परलोक को न बिगड़ने दें
एक बार सप्तर्षिगण सनातन ब्रम्हालोक पर विजय प्राप्त करने की इच्छा से तीर्थों में विचर रहे थे| इसी बीच भयानक अकाल पड़ गया| जानता को अन्न के लिये कष्ट होने लगा|
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शिलोंछवृत्ति से भी जीवित चलाना कठिन हो गया था| सप्तर्षियों को भी उपवास करने पड़े रहे थे| घूमते हुए वे सौराष्ट्र पहुँचे| वहाँ का राजा वृषादर्भि बहुत प्रजा-वत्सल था|
वह निरन्तर घूम-घूमकर लोगों के अभाव की पूर्ति करता रहता था| राजा ने सप्तर्षियों को अन्न की खोज में भटकते देखा, तब उसने उन्हें साष्टागङ प्रणाम किया और प्रार्थना की-‘मुनिवर! आपलोग ब्राह्मण हैं| ब्राह्मणों का दान लेना कर्तव्य है| मैं आपको दूध देने वाली गायें, अन्न, वस्त्र, रत्न, स्वर्ण आदि जो चाहें, देने को तैयार हूँ| आप इस तरह कष्ट क्यों झेल रहे हैं?’
सप्तर्षियों ने कहा-‘राजा का प्रतिग्रह (दान) अधिक निषिद्ध है, इसलिये आप इन वस्तुओं को और किसी को दे दें|’ यह कहकर सप्तर्षि आगे बढ़ गये| राजा ने उन्हें देने का दूसरा मार्ग अपनाया| उसने गूलर-फलों में स्वर्ण भरवाकर उन्हें ऋषियों के रास्ते में बिखेरवा दिया| ऋषियों की दृष्टि जमीन में लगी थी| सबसे पहले अत्रि ऋषि को एक गूलर-फल मिला, वह वजनदार था, अतः उन्होंने अन्य ऋषियों को सावधान करते हुए कहा-‘मैं इतना अल्पबुद्धि नहीं हूँ कि गूलर-फल में छिपाये हुए द्रव्य को न परख सकूँ| ये गूलर-फल हम लोगों के लिये त्याज्य हैं|’ वसिष्ठ, कश्यप आदि ऋषियों ने भी धर्म के तत्व सुनाये और गूलर-फल को यों ही छोड़कर आगे बढ़ गये| कुछ दूर बढ़ने पर शुनःसख नाम का एक व्यक्ति उनके साथ हो गया| आगे जाने पर एक बहुत बड़ा सरोवर मिला, जो कमलों से भरा हुआ था| ऋषियों ने कमल की मृणालों को इकट्ठा किया| तत्पश्चात् स्नान कर संध्या-तर्पण करने के बाद जब वे भगवान् को भोग लगाने के लिये कमलनाल के पास पहुँचे, तब वहाँ एक भी कमलनाल न थी| कमलनालों को किसने चुराया, यह प्रश्न था| सभी ऋषियों ने अपनी-अपनी निष्कलंकता के लिये शपथें खायीं| ये सभी शपथें धर्म के गम्भीर रहस्यों को प्रकट करने वाली थीं| जब शुनःसख की बारी आयी, तब उसने शपथ में कहा-‘जिसने कमलनाल की चोरी की हो वह दुर्बुद्धि ब्रम्हालोक को जाय|’ ऋषियों ने ताड़ लिया की इसी ने चोरी की है| तब ऋषियों ने कहा-‘तुमने चोरी की है|’ शुनःसख ने इसे स्वीकार कर लिया| उसने कहा कि ‘आपके मुख से धर्म के तत्त्वों को सुनने के लिये ही मैंने मृणालों की चोरी की है| मैं इन्द्र हूँ और आपलोगों को विमान पर बैठाकर स्वर्ग ले चलने के लिये आया हूँ| आप लोगों ने लोभ पर विजय पाने के कारण अक्षय-लोक पर भी विजय पा ली है|’ इन्द्र ने बड़े सम्मान के साथ ऋषियों को विमान पर बैठाया और अक्षय लोक में पहुँचा दिया|