संतरी ने सम्राट के लिए भी राजगृह का द्वार नहीं खोल
सम्राट अजातशत्रु ने सुचारु रूप से राज्य संचालन के कुछ नियम बना रखे थे, जिनका पालन सभी के लिए अनिवार्य था। उल्लंघन की दशा में दंड का प्रावधान भी था। सम्राट स्वयं भी इन नियमों का यथाविधि पालन करते थे। इससे उनके राज्य की व्यवस्था पूर्णत: सुगठित थी।
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सम्राट के परिजन, मित्र, मंत्री, सेनापति जैसे खास लोगों को भी नियमों के पालन में कोई छूट नहीं दी गई थी। इन्हीं नियमों में से एक नियम यह था कि सूर्यास्त के बाद राजधानी-राजगृह का द्वार किसी के लिए भी नहीं खुलेगा। राजगृह के सभी लोग अपना कार्य समाप्त कर सूर्यास्त से पहले ही राजधानी में आ जाते थे और देर होने की स्थिति में निकट के किसी गांव में रात गुजारकर फिर सुबह राजगृह आते थे। एक बार सम्राट स्वयं शिकार करते हुए दूर निकल गए तो वापस लौटने में देर हो गई। सूर्यास्त हो चुका था।
राजा के मंत्री ने संतरी को द्वार खोलने के लिए कहा, किंतु वह बोला कि मैं सम्राट की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करूंगा और लाख कहने के बावजूद संतरी ने दरवाजा नहीं खोला। विवश हो सम्राट को रात गांव की एक झोपड़ी में बितानी पड़ी। सुबह संतरी को उन्होंने दरबार में बुलाया। सभी को लगा कि आज तो संतरी को फांसी की सजा सुनाई जाएगी, किंतु सम्राट ने उसकी कर्तव्यनिष्ठा पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए उसे पुरस्कार दिया।
कथा का सार यह है कि कर्तव्य पालन में सदैव ईमानदारी और सजगता बरतनी चाहिए। कर्तव्यनिष्ठा व्यक्ति को हमेशा प्रशंसा दिलाती है और पुरस्कार का अधिकारी बनाती है।