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स्त्री, शूद्र और कलियुग की महत्ता

एक बार कुछ मुनि मिलकर विचार करने लगे कि किस समय में थोड़ा सा पुष्प भी महान् फल देता है और उसका सुखपूर्वक अनुष्ठान कर सकते हैं? वे जब कोई निर्णय नहीं कर सके, तब निर्णय के लिये व्यास जी के पास पहुँचे| व्यास जी उस समय गंगा जी में स्नान कर रहे थे|

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मुनिमण्डली उनकी प्रतीक्षा में गंगा जी के तट पर स्थित एक वृक्ष के पास बैठे मुनियों ने देखा कि व्यास जी गंगा जी में डुबकी लगाकर जल से ऊपर उठे और ‘शूद्रः साधुः’, ‘कलिः साधुः’ पढ़कर उन्होंने पुनः डुबकी लगायी| जल से ऊपर उठकर ‘योषितः साधु धन्यास्तास्ताभ्यो धन्यतरोऽस्ति कः’ कहकर उन्होंने पुनः डुबकी लगायी| मुनिगण इसे सुनकर संदेह में पड़ गये| व्यासजी द्वारा कहे गये मन्त्र नदी-स्नान-काल में पढ़े जानेवाले मन्त्रों से नहीं थे| वे जो कह रहे थे, उनका अर्थ है-‘कलियुग प्रशंसनीय है, शूद्र साधु है, स्त्रियाँ श्रेष्ठ हैं, वे ही धन्य हैं, उनसे अधिक धन्य और कौन है? मुनिगण संदेह का समाधान प्राप्त करने आये थे, परन्तु यह सुनकर वे पहले से भी विकट संदेह में पड़ गये और जिज्ञासा से एक-दूसरे को देखने लगे|’

कुछ देर बाद स्नान कर लेने पर नित्यकर्म से निवृत होकर व्यास जी जब आश्रम में आये, तब मुनिगण भी उनके समीप पहुँचे| वे सब जब यथायोग्य अभिवादन आदि के अनन्तर आसनों-पर बैठ गये तब व्यास ने उनसे आगमन का उद्देश्य पूछा| मुनियों ने कहा कि हम लोग आपसे एक संदेह का समाधान कराने आये थे, किंतु इस समय उसे रहने दिया जाय, अभी हमें यह बतलाया जाय कि आपने स्नान करते समय कई बार कहा था कि ‘कलियुग प्रशंसनीय है, शूद्र साधु है, स्त्रियाँ श्रेष्ठ और सर्वाधिक धन्य है, सो क्या बात है? यह बात यदि गोपनीय न हो ओ हमें कृपा करके बतायें| यह जान लेने के बाद हम जिस आन्तरिक संदेह के समाधान के लिये आये थे, उसे कहेंगे|’

व्यास जी उनकी बातें सुनकर बोले कि मैंने कलियुग, शूद्र और स्त्रियों को जो बार-बार साधु-साधु कहा, उसका कारण आप लोग सुनें| जो फल सत्ययुग में दस वर्ष जप-तप और ब्रह्मचर्यादि का पालन करने से मिलता है, उसे मनुष्य त्रेता में एक वर्ष, द्वापर में एक मास और कलियुग में केवल एक दिन में प्राप्त कर लेता है| जो फल सत्ययुग में ध्यान, त्रेता में यज्ञ और द्वापर में देवार्चन करने से प्राप्त होता है, वही कलियुग में भगवान् श्रीकृष्ण का नाम-कीर्तन करने से मिल जाता है| कलियुग में थोड़े-से परिश्रम से ही लोगों को महान् धर्म की प्राप्ति हो जाती है| इन कारणों से मैंने कलियुग को श्रेष्ठ कहा|

