Homeशिक्षाप्रद कथाएँसिंदबाद जहाजी की सातवीं यात्रा

सिंदबाद जहाजी की सातवीं यात्रा

सिंदबाद जहाजी की सातवीं यात्रा

छठी यात्रा के बाद जब मेरा सम्बन्ध अमीर के मुल्क से जुड़ गया तो मैंने सोच लिया कि अब मैं जीवन में कभी यात्रा नही करुँगा और जो बेशुमार धन आज तक मैंने कमाया है, उसी के सहारे जीवन गुजारूँगा| दूसरी यात्राओं से तौबा करने वाली बात यह थी कि अब मेरा शरीर बुढ़ाने लगा था| हिम्मत और साहस की मुझमें कमी नही थी, मगर मेरा शरीर अब मुझे यात्राओं की इजाजत नही देता था| कुछ छोटे-मोटे रोग भी अब मुझ पर हावी होने लगे थे|

“सिंदबाद जहाजी की सातवीं यात्रा” सुनने के लिए Play Button क्लिक करें | Listen Audio

मगर एक दिन! सुबह-सुबह ही अमीर के दरबार से उनका हरकारा आ पहुँचा| उसने मुझे बादशाह सलामत का पैगाम दिया कि वे मुझे याद फर्मा रहे है|

मैं फौरन तैयार होकर उनके हुजूर में पेश हुआ तो खैर-सलामती के बाद उन्होंने मुझे अपने दरबारियों के साथ बैठने का इशारा किया और बोले, “सिंदबाद! हम तुम्हें एक काम सौंपना चाहते है|”

“यह मेरी खुशकिस्मती है जहाँपनाह! हुक्म करे|”

मैं खुश था कि अमीर मुझे इस कदर इज्जत बख्श रहा है| मगर जब उसने काम बताया तो मेरे पैरों तले से ज़मीन सरक गई| वह चाहते थे कि मैं उनका पैगाम और तोहफ़े लेकर हिंदुस्तान जाऊँ और वहाँ के महाराज की सेवा में पेश करुँ|

मैंने कहा, “जहाँपनाह! अगर इजाजत हो तो कुछ अर्ज़ करना चाहता हूँ|”

“हाँ-हाँ कहो|”

मैंने हाथ जोड़कर कहा, “हुजूर! अब मैं बूढ़ा हो रहा हूँ और शरीर भी अब सफ़र की इजाजत नही देता| इसलिए इतना लंबा सफ़र अब शायद मेरी सेहत के लिए मुनासिब न हो| मैं जहाँपनाह से अर्ज करना चाहता हूँ कि खादिम के लिए कोई और काम बता दे मगर…|”

“हम तुमहारी बात समझ रहे है सिंदबाद, मगर मज़बूरी ये है कि हमारे मुल्क के तुम्हीं वो इकलौते वाशिंदे हो जिसे दरबार-ए-हिंदुस्तान शक्ल से पहचानते है| दूसरी बात यह भी है कि तुम्हारी बदौलत ही हमें दरबार-ए-हिंदुस्तान की दोस्ती का पैगाम मिला था, इसलिए हम चाहते है कि दोनों मुल्कों के बीच दोस्ती की बेल तुम्हारे सहारे ही आगे बढ़े|”

“जैसी जहाँपनाह की मर्जी|”

मैंने अपनी सहमति ज़ाहिर कर दी| इसी में भलाई थी| सुल्तान अगर मुझे हुक्म देते तब भी मुझे यह काम करना ही था तो मैंने सोचा कि सुल्तान का आग्रह मान लेने में ही इज्जत है|

दूसरे दिन ही मैं बगदाद से बसरा के लिए रवाना हो गया| सुल्तान के हुक्म से वहाँ एक ज़हाज तैयार खड़ा था, जो अंग्रेजी लिहाज से हर सहूलियतों से भरपूर था| हमारा काफ़िला चल दिया और कई दिनों की यात्रा के बाद हमारा जहाज़ बिना परेशानी के हिंदुस्तानी बंदरगह पर जाकर रुका|

