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शाप वरदान बन गया

प्राचीन काल में गंगातट पर बसे एक गांव बहुसुवर्ण में गोविंद दत्त नाम का एक ब्राह्मण रहता था| वह प्रकांड विद्वान और शास्त्रों का ज्ञाता था| उसकी पत्नी अग्निदत्ता परम पतिव्रता स्त्री थी|

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उनके पांच पुत्र थे, जो स्वस्थ और सुंदर तो थे, किंतु अभिमानी और मूर्ख थे| एक बार गोविंद दत्त के घर वैश्वानर नामक एक ब्राह्मण आया, जो अपने नाम के समान ही (आग जैसा) क्रोधी था| जिस समय वैश्वानर आया, गोविंद दत्त घर पर नहीं था| वैश्वानर ने गोविंद दत्त के पुत्रों को देखकर उन्हें नमस्कार किया, जिसका उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया| इसके साथ ही वे वैश्वानर को देखकर हंसने लगे|

एक तो वैश्वानर स्वभाव से ही क्रोधी था, ऊपर से गोविंद दत्त के पुत्रों का यह असभ्य व्यवहार, बस फिर क्या था, वैश्वानर क्रोधित होकर वहां से चल पड़ा| तब तक गोविंद दत्त भी आ गया था| उसने ब्राह्मण को क्रोध में लौटते देखा तो उसके क्रोध का कारण पूछा| कारण ज्ञात होने पर गोविंद दत्त उससे क्षमा-याचना करने लगा|

क्रोध में तमतमाया हुआ वैश्वानर बोला – “तुम्हारे पुत्र महामूर्ख और पतित हैं, अत: उनके संपर्क में रहने से तुम स्वयं भी पतित हो चुके हो| मैं पतितों के यहां भोजन नहीं कर सकता| यदि भूल से भी मैं पतितों के यहां भोजन कर लूं तो मुझे इसके लिए प्रायश्चित करना पड़ेगा|”

गोविंद दत्त धर्मपरायण ब्राह्मण था| घर आए ब्राह्मण का अपमान हो जाने से उसे बड़ा आघात पहुंचा| वह वैश्वानर को कुपित नहीं करना चाहता था, अत: उसकी बात सुनकर गोविंद बोला – “मैं शपथ लेता हूं कि भविष्य में अपने इन कुपुत्रों का कभी स्पर्श भी नहीं करूंगा|”

उसकी पत्नी ने भी ऐसा ही संकल्प कर लिया| इतना कुछ होने पर ही वैश्वानर का क्रोध शांत हुए और उसने गोविंद दत्त के घर भोजन करना स्वीकार किया|

माता-पिता के संकल्प से गोविंद दत्त के एक पुत्र-देवदत्त को भारी ग्लानि हुई| उसे अपने व्यवहार पर भारी दुख हुआ| माता-पिता अब उसका स्पर्श भी नहीं करेंगे, यह जानकर उसने घर त्याग देने का निर्णय ले लिया और तपस्या करने के लिए बद्रीनाथ की ओर चल पड़ा|

बद्रिकाश्रम जाकर देवदत्त ने कठोर तपस्या आरंभ कर दी| आरंभ में कुछ दिनों तक तो वह कंदमूल आदि खाकर जीवन-रक्षा करता रहा, परंतु फिर उसने वह भो छोड़ दिया और केवल वायु का आहार लेकर तप करने लगा|

उसके कठोर तप से भगवान शिव ने प्रसन्न होकर उसे दर्शन दिए और वर मांगने के लिए कहा तो देवदत्त ने कहा – “भगवान! मुझे अपना सेवक बना लीजिए|”

तब शिव बोले – “पहले विद्याध्ययन करो और संसार के भोग भोगो, तब तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी|”

यह आज्ञा पाकर देवदत्त पाटलिपुत्र जाकर वेदकुंभ नामक विद्वान के पास अध्ययन करने लगा| वह अपने गुरु के ही घर रहता और मन लगाकर गुरु की सेवा करता| गुरु भी उसे परिश्रम के साथ अध्ययन कराते|

