकी प्रेम-दृष्टि मुझ पर पड़ी तो मैं अधीर हो गया| मैंने दोनों स्त्रियों के प्रति आभार प्रकट किया कि वे मेरे यहाँ आई| इस पर नई स्त्री ने कहा, “आभारी तो मुझे होना चाहिए कि आपने मुझे अपने घर तक आने की अनुमति दी|”

मैंने दोनों स्त्रियों को भोजन पर बिठाया| मैं अपनी नई मेहमान के सामने जा बैठा और उसे बराबर देखता रहा| वह स्त्री चाहते हुए भी मेरी तरफ़ आँख भरकर देख न सकी, न हँस-बोल सकी| लगता था, जैसे वह पहली स्त्री से भयभीत थी| फिर भी कभी-कभी तिरछी नज़र से मुझे देख लिया करती थी| जब उसने देखा की मेरी निगाहों में उसके प्रति प्यार उमड़ रहा है तो उसने भी प्रेम की दृष्टि से मुझे देखना शुरु कर दिया|

यह सब पहली स्त्री की आँखों से छुपा न रहा| वह हँसकर कहने लगी, “तुम इसे बार-बार क्यों देख रहे हो? तुमने तो मुझसे वायदा किया था कि मेरे अलावा किसी पर भी आँख नही डालोगे| इतनी जल्दी अपना वायदा भूल गए?” मैंने उसी की भांति हँसकर कहा, “तुम बेकार ही मुझ पर शक करती हो| आखिर तुम्हीं तो इन्हें कृपापूर्वक यहाँ लाई हो| मैं यह कैसे कर सकता हूँ कि इन पर वैसी नज़र डालूँ| यदि मैं ऐसा करूँ तो तुम दोनों के लिए घृणा का पात्र हो जाऊँगा|”

हम लोग देर तक मधपान करते रहे और हमें नशा चढ़ गया| नशे में मैं और नई स्त्री एक-दूसरे की ओर अत्यंत प्रेम तथा वासना भरी निगाहों से देखने लगे| यह खुला प्रेम व्यापार देखकर पहली स्त्री ईर्ष्या और द्वेष से जलने-भुनने लगी| कुछ देर में वह यह कहकर उठ खड़ी हुई कि मैं अभी आती हूँ| दो चार क्षणों में मेरे पास बैठी हुई स्त्री के चेहरे का रंग बदल गया और वह मरणासन्न-सी दिखाई देने लगी| मैंने उठकर उसे संभाला कि वह गिर न जाए, किंतु उसने देखते ही देखते मेरी बाँहों में दम तोड़ दिया| मैंने घबराकर अपने सेवकों को पुकारा कि इसे संभालो और इसके साथ आई स्त्री को बुलाओ|

उन्होंने थोड़ी देर बाद मुझसे आकर कहा, “वह तो घर से निकलकर फलां गली में चली गई!”

अब मैंने जाना कि यह सब उसी दुष्ट की करतूत है| वह इस बेचारी के अंतिम मदिरा पात्र में विष घोलकर चली गई| इस अचानक आई मुसीबत से मैं बदहवास हो गया| मैं डर के मारे काँपने-सा लगा कि अब भगवान ही जाने मुझ पर क्या विपत्ति आए| मैंने सोचा- जो होना होगा, वह तो होगा ही, पहले लाश को ठिकाने लगाया जाए|

मैंने सेवकों से कहा कि कमरे का संगमरमर का फर्श होशियारी से धीरे-धीरे उखाड़ों| उन्होंने ऐसा ही किया| फिर मैंने एक गड्ढा खुदवाकर लाश को उसमें दबा दिया| तदुपरांत मैंने अपने सेवकों को कुछ धन देकर विदा कर दिया| उसके बाद मैंने अपना सारा धन और ज़रूरत की चीजें लेकर हवेली में ताला लगाया और ताले को मुहरबंद कर दिया| फिर मकान मालिक जौहरी के पास जाकर उसे एक वर्ष का पेशगी किराए के तौर पर दिया और उससे कहा, “मैं आवश्यकतावश काहिरा जा रहा हूँ|”

