सच्ची निष्ठा से कार्य करो
एक समय की बात है| एक जांजलि नामक तपस्वी ब्रहामण थे| अपने तपोबल से उन्हें संपूर्ण लोकों को देखने की शक्ति प्राप्त हो गई थी|
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वह महातपस्वी मुनि एक बार निराहार रहकर केवल वायुभक्षण करते हुए काष्ठ की भांति अविचल रहकर घोर तपस्या में प्रवृत हुए| पक्षियों के एक जोड़े ने एक वृक्ष को ढूंठ समझकर उनकी जटाओं में अपने रहने का घोंसला बना लिया| महर्षि जरा भी नहीं हिले-डुले| वर्षा-ऋतु के चार महीने बीत गए| सर्दी आई| उस घोंसलें में ही पक्षियों ने अंडे दिए| फिर बच्चे हो गए; उसी में बड़े होकर वही रहे| महीनों तक मुनि उसी मुद्रा में खड़े रहे| बच्चों के वही रहने और पनपने से मुनि अपने को सिद्ध समझने लगे| अपने मस्तक पर चिड़ियों के पैदा होने और बढ़ने आदि की बात याद कर वह अपने को महान् धर्मात्मा समझने लगे और आकाश की ओर देखकर बोल उठे- “मैंने धर्म प्राप्त कर लिया|” इतने में आकाश से एक स्वर गूंज उठा- “जांजलि, तुम धर्म में तुलाधार की बराबरी नहीं कर सकते| काशी में तुलाधार नामक एक महाबुद्धिमान वैश्य रहते हैं, जो बहुत बड़े धर्मात्मा हैं, किंतु वह भी तुम्हारी जैसी बात नहीं कह सकते|”
मुनि जांजलि आकाशवाणी सुनकर क्रुध हो उठे| तुलाधार को देखने के लिए वह कई दिनों की यात्रा के बाद काशी पहुँचे| उन्होंने वहाँ पहुँचकर तुलाधार को सौदा बेचते देखा| मुनि को देखते ही तुलाधार अपनी गद्दी से उठकर खड़े हो गए| उन्होंने बड़ी प्रसन्नता के साथ मुनि का स्वागत किया| तुलाधार ने कहा- “विप्रवर, आपके दर्शन पाकर मैं धन्य हुआ| समुद्र के तट पर अपने भारी तपस्या की, उसमें आपने सिद्धि पाई; आपके जटाजूँट में बच्चे पैदा हुए; आपने उनकी रक्षा की; वे जब बड़े होकर चले गए; तब आप अपने आपको धर्मात्मा समझने लगे और गर्व हो गया, आकाशवाणी सुनकर आपको क्रोध हो आया और आप यहाँ आ गए|”
जांजलि बोले- “तुम सब प्रकार के रस, गंध, वनस्पति, औषधि, मूल, फल बेचते हो, तुम्हें ऐसा ज्ञान और धर्म में निष्ठा वाली बुद्धि कैसे पैदा हुई?”
तुलाधार ने कहा- “मैं किसी भी प्राणी से द्रोह न करते हुए जीविका चलाता हूँ, यही श्रेष्ठ धर्म है| मैं सभी छोटी-बड़ी वस्तुओं का विक्रय करता हूँ| ये सब रस बेचे जाते हैं, परंतु मदिरा नहीं बेची जाती| माल बेचने में किसी प्रकार की ठगी और छल-कपट से काम नहीं लेता, मन, वाणी और कर्म से सबके हितों में लगा हूँ| मैं न किसी से मेल-जोल बढ़ाता हूँ, न विरोध करता हूँ, मेरा न कहीं राग है, न द्वेष, सब प्राणियों के प्रति एक-सा भाव है, यही मेरा व्रत है| मेरी तराजू सबके लिए बराबर तौलती है; मिट्टी के ठेले, पत्थर और सोने में भेद नहीं करता| मैं धर्म के इसी तत्व को समझकर चलता हूँ|” मुनि जांजलि ने स्वीकार किया कि धर्म का सच्चा तत्व यही है| उनका अहंकार समाप्त हो गया| इस कहानी से हमें यही शिक्षा मिलती है कि किसी भी स्थिति में अहंकार अच्छा नहीं होता|