शूद्र को श्रेष्ठ कहने का कारण बतलाते हुए व्यास जी ने कहा कि द्विज को पहले ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए वेदाध्ययन करना पड़ता है और है और तब गार्हस्थ्य -आश्रम में प्रवेश करने पर स्वधर्माचरण से उपार्जित धन के द्वारा विधिपूर्वक यज्ञ-दानादि करने पड़ते है| इसमें भी व्यर्थ वार्तालाप, व्यर्थ भोजन और व्यर्थ यज्ञ उनके पतन के कारण होते हैं, इसलिये उन्हें सदा संयमी रहना आवश्यक होता है| सभी कार्यों में विधि का ध्यान रखना पड़ता है| विधि-विपरीत करने से दोष लगता है| द्विज भोजन और पानादि भी अपने इच्छानुसार नहीं कर सकते| उन्हें सम्पूर्ण कार्यों में परतन्त्रता ही रहती है| वे अत्यन्त क्लेश से पुण्य लोकों को प्राप्त करते हैं, किंतु जिसे केवल मन्त्रहीन पाकयज्ञ का ही अधिकार है, वह शूद्र द्विज-सेवा से ही सद्गति प्राप्त कर लेता हैं, इसलिये वह द्विज की अपेक्षा धन्यतर है| शूद्र के लिये भक्ष्याभक्ष्य अथवा पेयापेय का नियम द्विज-जैसा कड़ा नहीं है| इन कारणों से मैंने उसे श्रेष्ठ कहा|

स्त्रियों को श्रेष्ठ कहने का कारण बतलाते हुए व्यास जी ने कहा कि पुरुष जब धर्मानुकूल उपायों द्वारा प्राप्त धन से दान और यज्ञ करते हैं एवं अन्य कष्टसाध्य व्रतोपवासादि करते हैं, तब पुण्यलोक पाते हैं, किंतु स्त्रियाँ तो तन-मन-वचन से पति की सेवा करने से ही उनकी हितकारिणी होकर पति के समान शुभलोकों को अनायास ही प्राप्त कर लेती है जो कि पुरुष को अत्यन्त परिश्रम से मिलते हैं, इसलिये मैंने उन्हें श्रेष्ठ कहा|

कलियुग, शूद्र एवं स्त्रियों को साधुवाद देने का रहस्य बतलाकर व्यासजी ने मुनियों से कहा कि अब आपलोग जिस लिये आये थे, वह कहिये| मैं आप से अब सब बातें स्पष्टरूप से कहूँगा| मुनियों को अपनी समस्याओं का समाधान मिल चुका था, इसलिये उन्होंने व्यास जी से कहा कि हम लोग आप से पूछने आये थे कि किस समय में थोड़ा-सा पुण्य भी महान् फल देता है और कौन उसका सुखपूर्वक अनुष्ठान कर सकते हैं? इनका उचित उत्तर आप ने इसी प्रश्न के उत्तर में दे दिया, इसलिये अब हमें कुछ पूछना नहीं है| बिना पूछे ही अपने प्रश्नों के उचित उत्तर पाने के कारण आश्चर्य से उत्फुल्ल नेत्रों वाले समागत तपस्वियों से व्यास जी ने कहा कि आप लोगों का अभिप्राय दिव्य दृष्टि से जानकर मैंने बिना पूछे ही सब कुछ कह दिया| जिन लोगों ने गुण-रूप जल से अपने समस्त दोष धो डाले हैं, उनके थोड़े-से प्रयत्न से ही कलियुग में धर्म सिद्ध हो जाता है|शूद्रों को द्विज-सेवा-परायण होने से और धर्म की सिद्धि हो जाती है, इसलिये ये तीनों धन्यतर है| सत्ययुगादि तीन युगों में भी द्विज को ही धर्म-सम्पादन करने में महान् कष्ट उठाना पड़ता है| कलियुग में एक महान् गुण है कि इस युग में केवल श्रीकृष्ण नाम का कीर्तन से ही कोई भी परमपद प्राप्त कर लेता है|

व्यास जी के वचनों से अपनी शंकाओं का समाधान प्राप्त कर महाभाग ऋषिगण व्यास जी का पूजन कर और उनके कथनानुसार निश्चय कर अपने-अपने स्थानों को लौट गये|