सत्य की महिमा
एक बार ग्वालों ने गोचर-भूमि और जल की सुविधा देखकर सरस्वती नदी के आस-पास डेरा डाल दिया| उनके पास गायों का एक बहुत बड़ा झुंड था|
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उन्होंने गायों के रहने के लिये बाड़ लगा दी और अपने लिये घर बना लिये| ग्वाले चारों और गायों की रक्षा करते थे| गायें भी घास पाकर बहुत प्रसन्न थीं| उन गायों के झुंड में एक हृष्ट-पुष्ट गाय थी, जिसका नाम नन्दा था|
वह सदा प्रसन्न रहती थी और सब गौओं के आगे निर्भय होकर चला करती थी| एक दिन वह झुंड से बिछुड़ गयी और वहाँ पहुँच गयी, जहाँ एक भयंकर बाघ मुँह बाये बैठा था| बाघ गरजते हुए नन्दापर टूट पड़ा| बेचारी नन्दा की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी| उसे अपना नन्हा बछड़ा याद आने लगा| उसकी आँखों से आँसुओं की धारा बह चली|
बाघ बोला-‘मालूम पड़ता है कि तुम्हारी आयु समाप्त हो गयी है| तभी तो तुम मेरे पास अपने-आप आयी हो| फिर शोक क्यों कर रही हो?’नन्दा ने बाघ को प्रणाम किया और कहा-‘मेरा अपराध क्षमा करो, मुझे अपने जीवन का शोक नहीं है| मैं अपने बच्चे के लिये शोक कर रही हूँ| वह अभी बहुत छोटा है| पहली ब्यान का बच्चा होने के कारण वह मुझे प्राणों से भी बढ़कर प्यारा है| अभी वह घास भी नहीं सूँघता| मेरे न रहने पर उसकी क्या दशा होगी? मैं उसे दूध पिलाना चाहती हूँ और उसका मस्तक चाटना चाहती हूँ| यदि तुम मुझे थोड़ी देर के लिये छोड़ दो तो मैं बछड़े को प्यार कर और उसे हिताहित का उपदेश देकर लौट आऊँगी| उसके बाद तुम मुझे खा जाना|’
बाघ नन्दा की बात अनसुनी कर दी| तब नन्दा ने बहुत-बहुत शपथें खायीं| शपथों का प्रभाव बाघ पर पड़ा| उसने नन्दा को लौट जाने दिया| नन्दा उतावली के साथ बछड़े की ओर बढ़ी| दूर से ही उसने अपने बछड़े की पुकार सुनी| अब उसकी उतावली और बढ़ गयी| वह दौड़ती हुई बछड़े के पास जा पहुँची| उसकी आँखों के आँसू और जोर से बहने लगे थे| बछड़े ने पूछा-‘माँ! तुम तो सदा प्रसन्न रहती थी| आज इस तरह क्यों रो रही हो?’ नन्दा ने आप बीती कह सुनायी और अंत में कहा-‘वत्स! मुझे महान् दुःख इसलिये हो रहा है कि अब मैं तुम्हें देख न सकूँगी| मैं बाघ को शपथ देकर आयी हूँ, अतः सत्य की रक्षा के लिये मुझे उसके पास जाना ही होगा|’
बछड़े ने कहा-‘माँ! तुम्हारे साथ मैं भी चलूँगा| यदि बाघ मुझे मार डालेगा तो मुझे वह उत्तम गति मिलेगी जो मातृ-भक्त पुत्रों को मिला करती है|’ नन्दा ने बेटे को ऐसा करने से मना किया| उसके बाद नन्दा ने पुत्र को संसार में रहने के बहुत-से ढंग बताये और धर्म पर अटल रहने पर जोर दिया| पुत्र को प्यार देने के बाद नन्दा अपनी माता, साथियों और गोप-गोपियों का अभिनन्दन किया तथा बाघ के पास लौटने का अपना निश्चय सुनाया| उन लोगों को नन्दा का निश्चय पसंद नहीं आया| उन्होंने कहा कि अपनी रक्षा के लिये शपथ और सत्य की दुहाई देना कर्तव्य होता है, अतः तुम मत जाओ, किंतु सत्यवादिनी नन्दा ने कहा कि ‘दूसरे के प्राणों को बचाने के लिये झूठ बोलना पाप नहीं हैं, किंतु अपने बचाव के लिये झूठ बोलना पाप है| मैं सत्य की रक्षा चाहती हूँ; क्योंकि सत्य ही उत्तम तप है|’