देवदत्त के दुर्भाग्य से गुरु की पत्नी उस पर आसक्त हो गई| स्त्रियों का चित्त चंचल तो होता ही है, एक दिन अवसर मिलने पर उसने देवदत्त को पा ही लिया|

गुरु-पत्नी के कारण देवदत्त काम से व्याकुल रहने लगा| उसने अनुभव किया कि युवा पत्नी वाले गुरु से विद्या ग्रहण करने का यह परिणाम हानिप्रद ही होगा, अत: वह वहां से प्रतिष्ठानपुर जा पहुंचा| वहां जाकर वह एक ऐसे गुरु के पास अध्ययन करने लगा, जिनकी पत्नी वृद्धा थी|

लंबे समय तक प्रतिष्ठानपुर में अध्ययन करने के बाद एक दिन देवदत्त नगर में घूमने गया तो राजा सुशर्मा की पुत्री ने उसे देखा, जो स्वर्गलोक की अप्सरा के समान सुंदर थी| संयोग से जब राजकुमारी ‘श्री’ राजमहल की खिड़की से उसे देख रही थी तो देवदत्त की दृष्टि उससे टकरा गई| उसे देखते ही देवदत्त ठगा-सा रह गया| उसे अपनी सुध ही न रही| इधर श्री की भी यही दशा थी| दोनों एक-दूसरे को देखते रहे| कुछ देर इसी प्रकार खड़े रहने के बाद राजकुमारी ने देवदत्त को अपनी ओर आने का संकेत किया| देवदत्त को इसी की प्रतीक्षा थी, वह आगे बढ़ गया| राजकुमारी भी बाहर आ गई| जब वह देवदत्त के सामने आई तो उसने दांतों से एक फूल दबाकर उसकी ओर फेंक दिया और लौट गई|

देवदत्त इसका अर्थ नहीं समझ सका और गुरु के घर आ गया| काम के आवेग में उसकी दशा चिंतनीय हो गई| उसका बोलना भी बंद जैसा हो गया| उसकी दशा देखकर गुरुजी समझ गए कि उसे काम विकार ने पीड़ित किया है, किंतु वह उसका कारण क्या है, यह नहीं जानते थे|

गुरु ने शिष्य को अनेक प्रकार से सांत्वना देकर और विश्वास में लेकर पूरी बात कर ली, फिर वह बोले – “दातों से पुष्प दबाकर राजकुमारी ने तुम्हें कोई संकेत दिया है| इस संकेत का यह अर्थ हो सकता है कि तुम पुष्पदंतेश्वर के मंदिर में मेरी प्रतीक्षा करना और इस समय यहां से जाओ|”

गुरु के संकेत का अर्थ समझकर देवदत्त की दशा में कुछ सुधार हुआ| इसके बाद वह तुरंत पुष्पदंतेश्वर के मंदिर की ओर चल पड़ा और वहां जाकर राजकुमारी की प्रतीक्षा करने लगा| उस दिन अष्टमी थी, अत: राजकुमारी श्री अकेली पूजा करने पुष्पदंतेश्वर के मंदिर में पहुंची| देवदत्त अधीरता से वहां उसकी प्रतीक्षा कर रहा था, अत: मंदिर में दोनों का मिल हो गया| उस एकांत में दोनों ने एक-दूसरे का जी भरकर आलिंगन किया| इसके बाद राजकुमारी ने आश्चर्य से पूछा – “तुम मेरे संकेत का अर्थ कैसे समझ गए?”