मैंने वहाँ के हाकिम को अपने बारे मे बताया तो सरकारी सुरक्षा के बीच मुझे राजधानी की ओर रवाना कर दिया गया| मेरी रवानगी से एक दिन पहले दो घुड़सवारों को मेरे आने के पैगाम के साथ रवाना किया जा चुका था|

राजधानी पहुँचने पर महाराज की तरह से मेरा बड़ा अच्छा स्वागत किया गया| महाराज ने मुझे गले लगा लिया और बोले, “तुम्हें अपने सामने देखकर हमें बहुत खुशी हो रही है सिंदबाद| हम अक्सर तुम्हें याद करते थे|”

“यह तो जहाँपनाह की जर्रानवाजी है|” मैंने महाराज का शुक्रिया अदा किया, फिर अपने अमीर का खत और उनके द्वारा भेजी गई सौगात उनकी सेवा में हाज़िर की|

हमारे अमीर ने उनके लिए बेहद खूबसूरत कालीन भेजा था| इसके अलावा काहिरा और सिकंदरिया में बने कीमती कपड़े की पचास पोशाकें, चीनी रेशम के थान, कीमती पत्थर के अनोखे फूलदान, सोने-चाँदी के बहुत से बर्तन और कुछ कीमती हीरे-जवाहरात भेजकर उनकी दोस्ती कुबूल करने का ऐलान किया था|

उपहारों को देखने के बाद बादशाह ने खलीफ़ा का पत्र पढ़ा| खलीफ़ा ने अपने पत्र में लिखा था, “आपको अब्दुल्ला हारून रशीद का, जो खुदा की दश से अपने पूर्वजों का उत्तराधिकारी खलीफ़ा है, सलाम पहुँचे| हमें आपका पत्र और आपके भेजे उपहार प्राप्त हुए| हमें इन बातों से बड़ी प्रसन्नता है कि हम आपके उपहारों के बदले में कुछ उपहार आपको भेज रहे है| हमें पूर्ण आशा है कि यह पत्र आपकी सेवा में पहुँचेगा और इससे आपको ज्ञात होगा कि आपके लिए हमारे मन में कितना प्रेम है|”

सरन द्वीप का बादशाह पत्र पढ़कर बहुत खुश हुआ| अब मैंने उनसे वापसी की इजाजत माँगी| वह अपनी कृपालुता के कारण मुझे विदा न करना चाहता था, किंतु जब मैंने इसके लिए बार-बार अनुनय की तो उसने मुझे बहुत-सा इनाम तथा खिलअत (सम्मान-परिधान) देकर विदा कर दिया|

मैं अपने ज़हाज पर वापस आया और कप्तान से कहा कि मैं  शीघ्रातिशीघ्र बगदाद पहुँचना चाहता हूँ| उसने ज़हाज को तेज चलाया| मैं बसरा के लिए चला तो मेरा मन चाह रहा था कि ज़हाज उड़कर बसरा पहुँच जाए| मगर अल्लाह को मालूम नही क्या मंजूर था| मेरा ज़हाज पाँच दिनों तक सही-सलामत यात्रा करता रहा, मगर छठे दिन अचानक समुद्री डाकुओं ने हमारे ज़हाज पर हमला कर दिया| उस हमले में ज़हाज के कई कारिंदे मारे गए| कुछ को डाकूओं ने जिंदा पकड़ लिया और अपना गुलाम बना लिया| हमारा सारा धन और रसद (खाने-पीने का सामान) डाकुओं के कब्जे में जा चुका थे| डाकुओं ने मेरे जिस्म के कीमती कपड़े तक उतरवा लिए और हमें पहनने के लिए चीथड़े दे दिए गए| हालांकि उस समय उनकी यह हरकत हमारी समझ में नही आई थी, मगर दूसरे दिन समझ गए कि हमें हमें चीथड़े क्यों पहनाए गए है|

वे दूसरे दिन हमें गुलामों की मंडी में ले गए और हमारी बोलियाँ लगाकर हमें अमीर-उमरावों के हाथों बेच दिया| मुझे एक आमिर सौदागर ने खरीदा| चार-छः दिन तो वह मुझसे घरेलू काम कराता रहा| वह यह तो जानता नही था कि मैं कौन हूँ और क्या करता हूँ?