सत्यवादिनी नन्दा ने सबको अनुनय-विनय से मानकर बाघ के पास पहुँची| ठीक इसी अवसर पर मातृ-भक्त बछड़ा भी अपनी पूँछ उठाये दौड़ता हुआ आकर बाघ और अपने माँ के बीच में खड़ा हो गया, मानो वह बाघ से प्रार्थना कर रहा हो कि ‘तुम मुझे ही खा लो और मेरी माँ को छोड़ दो|’
नन्दा ने बाघ से कहा-‘मैं सत्यधर्म का पालन करती हुई तुम्हारे पास आ गयी हूँ| अब तुम मेरे मांस को खाकर अपनी इच्छा पूरी कर लो|’
बाघ नन्दा की सत्यनिष्ठा को देखकर आश्चर्यचकित हो गया| उसने कहा-‘तुम्हारी शपथ सुनकर मैं इस कौतूहल में पड़ गया था कि यह जाकर लौटेगी या नहीं! सत्य की परीक्षा के लिये ही मैंने तुम्हें भेजा था| मैं तुम्हारे भीतर सत्य की खोज कर रहा था, उसे पा लिया| आज से तुम मेरी बहन हुई और यह बछड़ा हमारा भानजा| तुम्हारी सत्यनिष्ठा से मैं बहुत प्रसन्न हूँ और तुम्हारा स्वागत करता हूँ| तुम्हारी धर्मनिष्ठा ने मेरी भी जीवन को बदल दिया है| अब मैं भी हिंसा वृत्ति छोड़कर धर्म को अपनाऊँगा| बहन! अब मझे धर्म का उपदेश दो|’ नन्दा ने उससे सभी प्राणियों को अभयदान देने के लिये कहा; क्योंकि जो लोगों को अभयदान देता है, वह सभी भयों से मुक्त परब्रह्म को प्राप्त हो जाता है|
नन्दा की संगति से बाघ को अपने पूर्वजन्म का वृतान्त स्मरण हो आया| उसने कहा-‘बहन! पूर्वजन्म में मै राजा था| एक बार इसी वन में शिकार करने आया, तब मुझसे एक अधर्म हो गया| मैंने बच्चे को दूध पिलाती हुई एक मृगा को मार दिया| उसी के शाप से मैं बाघ बन गया हूँ| बाघ बन जाने के पश्चात् मैं बिलकुल भूल गया था कि मैं राजा हूँ| यह तुम्हारी संगति का ही प्रताप है कि मुझे अपने पूर्वजन्म की बातें स्मरण हो आयीं| तुम धन्य हो और तुम्हारी संगति धन्य है| अच्छा, अब तुम अपना नाम बताकर मुझे कृतार्थ करो|’
नन्दा ने अपना नाम बताया| नाम सुनते ही बाघ का शरीर छुट गया और वह राजा के तेजस्वी रूप में आ गया| ठीक उसी समय नन्दा के सत्य से आकृष्ट होकर धर्मराज वहाँ प्रकट हो गये| उन्होंने प्रसन्नता के साथ कहा-‘नन्दा! तुम्हारी धर्मनिष्ठा से मैं संतुष्ट हूँ| तुम मुझसे वर माँग लो|’
नन्दा ने धर्मराज से तीन वर माँगे-(1) मैं पुत्र के साथ उत्तम पड़ को पाऊँ, (2) यह स्थान तीर्थ बन जाय और (3) यहाँ सरस्वती-नदी का नाम मेरे नाम से ‘नन्दा’ पड़ जाय|
धर्मराज ‘ऐसा ही होगा’ कहकर उसे संतुष्ट किया| इसके बाद नन्दा तत्काल पुत्र के साथ उत्तम लोक में चली गयी|