पराया हक

दूसरों का हक हमारे पास न आये-इस विषय में मनुष्य को खूब सावधान रहना है| अपनी खरी कमाई का अन्न खाओगे तो अन्तःकरण निर्मल होगा और अगर चोरी का ठगी-धोखेबाजी का, अन्याय का अन्न खाओगे तो अन्तःकरण महान अशुद्ध हो जायगा|  

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आज कल टैक्स बहुत बढ़ जाने से लोग व्यापार आदि में चोरी-छिपाव करते हैं| जैसे-जैसे वकील सिखाता है, वैसा-वैसा करके वे धन बचाने की चेष्टा करते हैं|

वे विचार ही नहीं करते कि इस प्रकार धन बचाने से अन्तःकरण कितना मैला हो जायगा! एक संत कहा करते थे कि शुद्ध कमाई के धन से बहुत पवित्रता आती है| उनके पास एक राजा आया करते थे| एक बार राजा ने उनसे पूछा कि ‘महाराज, आपके यहाँ बहुत-से लोग आया करते हैं और आप भी कई लोगों के घरों में भिक्षा के लिये जाया करते हैं| ऐसा कोई घर आपकी दृष्टि में है, जिसका अन्न शुद्ध कमाई का हो?’ अगर ऐसा घर आपको दीखता है तो बतायें|’ संत ने कहा कि ‘अमुक स्थान पर एक बूढ़ी माई रहती है, उसके घर का अन्न शुद्ध है| वह ऊन को कातकर उससे अपनी जीविका चलाती है| उसके पास धन नही है, साधारण घास-फूस की कुटिया है; परन्तु वह पराया हक नहीं लेती, इस कारण उसका अन्न शुद्ध है|’ ऐसा सुनकर राजा के मन में आया कि उसके घर की रोटी मिल जाय तो बड़ा अच्छा है! राजा स्वयं एक भिखारी बनकर उससे घर पहुँचा और बोला-‘माताजी! कुछ भिक्षा मिल जाय|’ वह बूढ़ी माई भीतर से रोटी लायी और बोली-‘बेटा! यह रोटी ले लो|’ तब राजा ने पूछा-‘माताजी, एक बात बताओ कि यह रोटी शुद्ध है न? इसमें पराया हक तो नहीं है?’ तो वह बोली-‘देख बेटा, बात यह है की यह पूरी शुद्ध नहीं है, इसमें थोड़ा पराया हक आ गया! एक दिन रात में बारात जा रही थी| बारात में जो गैस-बत्तियाँ थीं, उनके प्रकाश में मैंने ऊन ठीक की थी-इतना इसमें पराया हक आ गया है| इसके सिवाय मेरी कमाई में कोई कसर नहीं है|’ राजा ने बड़ा आश्चर्य किया कि इतनी-सी कमी का भी इतना खयाल है! दूसरे के उस प्रकाश में हमारा क्या अधिकार है कि उसमें हम अपनी ऊन ठीक करें?