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वैदिक संस्कृति की उदारता

एक बार की घटना है| स्वामी रामतीर्थ ने 1903 से 1906 तक अपने चमत्कारी व्यक्तित्व से भारत, जापान और अमेरिका को चमत्कृत किया था|

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लाहौर के शासकीय महाविद्यालय के गणित के प्राध्यापक के पद को तिलांजलि देकर वह 37 वर्ष की उम्र में प्राचीन भारत की संस्कृति और दर्शनों की व्याख्या करने के लिए विदेश चले गए थे| वह जापान के लिए वेदांत और बौद्ध धर्म के सच्चे उपदेशक थे, तो प्रशांत महासागर से अतलान्तक सागर फैले अमेरिका के लिए वह पूर्वी दार्शनिक विचारों, करुणा और स्नेह के प्रतीक थे|

ऐसे महान् विचार रामतीर्थ जब बी० ए० की परीक्षा की तैयारी कर रहे थे, तब उनके पास परीक्षा शुल्क के लिए पूरे पैसे नहीं थे| बहुत प्रयास करने पर भी पाँच रुपये की कमी रह गई| जब रामतीर्थ उदास-मुँह चंदू हलवाई की दुकान के सामने से निकले, तब चंदू हलवाई ने उन्हें बुलाया और उदासी का कारण पूछा|

रामतीर्थ ने बताया कि उनके पास परीक्षा शुल्क के लिए पाँच रुपये कम हैं| हलवाई ने उसी समय पाँच रूपये दे दिए| अपनी अद्वितीय प्रतिमा और गणित विषय में शत-प्रतिशत अंक पाकर रामतीर्थ गणित के प्रोफ़ेसर बन गए और वह हर माह पाँच रुपये चंदू हलवाई को भेजने लगे|

एक दिन प्रोफ़ेसर रामतीर्थ चंदू हलवाई की दुकान के सामने से गुजरे| हलवाई ने बड़ी विनम्रता से पूछा- “आप अब दूध पीने नहीं आते| आपके द्वारा मनीआर्डर से भेजे पैंतीस रुपये मेरे पास जमा हो गए हैं| हर माह आपके पाँच रुपये का मनीआर्डर आ रहा है|”

रामतीर्थ ने जवाब दिया- “यह सब तो आपके उन पाँच रुपयों के बदले में है| वे मुझे मौके पर न मिलते तो मैं इस स्थिति में नहीं पहुँचता|

सम्भवतः इसी को वैदिक संस्कृति की सच्ची उदारता कहा जा सकता है|

इस कहानी से हमें शिक्षा मिलती है कि किसी के काम आना ही इंसानियत की सबसे बड़ी पहचान होती है|