पूज्य सदैव सम्माननीय
सप्तसिंधव के प्रतापशाली सम्राटों में इक्ष्वाकुवंशीय महाराज त्रैवृष्ण त्र्यरुण अत्यंत प्रतापी और उच्चकोटि के विद्वान राजा हुए है| सत्यनिष्ठा, प्रजावत्सलता, उदारता आदि सभी प्रशंसनीय सद्गुण मानो उन-जैसे सत्पात्र में बसने के लिए लालायित रहते थे| समन्वय के उस सेतु को पाकर संसार में प्रायः दिखने वाला लक्ष्मी-सरस्वती का विरोध भी मानो सदा के लिए मिट गया|
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महाराज की तरह उनके पुरोहित वृषऋषि भी उच्चकोटि के अद्वितीय विद्वान, मंत्रद्रष्टा, आभिचारिकादि कर्मो में अतिनिष्णात ब्रह्मवेता थे| साथ ही वे अत्यंत शूरवीर भी थे|
प्राचीन भारतीय राजनीति में पुरोहित राजा की मंत्री परिषद् का प्रमुख घटक माना जाता था| जहाँ राजा की क्षात्रशक्ति प्रजा में आधिभौतिक सुख-सुविधा और शांति के प्रस्थापनार्थ समस्त लौकिक साधनों का संयोजन और बाधक तत्वों का विघटन करती थी, वही पुरोहित की ब्रह्माशक्ति आध्यात्मिक एवं आधिदैविक सुख-शांति के साधन जुटाने और आधिदैविक बाधाओं के मिटा देने के प्रकार से पोषित महाराज त्रैवृष्ण की प्रजा सभी प्रकार की सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण रहा करती| वृशऋषि-जैसे सर्वसमर्थ पुरोहित के मणि-कांचनयोग से प्रजावर्ग में सुख-शांति का साम्राज्य छाया हुआ था|
एक बार महाराज ने सोचा की दिग्विजय-यात्रा की जाए| इसमें उनका एक मात्र अभिप्राय यही था कि सभी शासक एक राष्ट्रीय भाव में आबद्ध हो कार्य करे| ये किसी राजा को जीत कर के उसकी संपत्ति से अपना कोष भरना नही चाहते थे| प्रत्युत उनका यही लक्ष्य था कि इस अभिमान में विजित संपत्ति उसी राजा को लौटाकर उसे आदर्श शासनपद्धति का पाठ पढ़ाया जाए और उस पर चलने के लिए प्रेरित किया जाए| इस प्रसंग में सर्वथा दुष्ट, अभिमानी, प्रजापीड़क शासक मिले, उनका कण्टकशोधन भी एक आनुषंगिक लक्ष्य मान लिया गया| अतः उन्होंने पुरोहित वृशऋषि को बुलाकर उनसे सादर प्रार्थना की कि ‘प्रभु मैं दिग्विजय-यात्रा करना चाहता हूँ| इससे स्वयं आपको मेरा सारथ्य स्वीकार करना होगा|’
ऋषि ने कहा- ‘जैसी महाराज की इच्छा! क्या आप बता सकते है कि मैंने अपने यजमान की कभी किसी इच्छा का सम्मान नही किया?’
