साहसी सेवक
पहले महायुद्ध के दिनों की बात है| सन् 1918 के प्रारंभिक दिनों में उत्तराखंड-गढ़वाल में भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा| कुछ समाचार पत्रों में उत्तराखंड-गढ़वाल में दुर्भिक्ष फैलने के समाचार प्रकाशित हुए|
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गढ़वाल में उन दिनों यूरोप के महायुद्ध के लिए भर्ती का काम जोरों पर था|
उस भरती के काम में बाधा न आए, इसलिए ब्रिटिश सरकार की ओर से गढ़वाल में दुर्भिक्ष के होने के समाचार का खंडन किया गया और ईसाई मिशनरियों ने गढ़वाल में अपना मायाजाल बिछाना शुरू किया| उसी समय सरकार ने जमीन का नया बंदोबस्त सारी करने तथा बद्रीनाथ-यात्रा बंद करने का ऐलान किया| स्वामी श्रद्धानंद जी ने स्थिति का जायजा लेकर गढ़वाल की दुर्भिक्ष-पीड़ित जनता की सहायता की अपील की| जनता ने दिल खोलकर मदद की| स्वामी श्रद्धानंद पहाड़ी जंगल के रास्ते चलकर कोट द्वार पहुँचे| अपने कार्यक्षेत्र में उन्होंने पाँच कैंप खोलकर स्वयं सेवक का जाल बिछा दिया| स्वामी जी के स्थापित अन्न के भंडारों और शिविरों के खुलने से सरकारी प्रचार ठप्प पड़ गया| सरकार ने स्वामी जी के बहिष्कार के लिए पौड़ी में एक बड़ी बहिष्कार-सभा आयोजित की| स्वामी जी का सिर काट लेने की धमकियाँ दी जाने लगी|
सभा ने एक दिन सवेरे स्वामी जी दौरे से लौट रहे थे कि पौड़ी के कुछ सज्जन उनसे मिले| माथा टेककर उनसे प्रार्थना की कि आप यहीँ से लौट जाइए| पौड़ी में आपके आने से खून-खराबा हो जाएगा, महान् अनर्थ मत जाएगा| स्वामी जी नियत समय से 15 मिनट पहले ही सभा में पहुँच गए| स्वामी जी के साहस, धैर्य और आत्मविश्वास से सारी जनता उनकी जय-जयकार करने लगी| सेवा समिति का झंडा उतारने के लिए सरकारी सिपाही उनके शिविर पर भेजा गया| स्वामी जी ने उससे कह दिया- “जाओ, अपने मालिक से कह दो कि यह झंडा गोखले की आत्मा ने लगाया है, सिवा उनके दूसरा कोई इसको उतार या उतरवा नहीं सकता|” दुर्भिक्ष-पीड़ित जनता के उस साहसी सेवक के इस निडर उत्तर से सरकार सहम गई| उस झंडे को फिर आँच नहीं आई| प्रत्येक मनुष्य को हर परिस्थिति में साहस का साथ नहीं छोड़ना चाहिए|