सत्य का संकल्प
कक्षा के विद्यार्थियों के अंग्रेजी ज्ञान की परीक्षा के लिए शिक्षा विभाग के अंग्रेज इंस्पेक्टर आए हुए थे| कक्षा के समस्त विद्यार्थियों को उन्होंने एक-एक बार पाँच शब्द लिखाए| कक्षा के अध्यापक ने बालक मोहनदास की कॉपी देखी, उसमें एक शब्द गलत लिखा था|
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अध्यापक ने संकेत किया, अपना पैर बालक मोहनदास को छुआया और इशारा किया कि पास के लड़के की कॉपी से वह अपना गलत शब्द ठीक कर ले| इशारे कर दूसरे बालक को उन्होंने समझाया| सबने अपने शब्द ठीक कर लिए, परंतु बालक मोहनदास ने कुछ नहीं किया| अध्यापक ने इंस्पेक्टर के जाने के बाद बालक को डाँटा और कक्षा के सामने झिड़का कि उसने संकेत करने पर भी अपना शब्द ठीक नहीं किया|
बालक मोहनदास ने कहा- “अपने अज्ञान पर पर्दा डालकर दूसरे की नकल करना सच्चाई नहीं है|” “सत्य का यह व्रत तुमने कब लिया, कैसे लिया?” शिक्षकों ने पूछा| बालक मोहनदास ने उत्तर दिया- “राजा हरिश्चंद्र के नाटक को देखकर, जिन्होंने अपने सत्य की रक्षा के लिए अपनी पत्नी, पुत्र और स्वयं को बेचकर, कष्ट सहकर भी सत्य की रक्षा की थी|” मित्र बोल उठे- “मोहनदास, नाटक तो नाटक होता है, उसे देखकर किसी आदर्श में बंधकर जीवन में घटाना ठीक नहीं|” मोहनदास ने कहा- “ऐसा न कहो, मित्र| पक्के इरादे से सब कुछ हो सकता है| उसी नाटक को देखकर मैंने जीवन में सत्य पर चलने का निश्चय किया था| सत्य की अपनी टेक मैं कैसे छोड़ दूँ|”
बाल्यवस्था में सत्य का संकल्प करने वाला यही बालक बड़ा होकर महात्मा मोहनदास करमचन्द गाँधी के नाम से विख्यात हुआ|