साहसी किशोर
शिकागो के ‘विश्व धर्म सम्मेलन’ में ‘भाइयों और बहनों’ के उद्बोधन से एवं अपनी वक्तृत्व- शक्ति के सम्मोहन से मुग्ध करने वाले स्वामी विवेकानंद की अपने देशवासियों से माँग थी कि उन्हें सब देवी-देवताओं को छोड़कर एक भाव भारत माता की पूजा एवं समुन्नती के लिए प्रयत्नशील हो जाना चाहिए|
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बचपन में उनका नाम नरेंद्र था| एक दिन बालक नरेंद्र एकांत कमरे में ध्यानयोग में लीन हो गया|
उसी समय उनके रोज के 15-20 साथी आ गए| उन्हें लेकर उनकी माँ भुवनेश्वरी कमरे के दरवाजे पर पहुँची| बालक नरेंद्र ध्यान में मग्न था| उनके सामने फोन उठाए एक काला साँप बैठा था| माँ और साथी विचलित हो उठे| ध्यान टूटने पर बालक नरेंद्र ने डरी हुई माँ और साथियों को देखकर कहा- “क्या हुआ माँ?” उस समय तक साँप ओझल हो गया था| माँ बोली- “कुछ नहीं बेटे, प्रभु की लीला के दर्शन कर रही थी|”
यह नरेंद्र साहस के प्रतीक थे| एक बार कलकते की भीड़ भरी सड़क पर एक घोड़ा गाड़ी तेजी से भाग रही थी| अचानक घोड़ा बिदक गया| उसने ऐसी दुलती मारी कि गाड़ी का कोचवान दूर सड़क पर जा गिरा| घोड़ा तेजी से भागने लगा| गाड़ी में बैठा बच्चा लिए एक महिला ‘बचाओ-बचाओ’ की आवाज लगाने लगी| अचानक पन्द्रह-सोलह साल का एक किशोर वहाँ दौड़ता आया और उसने उछलकर घोड़े की पीठ पर बैठने की कोशिश की| घोड़े ने उसे गिरा दिया| लड़का फिर खड़ा हुआ, फिर से घोड़े पर चढ़ने का यत्न किया| घोड़े ने उसकी कोशिश फिर व्यर्थ कर दी, परंतु उस किशोर ने हार नहीं मानी, तीसरे प्रयत्न में वह साहसी किशोर घोड़े की पीठ पर सवार होने में कामयाब हो गया| इस कोशिश में वह घोड़े के नीचे आने से बाल-बाल बचा, लहुलुहान हो गया| अंत में उसने अपनी कोशिश से उस घोड़े पर चढ़ते ही उसे काबू में कर लिया| घोड़ा गाड़ी में सवार जब महिला अपने बच्चे समेत सकुशल उतर गई, तब उस किशोर ने अपने कपड़े झाड़े और गाड़ी से ऐसे उतर गया जैसे कोई घटना घटी ही न हो| यही किशोर नरेंद्र था, जो बड़ा होकर स्वामी विवेकानंद के नाम से प्रसिद्ध हुआ| प्रतेक बालक में इतना साहस होना ही चाहिए|