देवदत्त बोला – “मैं कहां समझा था, इसका अर्थ तो मुझे गुरुजी ने समझाया|”

इतना सुनते ही राजकुमारी क्रोधित हो गई और बोली – “छोड़ दो मुझे| तुम तो महामूर्ख हो|”

राजकन्या को भय हो गया था कि कहीं बात खुल न जाए, अत: वह सीधे राजभवन लौट गई|

प्रियतमा द्वारा ठुकरा दिए जाने पर देवदत्त विक्षिप्त जैसा हो गया| जब भगवान शिव को उसकी इस दशा का ज्ञान हुआ तो उन्होंने पंचशिख नामक अपने गण को उसकी रक्षा के लिए भेज दिया|

पंचशिख ने देवदत्त को आश्वासन दिया और एक नई युक्ति निकाली| वह स्वयं ब्राह्मण बन गया और देवदत्त को स्त्री के वेश में लेकर राजा सुशर्मा के पास पहुंचा| राजा के पास जाकर पंचशिख स्त्री वेशधारी देवदत्त की ओर संकेत करता हुआ बोला – “महाराज! मेरा पुत्र घर से भाग गया है| मैं उसे खोजने जा रहा हूं| यह मेरी पुत्रवधू है| इसे मैं अपने साथ कहां ले जाऊंगा, इसी की चिंता से मैं यहां आया हूं| आप महाराज हैं, आप ही इसकी रक्षा कर सकते हैं| मैं अपनी इस धरोहर को आपके संरक्षण में सौपता हूं|”

ब्राह्मण की बात राजा कैसे अस्वीकार करता, अत: उसने उसे अंत:पुर में अपनी पुत्री के पास भेज दिया|\

पंचशिख देवदत्त को राजभवन के अंत:पुर में प्रवेश कराने के बाद वहां से चलता बना| देवदत्त अंत:पुर में राजकुमारी की विश्वस्त परिचारिका बन गया|

कुछ समय बाद जब देवदत्त ने देखा कि राजकुमारी को कामदेव ने व्याकुल कर दिया है तो वह उसके सामने अपने वास्तविक रूप में आ गया| इससे राजकुमारी की प्रसन्नता की कोई सीमा न रही| उन्होंने शीघ्र ही गंधर्व विवाह कर लिया| इसके बाद दोनों पति-पत्नी बनकर रहने लगे|

कुछ दिनों बाद राजकुमारी गर्भवती हो गई, तब देवदत्त ने पंचशिख को याद किया| याद करते ही पंचशिख प्रकट हो गया और गुप्त रूप में देवदत्त को वहां से ले गया|

दूसरी प्रात: पंचशिख ब्राह्मण के वेश में राजा के पास पहुंचा| देवदत्त भी इस समय ब्राह्मण के रूप में उसके साथ था| पंचशिख राजा सुशर्मा से बोला – “महाराज! मेरा पुत्र मिल गया है| मैं अपन पुत्रवधू को लेने के लिए आया हूं|”

राजा ने राजकुमारी के पास व्यक्ति भेजा कि ब्राह्मण की पुत्रवधू को बुला लाएं| वह व्यक्ति वहां से खाली लौट आया और उसने राजा के कान में कुछ कहा, जिसे सुनते ही राजा के पैरों तले से जमीन खिसक गई| राजा बोला – “लगता है, यह ब्राह्मण नहीं कोई देवता है, जो मेरी परीक्षा लेने के लिए आया है, क्योंकि राजा शिवि की भी इसी प्रकार देवताओं ने परीक्षा ली थी|”

फिर वह शिवि की कथा सुनाने लगा –

“प्राचीन काल में परम दानी और दयालु राजा की परीक्षा लेने के लिए इंद्र बाज और धर्म कबूतर बने| बाज कबूतर का पीछा करने लगा| भयभीत कबूतर प्राण-रक्षा के लिए राजा शिवि की गोद में आ छिपा| बाज राजा के पास जाकर बोला – ‘राजन! यह कबूतर मेरा भोजन है| मैं भूख से अत्यधिक व्याकुल हूं| यदि आप इसे नहीं छोड़ेंगे तो मैं भूख से यहीं प्राण त्याग दूंगा| इससे आप मेरी हत्या के पाप के भागी बनेंगे|’

