सहदयता

एक विधवा बंगालिन थी| वह अपनी पुत्री का विवाह करना चाहती थी, परंतु उसके विधवा होने के कारण कोई भी भद्र समाज का पंडित उसकी पुत्री का विवाह करने के लिए तैयार नहीं होता था, क्योंकि उन पंडितों को विधवा की पुत्री का विवाह कराने के कारण समाज से बहिष्कृत होने का डर था|

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वह विधवा बंगालिन बड़े-बड़े समाज सुधारकों और पंडितों के पास गई, परंतु किसी भी पंडित ने उस पर दया नहीं की लोगों ने सलाह दी- तुम कलकता हाइकोर्ट के बाबू आशुतोष मुखर्जी के पास जाओ| शायद उनके पास जाने से तुम्हारा काम बन जाए| आखिर बेचारी विधवा उनकी कोठी पर पहुँची| वह कोठी की ठाठ-बाट देखकर अचम्भे में आ गई| उसे लगा कि इतनी बड़ी कोठी का मालिक क्या मेरी बात सुनेगा| उसे मालूम हुआ कि कोठी के मालिक अदालत गए हुए हैं| वह निराश होकर कोठी से बाहर जा रही थी कि एक शाही टमटम से सवारी अन्दर जाती दिखाई दी| आशुतोष बाबू ने अन्दर घुसते हुए बाहर जाती हुई उस दुःखी औरत को देख लिया| उन्होंने अपनी एक पहरेदार से उसे बैठक में बुलाने के लिए कहा|

उस नारी ने आशुतोष बाबू द्वारा आने का कारण पूछने पर अपनी विपदा की बात सुना दी और कहा- “मुझ विधवा की कन्या का विवाह कराने के लिए कोई भी पंडित तैयार नहीं होता| क्या करुँ?” आशुतोष मुखर्जी ने कहा- “सब प्रबन्ध हो जाएगा|” और उन्होंने उस महिला का ठिकाना और विवाह का समय पूछ लिया| निश्चित समय पर पीताम्बर- वेशधारी एक पंडित विधवा के घर पहुँच गए और विधि-विधान के साथ उन्होंने विवाह की रीति पूरी करवा दी| संस्कार कराने के बाद वह पंडित केवल कुछ अक्षत (चावल) ही दक्षिणा रुप स्वीकार करने के लिए तैयार हुए| परम्परा के अनुसार बिना दक्षिणा के संस्कार पूर्ण नहीं होता|

उस विधवा तथा समस्त बंगाली भद्रसमाज को यह जानकर आश्चर्य और आनन्द हुआ कि वह पीताम्बर वेशधारी पंडित हाइकोर्ट के जज श्री आशुतोष मुखर्जी थे| व्यक्ति अपनी सह्रदयता के कारण ही महानता का पात्र बनता है| यही इस कहानी से ज्ञात होता है|