सत्य की जीत
किसी जमाने में एक राजा था| वह बड़ा नेक था| अपनी प्रजा की भलाई के लिए प्रयत्न करता रहता था| उसने अपने राज्य में घोषणा करा दी थी कि शाम तक बाजार में किसी की कोई चीज न बचे, अगर बचेगी तो वह स्वयं उसे खरीद लेगा, इसलिए शाम को जो भी चीज बच जाती, वह उसे खरीद लेता|
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संयोग से एक दिन बाजार में एक आदमी शनि की मूर्ति बेचने आया| शनि की मूर्ति को भला अपने घर में कौन रखता? किसी ने उसे नहीं खरीदा| अपने वचन के अनुसार शाम को राजा ने उसे खरीद लिया और अपने महल में रख दिया| रात हुई राजा की आंखें लगी ही थीं कि अचानक उसके सामने एक मूर्ति आ खड़ी हुई| राजा ने पूछा – ‘तुम कौन हो?”
वह बोली – “राजन, मैं लक्ष्मी हूं| तुम्हारे राज्य से जा रही हूं, क्योंकि तुमने शनि को अपने यहां स्थान दे दिया है|’
राजा ने कहा – ‘मैंने अपने धर्म का पालन किया है| सत्य की रक्षा की है| तुम जाना ही चाहती हो तो चली जाओ|’
उसके जाने के थोड़ी ही देर बाद राजा की आंखों के सामने एक दूसरी मूर्ति आई| राजा ने पूछा – ‘तुम कौन हो?’
वह मूर्ति बोली – “मैं धर्म हूं, मैं भी जा रहा हूं| जहां शनि वास करता है, मैं वहां नहीं रह सकता|’
राजा ने उसे भी वही उत्तर दिया, जो उसने लक्ष्मी को दिया था|
फिर तीसरी मूर्ति प्रकट हुई| राजा ने पूछा – ‘तुम कौन हो?’
उत्तर मिला – ‘मैं सत्य हूं| तुमने शनि को आश्रय दिया है, इसलिए मैं जा रहा हूं|’
राजा ने उसे पकड़ लिया और बोला – ‘मैं तुम्हें नहीं जाने दूंगा| तुम्हारे लिए ही तो मैंने लक्ष्मी को छोड़ा, धर्म को छोड़ा अत: तुम नहीं जा सकते|’
यह सुनकर सत्य चुप हो गया और वह नहीं गया| उसके रुकने पर लक्ष्मी और धर्म लौट आए|