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सच्ची मित्रता

दो मित्र थे| दोनों में बहुत ही गहरी मित्रता थी| लोग भी उनकी मित्रता की मिसाल दिया करते थे|

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संयोगवश उनमें किसी गलतफ़हमी के कारण आपस में मन-मुटाव हो गया| यह मन-मुटाव दुश्मनी की हद तक बढ़ गया| कल तक जहाँ दोनों मित्र थे, आज वे एक-दूसरे की शक्ल तक देखना पसंद नही करते थे|

गाँव के सभी लोग हैरान थे कि उन दोनों मित्रों में दुश्मनी कैसे हो गई|

एक दिन एक मित्र के पिता की मृत्यु हो गई| गाँव के सभी लोग उसके घर पर शोक प्रकट करने के लिए उपस्थित हुए थे|

कुछ ही देर में वहाँ उसका दूसरा मित्र भी आया और उसने भी इस दुख पर शोक प्रकट किया|

सभी लोग हैरान थे कि वह यहाँ कैसे उपस्थित हो गया|

एक व्यक्ति ने उससे पूछा, ‘तुम्हारी तो इससे मित्रता ही खत्म हो गई थी…फिर यहाँ कैसे आ गए?’

‘ज़रुरी नही है कि हर जगह मित्रता के नाते ही जाया जाए…इंसानियत भी कोई चीज़ होती है| और फिर अपने मित्र के दुख की घड़ी में तो मुझे शामिल होना ही पड़ेगा| भले ही वह मुझे न बुलाए|’ दूसरे मित्र ने कहा|


कथा-सार

सच्ची मित्रता की परख दुख तथा विपत्ति में ही होती है| बेशक, दोनों मित्रों के संबंधों में कटुता आ गई थी, परंतु जब एक पर दुखों का पहाड़ टूटा तो दूसरा स्वयं को रोक न सका| ह्रदय से जो संबंध एक बार जुड़ जाते है, वे फिर तोड़े नही टूटते|