महाराज ने कहा- ‘ऋषे, इस कृपा के लिए मैं अनुग्रहित हूँ|’
आज महाराज ऐक्ष्वाक त्रैवृषण त्र्यरुण की विजय यात्रा का सुमुहर्त है| इसके लिए कई दिनों से तैयारियाँ चली आ रही है| चतुरंगवाहिनी पूरे साज-सामान के साथ सज्ज है| सुंदर भव्य रथ अनेकानेक अलंकरणों से सजाया गया है| महाराज त्रयरण ने प्राचीन वीरों का बाना पहन लिया है- सिर पर लौह निर्मित शिरस्त्राण और शरीर में कवच! वामहस्त में धनुष तो दक्षिण हस्त में भाला एवं बाण खचित तूणीर पीठ पर लटक रहा है तथा पैरों में पड़े है, वाराहचर्म निर्मित जूते! पुरोहित वृषऋषि भी, जो कभी वल्कल वसनों में विराजते, आज कवच-शिरस्त्राण से सुशोभित हो घोड़ों की रास पकड़े रथ के अग्रभाग पर विराजते दिख पड़े| प्रजा के आश्चर्य का ठिकाना न रहा; फिर देर क्या थी? रण-दुंदुभि बज उठी और सवारी निकल निकल पड़ी विजय के लिए|
महाराज त्र्यरुण की सवारी जिधर जाती, उधर ही विजयश्री हाथ में जयमाला लिए अगवानी करने लगती| एक नही, दो नही- दासियों, शतियों, पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण सभी दिशाओं के जनपदों के सामंत और पुरों के राजा बहुमूल्य भेटों के साथ हृदय के भावसुमन महाराज के चरणों पर चढ़ाते, स्वागत के लिए पलक-पाँवड़े बिछाते, तो कुछ ऐसे भी मिलते जो अपने-अपने सुरक्षित बल से महाराज त्र्यरुण की सेना के साथ दो-दो हाथ करने को तैयार रहते| महाराज जहाँ प्रजापीड़क, मदमत शासकों का गर्व चूरकर उन्हें सन्मार्ग का पथिक बनाते, वही पुत्र की तरह प्रजा के पालक शासकों का अभिनंदन करते और उन्हें सन्मार्गनिष्ठ बने रहने के लिए प्रोत्साहित करते|
महाराज त्र्यरुण की यह विजय-यात्रा किसी के लिए उत्पीड़क नही हुई| उन्होंने प्रत्येक सत्पथ-पथिक का स्वागत ही किया| यही कारण है कि इस विजय-यात्रा से सर्वत्र जनसाधारण में उत्साह के अपूर्व बाढ़ आ गई| यात्रा जहाँ प्रस्थान करती, वही जनसाधारण नागरिक एवं जनपदवासी सहस्त्रों की संख्या में उसकी शोभा देखने जुट जाते|
कुछ ही दिनों में सर्वत्र विजय-वैजयन्ती फहराते हुए महाराज त्र्यरुण बड़े उल्लास के साथ अपनी राजधानी की ओर लौट रहे थे| राजा की सारी जनता उनके दर्शनार्थ उमड़ पड़ी| व्यवस्थापकों के लिए जनता पर नियंत्रण पाना कठिन हो रहा था| सर्वत्र उत्साह और उल्लास का वातावरण छाया था कि अकस्मात् रंग में भंग हो गया| लाख ध्यान देने और बचाने पर भी शोभा यात्रा के दर्शनार्थ उतावला एक अबोध ब्राहमण-बालक रथ-चक्र के बीच में आ गया और सारा मजा किरकिरा हो गया|
राजकीय रथ से कुचलकर एक ब्राहमण-बालक की हत्या हो जाए, जिस पर आरुढ़ हो सम्राट और जिसे हाँकने वाले हो साम्राज्य के पुरोहित! अब अपराधी किसे माना जाए? प्रजा के लिए यह बहुत बड़ा यक्ष प्रश्न उपस्थित हो गया| वादी थे उनके सम्राट त्रैवृष्ण और प्रतिवादी थे ब्रह्मावर्चस्वी पुरोहित ऋषि वृश|
उपस्थित जनसमुदाय ही न्यायकर्ता बना| उसके प्रमुख नायक के समक्ष दोनों ने अपने-अपने तर्क रखे| महाराज ने कहा- ‘पुरोहित रथ के चालक थे| उन्हें इसकी सावधानी रखनी चाहिए थी| ब्राह्मण-बालक की हत्या का दोष उन पर भी है|’
