Homeशिक्षाप्रद कथाएँसंत से वार्तालाप की महिमा

संत से वार्तालाप की महिमा

पृथु नामक एक कर्मनिष्ठ ब्राह्मण थे| वे प्रतिदिन संध्या, होम, तर्पण, जप-यज्ञ आदि धार्मिक कार्यों में लगे रहते थे| उन्होंने मन और इन्द्रियों को वश में कर लिया था|

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वे सभी प्राणियों में परमात्मा के दर्शन करते और सबकी भलाई करते रहते थे| वे इसके लिये सदा सतर्क रहते थे उनका परलोक न बिगड़ जाय| वे सबसे मीठी वाणी बोलते थे और सबका आदर करते थे|

एक बार वे तीर्थयात्रा के विचार से घर से निकल पड़े| कुछ दूर जाने पर मार्ग में एक स्थान मिला, जहाँ न पानी था न कोई वृक्ष| वहाँ की सारी भूमि काँटों से भरी थी| इतने में उनकी दृष्टि पाँच भयानक आकृतियों पर पड़ी| उन्हें देखकर उनके हृदय में कुछ भय का संचार हो आया| किंतु वे सावधान हो गये और उन्होंने पूछ-‘तुम लोग कौन हो? तुम्हारे रूप इतने विकराल क्यों हैं?’ प्रेतों ने कहा-‘हम बहुत दिनों दे भूख-प्यास से पीड़ित हैं| हमारा ज्ञान और विवेक नष्ट हो गया है| हम इतना भी नहीं समझ  पाते कि कौन दिशा किधर है? हमें न पृथ्वी दिखती है न आकाश|हम लोग बहुत कष्ट में हैं| हममें से एक का नाम पर्युषित, दूसरे का नाम सूचीमुख, तीसरे का नाम शीघ्रग, चौथे का नाम रोधक और पाँचवें का नाम लेखक है|’

वे ब्राह्मण इन नामों को सुनकर चौंक पड़े और पूछने लगे-‘तुम लोगों को ये विचित्र नाम क्यों प्राप्त हुए हैं?’

तब उनमें से एक ने कहा-‘जब मैं मनुष्य था, तब स्वयं तो स्वादिष्ट भोजन करता था और ब्राह्मणों को बासी (पर्युषित) भोजन देता था| इसी पाप से मेरा नाम ‘पर्युषित’ पड़ा है| मेरे इस साथी का नाम ‘सूचीमुख’ इसलिये पड़ा है कि इसने अन्न चाहनेवाले ब्राह्मणों की हिंसा की थी| इसी पाप से इसे सुई की तरह मुख प्राप्त हुआ है, जिससे अन्न जल मिलने पर भी यह यह भरपेट खा-पी नहीं सकता| तीसरे साथी का ‘शीघ्रम’ नाम इसलिये पड़ गया कि भूखे ब्राह्मणों के अन्न माँगने पर यह वहाँ से शीघ्रतापूर्वक भाग जाता था| चौथे साथी का ‘रोधक’ नाम इसलिये पड़ा है कि यह किवाड़ बंदकर स्वयं स्वादिष्ट भोजन किया करता था| पाँचवें साथी का ‘लेखक’ नाम इसलिये पड़ा है कि किसी के कुछ माँगने पर यह पैर से धरती कुरेदने लगता था|’

यह सुनकर ब्राह्मण ने पूछा-‘तुम सब खाते क्या हो?’ प्रेत लज्जित हो गया और बोला कि ‘आप हमारे आहार के सम्बन्ध में न पूछते तो अच्छा होता; क्योंकि हमारा आहार बहुत घृणित है| बलगम, मल, मूत्र, स्त्री के शरीर का रज यही हमारा भोजन है| हम सब घरों में जा भी नहीं सकते, केवल उन्हीं घरों में जाते हैं जहाँ अपवित्रता रहती है| जहाँ बलिवैश्वदे, वेदमन्त्रों का उच्चारण, होम, व्रत नहीं होते, वहाँ हम भोजन करते हैं’

तत्पश्चात् प्रेतों ने ब्राह्मण से पूछा-‘हम इस प्रेत-योनि में बहुत दुःखी हैं| आप तपस्या के धनी है| कृपया बताइये कि किस-किस कर्म से जीव को प्रेतयोनि में नहीं जाना पड़ता है|’ ब्राह्मण ने उत्तर दिया-‘जो व्रतों का अनुष्ठान करता है, अग्नि का सेवन करता है, देवता, अतिथि, गुरु तथा पितरों की पूजा करता है, वह प्रेतयोनि में नहीं पड़ता| जिसके हृदय में सभी प्राणियों के प्रति दया भरी है, जो समता (समान-दृष्टि) रखता है और जो छहों (काम, क्रोध, लोभ, मद, ईर्ष्या) शत्रुओं को जीत लेता है, वह प्रेत-योनि में नहीं पड़ता|’

प्रेतों ने पुनः पूछा-‘हम बुत दुःखी हैं| आपकी बातों में हमें सुख मिलता है इसलिये यह भी बताइये कि जीव किस कर्म से प्रेत-योनि में जाता है?’

ब्राह्मण देवता ने बताया-‘यदि कोई द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) जो शराब, मांस और परायी स्त्री का सेवन करता है, विश्वासघात करता हाउ, वह अवश्य प्रेत होता है| जो आश्चर्य अनेक ऋत्विजनों को मिली हुई दक्षिणा को स्वयं हड़प जाता है, वह प्रेत होता है|’

ब्राह्मण देवता की बात पूरी होते ही नगाड़ों की आवाज सुनायी पड़ने लगी और फूलों की वर्षा होने लगी, साथ ही पाँच विमान भी उतर आये| इसके बाद आकाशवाणी सुनायी दी-‘ब्राह्मण के साथ वार्तालाप करने एवं पुण्यकर्मों के कीर्तन के प्रभाव से पाँचों प्रेतों को दिव्यलोक मिले हैं|’

देखते-देखते पाँचों प्रेत दिव्य शरीर धारण कर और विमान पर चढ़कर दिव्यलोक को चले गये|

समपर्ण
पैसे न ह