सत्संग का असर
डाकुओं का एक दल था| उनमें जो बड़ा-बूढ़ा डाकू था, वह सबसे कहता था कि ‘भाई, जहाँ कथा-सत्संग होता हो, वहाँ कभी मत जाना, नहीं तो तुम्हारा काम बंद हो जाएगा|
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कहीं जा रहे हो, बीच में कथा होती हो तो जोर से कान दबा लेना, उसको सुनना बिलकुल नहीं|’ ऐसी शिक्षा डाकुओं को मिली हुई थी| एक दिन एक डाकू कहीं जा रहा था| रास्ते में एक जगह सत्संग-प्रवचन हो रहा था|
रास्ता वही था, उधर ही जाना था| जब वह डाकू उधर से गुजरने लगा तो उसने जोर से अपने कान दबा लिये| चलते हुए अचानक उसके पैर में काँटा लग गया| उसने एक हाथ से काँटा निकाला और एक कान दबाकर चल पड़ा| काँटा निकालते समय उसको यह बात सुनाई दी कि देवताकी छाया नहीं होती|
एक दिन उन डाकुओं ने राजा के खजाने में डाका डाला| राजा के गुप्तचरों ने खोज की| एक गुप्तचर को उन डाकुओं पर शक हो गया| डाकू लोग देवी की पूजा किया करते थे| वह गुप्तचर देवी का रूप बनाकर उनके मन्दिर में आये तो उसने कुपित होकर डाकुओं से कहा की तुम लोगों ने इतना धन खा लिया, पर मेरी पूजा ही नहीं की! मैं तुम सबको खत्म कर दूँगी| ऐसा सुनकर वे सब डाकू डर गये और बोले कि क्षमा करो, हमसे भूल हो गयी| हम जरुर पूजा करेंगे| अब वे धूप-दीप जलाकर देवी की आरती करने लगे| उनमें से जिस डाकू ने कथा की यह बात सुन रखी थी कि देवता की छाया नहीं होती, वह बोला- यह देवी नहीं| देवी की छाया नही पड़ती, पर इसकी तो छाया पड़ रही है! ऐसा सुनते ही डाकुओं ने देवी का रूप बनाये हुए उस गुप्तचर को पकड़ लिया और लगे मारने| वे बोले कि चोर तो तू है, हम कैसे हैं? हमने चोरी की ही नहीं| वह गुप्तचर वहाँ से भाग गया| सत्संग की एक बात सुनने से ही फर्क पड़ गया|