पुरोहित ने कहा- ‘वास्तव में रथ के स्वामी रथी तो महाराज है और मैं तो हूँ सारथि| वे ही मुख्य है और मैं गौण| अवश्य ही रथ की बागडोर मेरे हाथ में रही, पर फल के भागी तो महाराज ही है| जब सैनिकों के युद्ध जीतने पर भी विजयफल, विजय का सेहरा राजा के ही सिर पर रखा जाता है तो रथी होने के कारण ब्राह्मण बालक की हत्या का दोष भी उन पर ही मढ़ा जाना चाहिए|’
निर्णयकों की समझ में कुछ नही आ रहा था| पुरोहित का कहना न्यायसंगत तो लगता, पर महाराज का मोह और प्रभाव उन्हें न्याय से विचलित करने लगता| अन्ततः वही हुआ| निर्णायक सत्ता के प्रभाव में आ गए और उन्होंने महाराज को निर्दोष और पुरोहित को दोषी घोषित कर दिया|
पुरोहित राष्ट्रीय हित की दृष्टि से मौन रह गए| उन्होंने प्रतिवाद में एक भी शब्द नही कहा|
सभी उपस्थित जन स्तब्ध थे| इसी बीच पुरोहित ने वार्ष सामका मंजुल गान गाया| फलस्वरुप अकस्मात् मृत ब्राह्मण-बालक जी उठा| सभी यह देख आश्चर्यचकित रह गए, पर पुरोहित यह कहते चले गए कि ऐसे राज्य में रहना किसी मनस्वी पुरुष के लिए उचित नही| सबने रोकने का बहुत प्रयत्न किया, परंतु ऋषि ने किसी की एक न सुनी|
ब्राह्मण-बालक के जी जाने से लोगों के आनंद का ठिकाना न रहा, पर पुरोहित को ही अपराधी घोषित करना और उनका राज्य से चले जाना सबको खटकने लगा| कारण, यह समस्त राज्य के लिए खतरे से खाली नही था; क्योंकि पुरोहित को राष्ट्रहित में अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है| वे अपने तपोबल और मंत्रशक्ति से सारे राष्ट्र की सब प्रकार से रक्षा किया करते है| वे पाँच ज्वालाओं से युक्त वैश्वानर खे गये है| उनकी वाणी- स्थित प्रथम ज्वाला स्वागत एवं सम्मानपूर्ण वचनों से शांत की जाती है| पाध के लिए जल लाने से पाद्स्थित ज्वाला शांत होती है| शरीर को नाना के अलंकरणों से अलंकृत कर देने पर त्वक्-स्थित ज्वाला का शमन होता है, नितांत तर्पण से ह्रदयस्थित ज्वाला और घर में पूर्ण स्वातंत्र्य देने से उनकी उपस्थिति की ज्वाला शांत होती है| अतः राजा का कर्तव्य है कि वह पुरोहित-रुप वैश्वानर इन पाँचों ज्वालाओं को उन-उन वस्तुओं के संयोजन से शांत रखे| अन्यथा वह आग राष्ट्र को भस्म कर डालती है|
यहाँ तो ऋषि वृश पुरोहित के अपमान और उससे क्रुद्ध होकर उनके चले जाने से राष्ट्र को उनकी ज्वालाओं ने नही जलाया| कारण, वे स्वभावतः बड़े दयालु थे; पर उनके चले जाने के साथ पूरे राज्य से ही अग्नि उठ गया|
सायंकाल होते-होते राजभवन के बाहर प्रजाजनों का समुंद्र उमड़ पड़ा और एक ही आक्रोश मचा- ‘हमें आग दो| सारे परिवार दिनभर से भूखे है| आग सुलगाते-सुलगाते पूरा दिन बीत गया, पर उसमे तेज ही नही आता| चूल्हा जलता ही नही, रसोई पके तो कैसे? हमारे बाल-बच्चे भूख से छटपटा रहे है|’
महाराज त्रेवृष्ण बरामदे में आ गए| अपनी प्रजा की यह दशा देख उन्हें भी अत्यंत दुःख हुआ| यह समझते देर न लगी कि यह पूज्य पुरोहित के अपमान का ही दुष्परिणाम है| उन्होंने प्रजाजनों से थोड़ा धैर्य रखने को कहा और अपने प्रमुख अधिकारियों को आदेश दिया कि ‘जहाँ-कही पुरोहित जी मिले, उन्हें बड़े आदर और नम्रता के साथ मेरे पास शीघ्र-से-शीघ्र लाया जाए|’
सम्राट का कठोरतम आदेश! उसके पालन में देर कहाँ? चारों ओर चर भेजे गए और अन्ततः पुरोहित को ढूँढ़ निकाला गया| वे निकटवर्ती दूसरे किसी सामंत के राज्य में एक उधान में बैठे हुए थे|