उसने एक दिन मुझसे पूछा, “तुम्हें कोई काम आता है या नही?”

तब मैंने बताया, “मेरा धंधा व्यापार करना था| समुद्री लुटेरों ने हमारा ज़हाज लूट लिया और हम लोगों को गुलाम बनाकर बेच दिया|”

मालिक ने पूछा, “क्या तुम्हें तीर चलाना आता है?”

मैंने कहा, “बचपन में मैंने इसका अभ्यास किया था और शायद अब भी इसे भूला नही होऊँगा|”

अब मालिक ने धनुष-बाण देकर मुझे अपने साथ चलने को कहा| फिर हम एक हाथी पर सवार होकर जंगल की तरफ़ चल दिए| जंगल में एक बड़े पेड़ के पास ले जाकर उसने हाथी रोक दिया और कहा कि मैं उस पेड़ पर चढ़ जाऊँ| मैंने उसकी आज्ञा का पालन किया, तब उसने मुझे बताया, “तुम घात लगाकर यहाँ बैठो और यहाँ से जो भी हाथी गुजरे, उस पर तीर चलाओ| अगर तुम्हारा तीर खाकर कोई हाथी मर जाए तो दौड़कर मुझे ख़बर करना|” उसके बाद उसने मुझे खाने-पीने का सामान सौंपा और हाथी मोड़कर वापस चला गया|

मैं वृक्ष पर चढ़ गया| रात भर प्रतीक्षा करता रहा, पूरी रात गुजर गई, मगर कोई हाथी वहाँ से नही गुजरा| हाँ, सुबह हाथी आए तो मैंने उन पर तीरों से हमला किया| एक तीर हाथी की गुद्दी में जाकर लगा और वह वही गिरकर मर गया| बाकी हाथी चिंघाड़ते हुए भाग गए| मैं मौका देखकर पेड़ से उतरा और मालिक को बुला लाया|

मालिक अपने साथ कुछ कारिंदे लेकर आया था जिन्होंने वहाँ आते ही मालिक के हुक्म से एक गड्ढा खोदना शुरु कर दिया| फिर उस हाथी को उन्होंने दफन कर दिया| मालिक ने मुझे बताया कि महीने-दो-महीने में जब उसका शरीर गल जाएगा तब हम उसके दाँत हासिल कर लेंगे| दो महीने तक मेरा यही काम रहा| मैं हर दूसरे तीसरे दिन एकाध हाथी मार देता|

एक दिन सवेरे-सवेरे अचानक ही जंगल में ढेरों हाथी दिखाई देने लगे| मैं बुरी तरह घबरा गया| मैं समझ गया कि आज मेरे जीवन का आखिरी दिन आ गया है| रोज़-रोज़ के हमलों से दुखी होकर हाथियों ने मेरा किस्सा खत्म करने का मन बना लिया है|

अचानक वे ज़ोर-ज़ोर से चिंघाड़ने लगे| इसी बीच एक बलशाली हाथी ने उस पेड़ के तने पर टक्करें मारनी शुरु कर दी, जिस पर में बैठा था| मेरा तो डर के मारे बुरा हाल हो गया| हाथियों की तादाद इतनी अधिक थी कि अगर मैं तीर चलाकर एकाध को घायल कर भी देता, तो भी कोई फर्क नही पड़ने वाला था|

मैं कलम पढ़ने लगा| मगर तभी कुछ और हाथी भी पेड़ों पर टक्करें मारने लगे| नतीजा! कुछ ही देर में वह ‘फड़ाक’ की आवाज़ के साथ तने से टूट गया| मैं पेड़ के साथ नीचे आ गिरा| और अभी मैं उठकर भागने की बाबत सोच ही रहा था कि वह ताकतवर हाथी तेजी से मेरी तरफ़ आने लगा| मैंने सोच लिया कि बस, अब चंद पलों बाद ही मैं उसके पाँव तले कुचला जाने वाला हूँ| यही सोचकर मैंने आँखें बंद कर ली|