फिर मैं काहिरा आकर अपने चाचाओं से मिला| उन्होंने मुझसे पूछा, “तुम यहाँ क्यों और कैसे आए?” मैंने कहा, “आप लोगों का कुछ हाल नही मिल रहा था, इसलिए चला आया|”

मैं बहुत दिनों तक काहिरा में रहा| किंतु मैं अभी अच्छी तरह काहिरा देख भी नही पाया था कि उन्होंने मोसिल जाने की तैयारी शुरु कर दी| मैं उनकी निगाहों से छुपा रहा| उन्होंने मुझे बहुत ढ़ूँढ़ा, पर पा न सके| तब वे मेरे बगैर ही वापस चले गए|

इसके बाद मैं तीन वर्ष तक काहिरा में रहा| मैं साल-साल पर दमशिक के जौहरी के पास किराया भिजवा दिया करता था| फिर मैं दमशिक वापस आ गया| यहाँ मुझ पर वह मुसीबत पड़ी कि कहा नही जा सकता| यहाँ आकर जौहरी से चाबी माँगकर घर खुलवाया तो देखा की सारी वस्तुएँ यथावत है| मैंने कुछ नए सेवक रखे और उनसे मकान की सफ़ाई करवाई| सफ़ाई के दौरान एक सेवक को एक सोने का हार मिला, जिसमें बड़े-बड़े मोती जड़े हुए थे| वह उसे मेरे पास ले आया| मैंने पहचाना कि यह वही हार है, जो उस नई स्त्री के गले में पड़ा था, जिसकी लाश मैंने गड़वाई थी| मैंने उसकी स्मृति के तौर पर वह हार कपड़े में लपेटकर अपनी गर्दन में डाल लिया, फिर मैं वहाँ रहने लगा- किंतु कुछ करने में मेरा मन नही लगता था| फलतः मेरे पास का सारा धन धीरे-धीरे खर्च हो गया और मैं घर का सामान बेचकर गुजारा करने लगा| जब सब कुछ बिक गया तो मैंने सोचा कि इस मुक्ताजड़ित हार को बेचने के सिवा कोई उपाय नही है| किंतु मोती उसमें ऐसे लगे थे, जिनके मूल्य का मुझे कोई अंदाजा ही नही था| फिर भी मैं उसे बेचने पर मज़बूर था, लेकिन उसे बेचकर मैंने बहुत बड़ी मुसीबत ले ली|

मैं बाज़ार में उस हार को लेकर गया और अपने मकान मालिक जौहरी की दुकान पर जाकर अपना मंतव्य कहा कि मैं यह हार बेचना चाहता हूँ| उसने दलाल बुला लिए| मैंने दलाल के साथ जाकर उसे हार दिखाया| उसने कहा, “मुझे भी ऐसे मोतियों का मूल्य नही मालूम| आप उसी जौहरी की दुकान पर बैठे| मैं और जौहरियों को यह हार दिखाकर इसका दाम पूछकर आता हूँ|”

मैं अपने मकान मालिक की दुकान पर बैठ गया| कुछ देर में दलाल ने आकर कहा, “इसका मूल्य तो दो हज़ार अशर्फियाँ लगाया गया है, लेकिन एक जौहरी इसे पचास मुद्राओं में लेने को तैयार है|”

मैंने कहा, “जो दाम मिले, उसी पर बेच दो|”

किंतु जब दलाल उस जौहरी के पास पचास अशर्फियों में हार बेचने गया तो जौहरी उसे पकड़कर कोतवाली ले गया और शिकयत लिखाई कि यह आदमी चोरी का हार लाया है, इसलिए इतना सस्ता बेच रहा है|

