सत्य का आचरण
एक समय की बात है| एक छोटा-सा बालक अपनी अकेली विधवा माँ को छोड़कर कोई रोजगार-धंधा करने के लिए विदेश जा रहा था|
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उसकी माँ ने उसकी कमर में एक कपड़े में कुछ अशर्फियाँ सिलकर लपेट दी और विदा होते हुए पुत्र से कहा- “हे लाल, एक बात मेरी गांठ बाँध लेना| चाहे कितनी ही विपत्ति आ जाए, तुम झूठ नहीं बोलना|” वह लड़का एक व्यापारी काफ़िले के साथ लंबी यात्रा पर निकल चला| रास्ते में डाकू मिले| व्यापारियों से उन्होंने पूछा- “तुम्हारे पास कोई जमा या नकदी है?” सबने मना कर दिया|
मारने-पीटने पर, तलाशी लेने पर सबके पास पैसे और अशर्फियाँ निकली| सबका सब रुपया पैसा छीन लिया गया| अंत में उस बालक की बारी भी आ गई| उससे सरदार ने पूछा- “तुम्हारे पास क्या है?” उसने उत्तर दिया- “कुछ अशर्फियाँ हैं|” डाकू ने पूछा- “कहाँ है?” उसने जवाब दिया- “कमर में बंधी हैं” खोलने पर उसमें से कुछ अशर्फियाँ निकली|
डाकू ने कहा- “तुम्हें मालूम था कि हम डाकू हैं और सब कुछ छीन लेते हैं, फिर भी तुमने हमें अपना भेद क्यों बता दिया?”
उस लड़के ने जवाब दिया- “मेरी माँ ने मुझे भेजते समय कहा था- चाहे कैसा संकट भी क्यों न आ जाए सच बोलना| फिर मैं झूठ कैसे बोल सकता था?”
उस छोटे से बालक की निर्भिकता और सच्चाई से डाकू सरदार का दिल भी पिघल गया| उसने न केवल उस लड़के की अशर्फियाँ लौटा दी, उसके साथी व्यापारियों की जमा पूंजी भी लौटा दी और भविष्य में डाकू वृति छोड़ने का संकल्प किया| इस कहानी से हमें यही शिक्षा मिलती है कि एक छोटे से बच्चे की ईमानदारी ने राक्षसों को इंसान बन दिया|