मगर मैं उस समय हैरान रह गया जब उस हाथी ने मुझे सूँड में उठा लिया और तेजी से एक और को बढ़ने लगा| मैंने घबराकर आँखें खोलकर देखा, वह हाथी मुझे सूँड में लपेटे एक दिशा में तेजी से बढ़ा जा रहा था और बाकी सभी हाथी पेड़-पौधों को रौंदते हुए उसके पीछे चले आ रहे थे|

कुछ देर बाद उन्होंने एक पहाड़ी की जड़ में लाकर मुझे पटक दिया और चले गए| मैं वहाँ का मंजर देखकर स्तब्ध रह गया| वहाँ टनों की तादाद में हाथी दाँत पड़े थे| मुझे समझते देर नही लगी कि वह जगह हाथियों का कब्रिस्तान थी|

दहशत में जकड़ा बैठा मैं काफ़ी देर तक इधर-उधर देखता रहा| मुझे विश्वास नही हो रहा था कि हाथी मुझे जिंदा छोड़ गए है| अब मैं उनकी बात को समझ चुका था| अब मैंने सोचा की हाथी कितना बुद्धिमान जीव होता है| दरअसल, रोज़-रोज़ के शिकार से तंग आकर ही उन्होंने यहाँ ला पटका था ताकि मैं जितने चाहूँ हाथी दाँत ले लूँ मगर उनके साथियों की हत्या न करुँ|

मैं  वहाँ से उठकर सीधा मालिक के घर जा पहुँचा| रास्ते में मुझे एक भी हाथी नही दिखाई दिया| मालूम होता था कि सभी हाथी उस जंगल को छोड़कर किसी दूर के जंगल में चले गए थे|

मेरा मालिक मुझे देखकर बड़ा प्रसन्न हुआ और कहने लगा, “अरे अभागे सिंदबाद, तू अभी तक कहाँ था? मैं तो तेरी चिंता में मरा जा रहा था| मैं तुझे ढूँढ़ता हुआ उस जंगल में गया, तो देखा कि पेड़ उखड़ा पड़ा है और तेरे तीर-कमान ज़मीन पर पड़े है| मैंने तुझे बहुत खोजा, किंतु तेरा पता न लगा| मैं तेरे जीवन से निराश होकर बैठ गया था| अब तू अपना पूरा हाल सुना| तुझ पर क्या बीती और तू अब तक किस प्रकार जीवित बचा है?”

मैंने उसे सारी बात बताई| वह उस गढ्ढे की बात सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ| वह मेरे साथ कब्रिस्तान में आया और जितने हाथी दाँत उसके हाथी पर लद सकते थे, उन्हें लादकर शहर वापस आया| फिर उसने मुझसे कहा, “भाई! आज से तुम मेरे गुलाम नही हो| तुमने मेरा बड़ा उपकार किया है| तुम्हारे कारण मेरे पास अपार धन हो जाएगा| मैंने तुमसे अभी तक एक बात छुपा रखी थी| मेरे कई गुलाम हाथियों ने मार डाले है| जो कोई हाथियों के शिकार को जाता था, दो या तीन दिन से अधिक नही जी पाता था| भगवान ने तुम्हें हाथियों से बचाया| इससे मालूम होता है कि तुम बहुत दिन जीओगे| इससे पहले बहुत से गुलाम खोकर भी मैं मामूली लाभ ही पाता था| अब तुम्हारे कारण मैं ही नही, इस नगर के सारे व्यापारी सम्पन्न हो जाएँगे| मैं तुम्हें केवल स्वतंत्र ही नही करुँगा, बल्कि बड़ी धन-दौलत भी दूँगा और अन्य व्यापारियों से भी बहुत कुछ दिलवाऊँगा|”

मैंने कहा, “आप मेरे स्वामी है| भगवान आपको चिरायु करे| मैं आपका बड़ा कृतज्ञ हूँ कि आपने समुद्री डाकुओं के पंजे से मुझे छुड़ा लिया और मेरा बड़ा भाग्य था कि मैं  नगर में आकर बिका| अब मैं आपसे और अन्य व्यापारियों से इतनी दया चाहता हूँ कि मुझे मेरे देश को पहुँचा दे|”