दलाल ने कहा, “मैं तो दलाल हूँ| इसे बेचने वाला तो फलां दुकान पर बैठा है| वही इसे पचास अशर्फी में बेचने को राजी है|”

कोतवाल ने मुझे पकड़वा बुलाया| उसने पूछा, “तुम्हीं यह हार बेच रहे हो?” मेरे ‘हाँ’ कहने पर उसने कहा, “यह चोरी का माल है, इसलिए बेच रहे हो|” मेरे इनकार करने पर उसने मुझे इतना पिटवाया कि मुझे लगा मेरी जान निकल जाएगी| इसलिए मैंने घबराकर कह दिया कि यह चोरी का है| इस पर कोतवाल ने मेरा दायाँ हाथ कटवा दिया और उसने हार भी मालखाने में जमा करा दिया|

मैं पीड़ा से व्याकुल गिरता-पड़ता अपने घर आया| नौकर-चाकर पुलिस के डर के मारे भाग गए थे| मैं किसी तरह खुद ही अपना काम चलाता था| चौथे दिन बहुत से पुलिस वाले मेरे घर आए मुझे पकड़कर ले गए| उनके साथ मकान मालिक भी था और जौहरी भी, जिसने मुझ पर चोरी का आरोप लगाया था| उन्होंने मुझे बहुत गालियाँ दी और कहा,” यह हार शहर के हाकिम का है, यह तीन वर्ष हुए खो गया था| उसी समय के हाकिम की पुत्री भी लापता है|” यह कहकर उन्होंने मुझे रस्सी से बाँधा कर हाकिम के सामने पेश कर दिया| मैं पहले तो घबराया कि यह और बड़ी मुसीबत गले पड़ी| फिर मैंने सोचा की हाकिम अधिक-से-अधिक मुझे मरवा ही तो देगा और वह भी इस कष्ट, निर्धनता और लज्जा के जीवन से अच्छा है- किंतु हाकिम ने मुझे देखकर कहा, “यह आदमी चोर नही हो सकता, जिसने इस पर चोरी का आरोप लगाया है, उसे मरवा दिया जाए|”

अतः उस व्यापारी का कत्ल कर दिया गया|

अब हाकिम ने समस्त उपस्थित व्यक्तियों को जाने का आदेश दिया| सिर्फ़ मुझे रोके रखा| एकांत होने पर उसने मुझसे कहा, “बेटे! अब तुम बेखटके पूरा हाल बता दो कि यह हार तुम्हारे हाथ किस तरह लगा| यह ध्यान रहे कि मुझसे कोई छोटी-सी बात भी न छुपाई जाए|”

तब मैंने अपना पूरा हाल उसे बता दिया| मैंने यह बताया कि उस दूसरी स्त्री की लाश को मैंने अपने घर में ही दबा दिया था|

हाकिम ने यह सुनकर ठंडी सांस भरी और कहा, “भगवान की इच्छा के आगे सब लोग विवश है| मैं भी यह सब विनयपूर्वक स्वीकार करता हूँ, जो उसकी इच्छा से हुआ| तुम पर जो मुसीबत पड़ी, उसका मुझे अत्यंत खेद है| अब तुम मेरा हाल सुनो कि मुझ पर कैसे-कैसे दुख पड़े है|