राजा शिवि बोले – ‘यह कबूतर मेरा शरणागत है, अत: इसकी रक्षा करना मेरा कर्तव्य है| मैं इसे नहीं छोडूंगा| हां, तुम्हारी भूख शांत करने के लिए मैं तुम्हें मांस देता हूं|’

‘महाराज! क्षमा करना, यदि आप ऐसे ही दानी बनते हैं तो स्वयं अपना मांस दीजिए|

‘जो तुम्हारी इच्छा| ऐसा ही होगा|’

राजा शिवि ने तराजू के एक पलड़े पर कबूतर को रखा और दूसरे पर स्वयं काट-काटकर अपना मांस रखने लगे| वह जितना भी अपना मांस काटकर चढ़ाते, वह कम ही पड़ जाता और कबूतर वाला पलड़ा नीचे ही रहता| जब सारे शरीर का मांस काट देने पर भी कम पड़ गया तो राजा स्वयं पलड़े पर बैठ गए|

राजा के ऐसा करते ही ‘धन्य-धन्य, महाराज शिवि! धन्य हो!’ यह ध्वनि सुनाई पड़ी| बाज और कबूतर क्रमश: इन्द्र और धर्म अपने वास्तविक रूप में आ गए| राजा का शरीर भी पूर्ववत अखंड हो गया| मानों उसमें कभी कोई घाव हुआ ही न हो|”
कथा सुनाने के बाद सुशर्मा पुन: बोला – “इसी प्रकार मुझे लगता है यहां भी कोई देवता आए हैं|” फिर वह वेशधारी ब्राह्मण पंचशिख से बोला – “ब्राह्मण देवता! अपराध क्षमा करें| आपकी पुत्रवधू की हमने पूर्ण सुरक्षा की, किंतु लगता है, वह किसी माया से अदृश्य हो गई है|”

ब्राह्मण जैसे बड़ी ही चिंता में पड़ गया और फिर बोला – “यदि आपका कथन सत्य है तो आप अपनी पुत्री का विवाह मेरे पुत्र से कर दीजिए|”

राजा ब्राह्मण के शाप की कल्पना से भयभीत हो रहा था, अत: उसे उसका प्रस्ताव स्वीकार करने में कोई विलंब न लगा| इसके बाद राजकुमारी और देवदत्त का विवाह हो गया| प्रेमी युगल के मिलन के बाद पंचशिख शिवलोक को चला गया|
देवदत्त अपनी नवपरिणीता के साथ राजा के ही महल में रहने लगा, क्योंकि राजा की भी संतान के नाम पर वही एकमात्र कन्या थी|

कुछ समय बाद राजकन्या, अर्थात देवदत्त की पत्नी ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम महीधर रखा गया| महीधर का लालन-पालन, अध्ययन आदि सब कुछ राजकुमारों के समान हुआ| महीधर के युवा हो जाने पर सुशर्मा ने उसका राज्याभिषेक कर दिया और वह स्वयं तपस्या करने के लिए निकल गया|

कुल काल पर्यंत महीधर राजकार्यों के संचालन में पारंगत हो गया| इससे देवदत्त को अपरिमित संतोष हुआ| उसने विचार किया कि अब उसे वानप्रस्थ ले लेना चाहिए, अत: वह अपनी पत्नी को लेकर तपोवन चला गया|

तपोवन जाकर देवदत्त पुन: शिव की आराधना में लीन हो गया| उसकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उसे अपना गण बना लिया|

देवदत्त अपनी प्रियतमा द्वारा दंत से दबाए गए पुष्प द्वारा दिए गए संकेत का अर्थ नहीं समझ पाया था, अत: शिवा का गण बनने पर उसका नाम पड़ा – पुष्पदंत! उसकी पत्नी श्री ही दूसरे जन्म में माता पार्वती की सखी जया बनी|