उसने कहा, “तुम धैर्य रखो| ज़हाज यहाँ एक विशेष ऋतु में आते है और उनके व्यापारी हमसे हाथी दाँत मोल लेते है| जब वे ज़हाज आएँगे तो हम लोग तुम्हारे देश के जाने वाले किसी ज़हाज पर तुम्हें चढ़ा देंगे|”

मैंने उसे सैकड़ों आशीर्वाद दिए|

मैं कई महीनों तक ज़हाजों के आने की प्रतीक्षा करता रहा| इस बीच मैं कई बार जंगल में गया और हाथी दाँत लाया और उनसे उसका घर भर दिया| व्यापारी ने अपने घर के आधे हाथी दाँत मुझे दे दिए और एक ज़हाज पर मेरे नाम से उन्हें चढ़ा दिया| उसने अनेक प्रकार की खाद्य-सामग्री भी मुझे दे दी| अन्य व्यापारियों ने भी मुझे बहुत कुछ दिया| मैं ज़हाज पर कई द्वीपों की यात्रा करता हुआ फारस के बंदरगाह पर पहुँचा| वहाँ से थल मार्ग से बसरा आया और हाथी दाँत बेचकर कई मूल्यवान वस्तुएँ ली, फिर बगदाद आ गया|

बगदाद पहुँच मैं तुरंत खलीफ़ा के दरबार में पहुँचा और उसके पत्र और उपहारों को सरान द्वीप के बादशाह के पास पहुँचाने का हाल कहा|

खलीफ़ा ने कहा, “मेरा ध्यान सदैव तुम्हारी कुशलता की ओर लगा रहता था और मैं खुदा से प्रार्थना करता था कि तुम्हें सही सलामत वापस लाएँ|”

जब मैंने अपना हाथियों वाला अनुभव उसे सुनाया तो उसे यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ और उसने अपने एक लेखनकार को यह आदेश दिया कि मेरे वृतांत को सुनहरी अक्षरों में लिख ले और शाही अभिलेखागार में रखे| फिर उसने मुझे खिलअत और बहुत से इनाम देकर विदा किया|

सिंदबाद ने आगे कहा, “मित्रों! इसके बाद मैं किसी यात्रा पर नही गया और अब भगवान के दिए हुए धन का उपयोग करता हूँ|”

फिर उसने हिंदबाद से कहा, “अब तुम बताओ कि कोई और मनुष्य ऐसा कही है, जिसने मुसझे अधिक विपतियाँ झेली हो?”

हिंदबाद ने सम्मान पूर्वक सिंदबाद का हाथ चूमा और कहा, “सच्ची बात तो यह है कि इन सात समुद्री यात्राओं के दौरान जितनी मुसीबतें आपने उठाई और जितनी बार प्राणों के संकट से बचकर निकले, उतनी किसी की भी शक्ति नही है| मैं अभी तक बिल्कुल अनजान था, अपनी निर्धनता को रोता था और आपकी सुख-सुविधाओं से ईर्ष्या करता था| मैं रुखी-सूखी खाता हूँ, किंतु भगवान का लाख धन्यवाद है कि अपने स्त्री-पुत्रों बीच आनंद से रहता हूँ और कोई विपति मुझ पर नही आई| जैसी विपतियाँ आपने उठाई है, वास्तव में जो सुख आप भोग रहे है, आप उससे अधिक के अधिकारी है| खुदा करे आप सदैव इसी प्रकार ऐश्वर्यवान और सुखी रहे|”

सिंदबाद ने हिंदबाद को चार सौ दिनारें और दी और उससे कहा, “तुम अब मेहनत-मज़दूरी करना छोड़ दो मेरे मुसाहिब हो जाओ| मैं सारी उम्र तुम्हारे स्त्री-बच्चों का भरण-पोषण करुँगा|”

हिंदबाद ने ऐसा ही किया और सारी आयु आनंद से बिताई

शहरयार सिंदबाद की यात्राओं की कहानी सुनकर बड़ा आनंद आया| उसने शहरजाद से एक और कहानी सुनाने को कहा| तब शहरजाद ने एक और किस्सा सुनाया|

हृदय की
नहले पर