“वे दोनों मेरी बेटियाँ थी| पहले जो तुम्हारे पास आई, वह मेरी बड़ी बेटी थी और बाद में जिसे वह लेकर गई, वह उसकी छोटी बहन थी| बड़ी बेटी का विवाह मैंने अपने भतीजे से कर दिया था, जो काहिरा में रहता था| वह कुछ दिनों बाद अचानक मर गया| मेरी बेटी कई वर्ष तक वैधव्य की दशा में काहिरा रही और वहाँ उसने तरह-तरह के दुष्कर्म सीख लिए| फिर वह यहाँ आ गई| दूसरी बेटी, जो उससे छोटी थी और जो तुम्हारी बाँहों में मरी, बड़ी समझदार और सदाचारिणी थी| उससे मुझे कोई शिकायत नही हुई| लेकिन उसकी बड़ी बहन ने उसे भी आवारा बनने पर राजी कर लिया| जब छोटी मरी तो मैंने दूसरे दिन बड़ी से पूछा कि तुम्हारी बहन कहाँ है| उसने ठंडी सांस भरकर कहा कि मैं तो सिर्फ़ इतना जानती हूँ कि कल वह बहुत मूल्यवान वस्त्राभूषण पहनकर घर से निकली थी और अभी तक नही आई| मैंने अपनी बेटी की बहुत खोज कराई, किंतु उसका कही पता नही चला| कुछ समय बाद बड़ी बेटी भी, रात-दिन अपने पाप कर्म को याद करके रोती रहती थी, बीमार होकर मर गई|”

यह वृतांत सुनाकर हाकिम ने मुझसे कहा, “बेटा! हम ओर तुम दोनों ही दुर्भाग्य के मारे है| किंतु अब तुम किसी बात की चिंता न करो| मैं तीसरी बेटी से, जो अपनी दोनों बहनों से अधिक सुंदर और बुद्धिमती है, तुम्हारा विवाह कर दूँगा| तुम मेरे घर को अपना घर समझो| मैं मरणोपरांत तुम्हें अपनी संपत्ति का उतराधिकार देने का वसीयतनामा लिख दूँगा|”

इस पर मैंने कहा, “आपका हर प्रकार से मुझ पर उपकार है| मैं आपको बुजुर्ग समझता हूँ और जो कुछ आपका आदेश होगा, वैसा ही करुँगा|”

हाकिम ने कहा, “फिर देर करने की क्या ज़रुरत है|” उसने गवाहों को तुरंत बुलाया और दिखावटी राग-रंग के बगैर काजी के द्वारा अपनी पुत्री से मेरा विवाह करवा दिया| इसके अतिरिक्त उसने अपनी सारी सम्पत्ति भी अपने मरणोपरांत मेरे नाम करने के कागज़ लिख दिए| आपने देखा होगा कि हाकिम मुझ पर कैसा दयालु है|

यह कहकर उस युवक ने कहा कि कल ही मोसिल से मेरे चाचाओं का पत्र लेकर एक आदमी आया है| पत्र में लिखा था कि तुम्हारे पिता का देहांत हो गया है, तुम जायदाद में अपना हिस्सा संभालो|

मैंने उत्तर में उन्हें लिख दिया है कि मैं भगवान की दया से यहाँ अच्छी तरह हूँ, किंतु मेरे लिए मोसिल आना संभव नही है| मैंने यह भी लिख दिया कि पिता से मिलने वाली जायदाद खुशी से आप लोगों को दे रहा हूँ|

यह कहकर उस जवान ने मुझसे कहा, “अब मैंने आपको अपना पूरा हाल बता दिया कि किस तरह से मेरा दायाँ हाथ जाता रहा|”

यहूदी हाकिम ने यह कथा सुनाकर काशनगर के बादशाह से कहा, “जब मैं दमशिक में था तो मैंने मोसिल के व्यापारी के मुँह से यह कहानी सुनी| जब तक दमशिक का हाकिम जीवित रहा, मैं उसकी सेवा में रहा| उसके मरने पर मेरी तबियत वहाँ न लगी| मैं फारस देश चला गया| वहाँ के कई नगरों की सैर करके हिंदुस्तान आ गया| वहाँ से आपकी राजधानी में आया और यहाँ हकीमी का सिलसिला डाल दिया|”

एक बार फिर शहरयार को ये कहानियाँ पसंद आई और वह दूसरी और कहानियों को सुनने का लालच न छोड़ सका| उसके कहने पर शहरजाद ने अगली कहानी कुछ इस प्रकार सुनाई|

काली और