सुनहरा हंस

एक राजा बेहद विलासी स्वभाव का था| उसे न प्रजा के सुख-दुख की चिंता थी और न राजकाज की| उसका सारा दिन अपने लिए सुख-सुविधाओं की व्यवस्था करने-करवाने में ही बीत जाता था| 

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एक दिन राजा शिकार खेलने गया| काफ़ी देर तक उसे कोई शिकार नही मिला| जब वे थक गया तो उसने अपना घोड़ा एक झील के पास रोक लिया और घोड़े से उतर कर खुद भी पानी पीया और अपने घोड़े को भी पिलाया|

तभी उसकी नज़र झील में तैरते एक सुनहरा हंस पर पड़ी| सुनहरा हंस देखकर राजा के मन में उसके प्रति जिज्ञासा जाग उठी| वह उसे पकड़ने के लिए झील में उतर गया लेकिन वह उसकी पकड़ में नही आया और अदृश्य हो गया|

राज ने इधर-उधर खोजा लेकिन वह नही मिला| तभी राजा को एक आवाज़ सुनाई दी, ‘राजन! मैं स्वर्ग लोक का सुनहरा हंस हूँ…यदि तुम मुझे ले जाना चाहते हो तो तुम्हें स्वर्ग लोक में आना पड़ेगा|’

‘लेकिन मैं वहाँ तक कैसे पहुँचूँगा?’ राजा ने पूछा|

‘सचाई के मार्ग पर चलो, अच्छे काम करो…स्वर्ग का दूत स्वयं खुद तुम्हारे पास आ जाएगा|’

‘मुझे क्या-क्या करना होगा?’ राजा ने पुनः पूछा|

‘राजन! प्रजा की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए मार्ग बनवाओ, कुएँ खुदवाओ, धर्मशालाएँ बनवाओ, मंदिर बनवाओ…प्रजा की सेवा करो|’

राजा महल में लौट आया और अगले दिन से ही उसने सभी कार्य शुरू करवा दिए| कार्य पूरे हो जाने पर भी जब स्वर्ग का दूत नही आया तो राजा चिंतित हुआ| वह सोचने लगा- उससे कहाँ कमी रह गई! काफ़ी सोच-विचार करने के बाद उसे ध्यान आया कि उससे कहा गया था – प्रजा की सेवा करो|

राजा प्रजा की सेवा करने के लिए नगर में निकल पड़ा| राजा ने बहुत से लोगों से पूछा कि उन्हें कोई काम हो तो बताएँ, पर किसी ने भी राजा से सेवा नही ली| समझ गया कि प्रजा उसके राजा होने के कारण डर रही है इसीलिए उससे कुछ नही कह रही|

अगले दिन वह साधारण आदमी का भेष बना कर प्रजा की सेवा करने निकल पड़ा| रास्ते में उसे एक वृद्ध  व्यक्ति दिखाईं दिया जो बहुत धीरे-धीरे चल रहा था| राजा उसके पास गया और बोला, ‘बाबा जी! आपको चलने में कष्ट हो रहा है| आप मेरे कंधे पर बैठे, आपको जहाँ जाना है, मैं पँहुचा देता हूँ|’

वृद्ध नाराज़ होते हुए बोला, ‘एक और सेवक आ गया| आजकल हमारे महाराज भी लोगों से सेवा पूछते फिर रहे है| उन्हें यही नही पता कि प्रजा का सही पालन-पोषण ही सच्ची सेवा होती है…तू जा, मुझे तेरी सेवा नही चाहिए|’

वृद्ध की बात सुनकर राज सब कुछ समझ गया| उस दिन के बाद उसने प्रजा पर किसी प्रकार का कष्ट नही आने दिया|


कथा-सार 

प्रजा के मन में राजा के प्रति एक विशेष प्रकार का सम्मान होता है और एक अनदेखा-अनजाना भय भी| प्रजा उसे अपना संरक्षक समझती है, तो राजदंड से भयभीत भी रहती है| संपूर्ण प्रजा का उचित पालन-पोषण करना ही सच्चा राजधर्म है, किसी व्यक्ति विशेष के कष्टों से राजा का कोई लेना-देना नही होना चाहिए| सभी से समान व्यवहार रखना चाहिए|