आचरण

एक समय की बात है| एक साधु महात्मा थे| उनकी सारे नगर में प्रतिष्ठा थी| एक गृहस्थ का सारा परिवार उस महात्मा का भक्त था|

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गृहस्थी का लड़का मीठे गुड़ आदि का बहुत चटोरा था| चिकित्सक ने बतलाया कि लड़के की बीमारी तब ठीक हो सकती है जब वह गुड़ छोड़ देगा| घर में सब कहकर हार गए, लड़के ने किसी के कहने पर भी गुड़ खाना नहीं छोड़ा| वह गृहस्थ पुरुष अंत में अपने लड़के को लेकर साधु महात्मा के समीप पहुँचा; बोला- “महाराज, यह गुड़ बहुत खाता है| इसे आदेश करें कियह गुड़ खाना छोड़ दे|” महात्मा जी ने कहा- “लड़के को पन्द्रह दिन बाद लाना, मैं फिर इसे कह दूँगा|”

वह गृहस्थी असमंजस में पड़ गया| महाराज जी यह छोटी-सी बात भी लड़के से न कह सके| वह पन्द्रह दिन रुककर उसे फिर साधु-महात्मा के पास ले गया| बोले, “महाराज, आज तो लड़के को कह दें|” लड़के को महात्मा जी कहा- “बेटा, यह तुम्हारे लिए ठीक नहीं है| गुड़ खाना जरुर छोड़ दो| उससे तुम्हारा भी लाभ होगा|” लड़का बोला- “महाराज, आप कहते हैं तो गुड़ खाना जरुर छोड़ दूँगा|” लड़के के पिता ने सारी बात सुनकर महात्मा से कहा- “महाराज, सब बात तो ठीक है, पर एक बात समझ में नहीं आई|” महात्मा बोले- “क्या बात समझ में नहीं आई?” गृहस्थ सज्जन बोले- “यह छोटी-सी बात तो आप पन्द्रह दिन पहले भी कह सकते थे|”

महाराज जी बोले- “मैं उस समय यह कहने का अधिकारी नहीं था| मैं किस तरह कहता कि बेटा, गुड़ न खाओ? तब मैं स्वयं गुड़ खाता था| मैंने पन्द्रह दिन में गुड़ खाना छोड़ दिया है| दूसरों को हम वही बात कहने के अधिकारी हैं, जिसका हम स्वयं आचरण करते हों, उस बात का प्रभाव भी पड़ता है|” इस कहानी से हमें शिक्षा मिलती है कि पहले हम अपनी कमी को दूर करें बाद में हमें नसीहत करने का हक पहुँचता है|

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