तप करने वाले से ज्यादा श्रेष्ठ था वह चांडाल
गंगा नदी के तट पर भगवान का एक परम भक्त नित्य पूजा-पाठ व ध्यान करता था। वह प्रात:काल आता, स्नान करता और आसन लगाकर बैठ जाता। भगवान की भक्ति में जो रमता तो घंटों बिता देता। उसकी यह विशेषता थी कि पूजा या ध्यान के समय कैसी भी विघ्न-बाधाएं आतीं, किंतु वह अपने आसन से टस से मस नहीं होता।
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वस्तुत: वह भगवान के प्रति अपनी भक्ति के प्रदर्शन में कोई रुकावट नहीं चाहता था। उसे लगता था कि ऐसा करने से वह स्वयं को भगवान का सच्चा भक्त सिद्ध कर देगा। एक दिन जब वह भगवान की पूजा कर रहा था तो उसके देखते-देखते एक बुजुर्ग महिला नदी में गिर पड़ी और मदद के लिए चिल्लाने लगी।
भक्त इसे अपनी पूजा में विघ्न जानकर अपनी आंखों को बंद कर प्रभु स्मरण में लीन हो गया। वह महिला लगातार चिल्ला रही थी, किंतु भक्त ने कान बंद कर लिए और उसे बचाने नहीं गया। तभी उधर से एक चांडाल गुजरा। उसने महिला को डूबते देखा तो तत्काल पानी में कूद पड़ा और उसे बचा लाया। उसी समय भगवान वहां प्रकट हुए। उन्होंने चांडाल को मनचाहा वरदान दिया और भक्त को भक्ति रहित होने का श्राप दिया।
भक्त द्वारा आपत्ति करने पर उन्होंने कहा, भक्ति मेरा मनन नहीं है। विपत्ति में पड़े जीवन की रक्षा और हर जीव की सेवा करना ही मेरी सच्ची भक्ति है।
इस कथा का सार यह है कि प्राणिमात्र की सेवा और सहायता ही ईश भक्ति का सच्चा स्वरूप है। विधि-विधान से की गई भक्ति की तुलना में मानवीयता का आचरण ईश्वर के प्रति आत्मिक भावांजलि है, जिसे वह भी हार्दिक रूप में स्वीकारता है।