राजकीय अधिकारी पुरोहित को ले आए तो महाराज उनके चरणों में गिर पड़े और कहने लगे- ‘महाराज! क्षमा करे और किसी तरह प्रजा को उबारे| आपके चले जाने से अग्निदेव भी क्रुद्ध हो राज्यभर से लुप्त हो गए|’
ब्राह्मण-ह्रदय किसी की पीड़ा देखते ही पिघल जाता है| प्रजा की यह दुर्व्यवस्था देख ऋषि विचार में पड़े कि आखिर हुआ क्या? उन्होंने पाँच मिनट ध्यान किया और महाराज से कहा कि ‘अन्तः पुर में चले|’
महाराज आश्चर्य में पड़े कि ऋषि क्या कर रहे है! फिर भी चुपचाप वे उनके साथ अन्तः पुर में पधारे| ऋषि ने एक खाट के नीचे छिपा रखा एक शिशु महाराज को दिखाया| महाराज कुछ समझ न पाए|
ऋषि ने कहा- ‘महाराज, आपकी पत्नियों में एक पिशाचनी बन गई है| मेरे रहते उसे अपना उत्पात मचाने का अवसर नही मिल पाता था| परंतु मेरे यहाँ से जाते उसने चट राज्यभर के अग्नि से सारा तेज उठाकर यहाँ शिशु रुप में छिपा दिया है| यही कारण है कि पूरे राज्य में अग्नि से तेज जाता रहा|’
महाराज स्तब्ध रह गए| वे पुरोहित की ओर देख करुणा भरी आँखों से इस संकट से उबारने की विनम्र प्रार्थना करने लगे|
वृषऋषि शिशु रुपधारी अग्नि-तेज को सम्बुद्ध कर आर्षवाणी में स्तुति करने लगे-
‘अग्नि-नारायण! आप बृहत् ज्योति के साथ प्रदीप्त होते और अपनी महिमा से समस्त सांसारिक वस्तुओं के प्रकाशित करते है| प्रभु, आप असुरों द्वारा फैलाई हुई माया को दग्ध कर प्रजाजनों को उनके कष्टों से बचाते है| राक्षसों के विनाशार्थ अपनी ज्वालाएँ तीक्ष्ण करते है|’
‘जातवेदा! आप अनेक ज्वालाओं से युक्त हो निरंतर बढ़ते हुए अपने उपासकों की कामनाएँ पूरी करते है और उन्हें निष्कण्टक धन-लाभ कराते है| स्वयं अन्य देव आपकी स्तुति करते है| भगवान् वैश्नावर हवि को सिद्ध करने वाले आप मानव मात्र का कल्याण करे| प्रभु, आपके तेज के अभाव में आज सारी प्रजा विपन्न हो बिलख रही है| दयामय, दया करे|’
ज्यों ही पुरोहित वृषऋषि की स्तुति पूर्ण हुई, त्यों ही वह शिशु अदृश्य पिशाचिनी के बाहुपाश से छूट सामने अग्निरुप में प्रकट हो गया| पुनः जैसे ही पिशाचिनी उसे पकड़ने चली, वैसे ही ऋषि के मंत्र-प्रभाव से भस्म हो गई| इस प्रकार अग्नि शिशु के मुक्त होने के साथ घर-घर की अग्नि प्रज्वलित हो उठी| प्रजा वर्ग के आनंद का ठिकाना न रहा|
महाराज ने अपने ब्रह्मवर्चस्वी पुरोहित वृशऋषि को साष्टांग नमस्कार किया और क्षमा माँगने लगे- ‘प्रभु, अपने सम्राट् पद के गर्व में आकर मैंने अन्यायपूर्वक आपका घोर अपमान किया; फिर भी आपने कुछ नही कहा, चुपचाप ब्राह्मण-बालक के जीवनदान का मुझ पर अनुग्रह करते हुए चले गए| परंतु मैंने जो पाप किया, उसका फल मेरी प्रजा को बुरी तरह भुगतना पड़ा, इसका मुझे भारी खेद है| धन्य है आपकी क्षमाशीलता और प्रजावत्सलता, जो आपने मुझे और मेरी प्रजा को पुनः उबार कर कृतार्थ किया|’
पुरोहित ने राजा को यह कहकर उठाया और गले लगाया कि ‘महाराज, इसमें मैंने क्या विशेष किया? आपके राज्य का पुरोहित होने के नाते प्रजा का कष्ट-निवारण मेरा कर्तव्य ही है|’
महाराज के नेत्रों से दो अश्रु ऋषि के चरणों पर ढुलक पड़े|