उपयुक्त समय
एक बार की बात है| भिक्षुक उपगुप्त पीला वस्त्र धारण किये, भिक्षापात्र लिए मौन शांत भाव से नगर के राजपथ से गुजर रहे थे|
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नगरवासी तपस्या के चमकते हुए मुखमंडल, स्वस्थ बलिष्ठ भिक्षु को देखकर ठिठक कर रह गए| उसी समय भिक्षु उपगुप्त के अनुरुप सौंदर्य को देखकर महानगर की सर्वश्रेष्ठ नृत्यांगना, सुंदरी वासवद्त्ता मुग्ध हो उठी| पहले कभी उसने ऐसा दिव्य तेज और सौम्य मुख का आकर्षण नहीं देखा था| वह शीघ्रता से उठी, अपनी अट्ठालिका से भागती हुई भिक्षुक के पास आई|
पास जाकर बोली- “भंते! बड़ी कृपा होगी यदि मेरे घर पर पधारेंगे| यह मेरा सारा वैभव, मेरा घर और मैं स्वयं आपकी हूँ| कृपया स्वीकार करें|”
भिक्षु उपगुप्त ने एक पल के लिए सिर उठाया, उस भवन-सुंदरी नृत्यांगना की ओर देखा| फिर दृढ़ वचनों में कहा- “मैं तुम्हारे पास आऊँगा, परंतु अभी उपयुक्त समय नहीं है| वैसा समय आने पर स्वय पहूँचूँगा|”
भिक्षु उपगुप्त चले गए| सालों बीत गए| नगरवधू वासवद्त्ता सालों तक उस तेजस्वी भिक्षु की तलाश में रही, लेकिन वह कहीं नहीं मिला| समय चक्र के परिवर्तन से उस नगरवधू का सौंदर्य, आकर्षक सब खत्म हो गया| उसका भव्य प्रासाद, आपार संपत्ति और दिव्य रूप-यौवना, सब कुछ समाप्त हो गए थे| नदी के किनारे असहाय भूख रुग्णा वासवद्त्ता पड़ी थी| रोग से उसका शरीर दुर्गंधमय हो चुका था| भीषण यौन रोगों के फलस्वरुप वह भीषण पीड़ा से कराह रही थी| राहगीर उसे देखते, घृणा से मुँह मोड़ लेते| ऐसे ही समय एक भिक्षुक वहाँ पधारे| उस असहाय नारी के पास पहुँचकर भिक्षु बोले- “वासवद्त्ता, मैं आ गया हूँ|” बड़े दुःख से कराहती हुई वासवद्त्ता ने कहा- “बहुत देर हो गई|” उपगुप्त बोले- “क्या देर हो गई?” वासवद्त्ता ने जवाब दिया- “मेरे पास अब धन-वैभव, सौंदर्य और शरीर कुछ भी तो नहीं रह गया|”
“भद्रे! यही उपयुक्त समय है| ऐसे ही समय तुम्हें मेरी आवश्यकता थी|” यह कहकर भिक्षु उसके इलाज में लग गए| कठिन परिश्रम, सुज्तूषा, औषध-उपचार से वासवद्त्ता स्वस्थ हो गई और सच्चे धर्म-मार्ग की ओर प्रवृत हुई|
सच्चे साधु रुप-सौंदर्य, धन की ओर आकृष्ट नहीं होते, वे मानव सेवा को सच्चा धर्म कहते हैं|