परम भिक्षा

संध्या का समय था| सूर्य अस्त हो चुका था| ब्राह्मण कुमारों के वेश में पांडव द्रौपदी को साथ लिए हुए अपनी मां के पास गए| कुंती कुम्हार के घर में, कमरे का दरवाजा बंद करके भीतर बैठी हुई थी|

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युधिष्ठिर ने कमरे में द्वार पर खड़े होकर कहा, “मां, दरवाजा खोलो| आज हम तुम्हारे लिए परम भिक्षा लाए हैं|” कुंती ने बिना द्वार खोले ही भीतर से उत्तर दिया, “पांचों भाई परम भिक्षा को बांटकर खा लो|” कुंती ने अपने कथन को समाप्त करते हुए कमरे का द्वार खोल दिया| उसके पांचों पुत्र द्रौपदी के साथ द्वार पर खड़े थे| कुंती विस्मित दृष्टि से द्रौपदी और अपने पुत्रों की ओर देखने लगी|

तभी युधिष्ठिर बोल उठे, “मां, यह द्रुपद की पुत्री द्रौपदी है| अर्जुन ने मत्स्य-वेध करके इस प्राप्त किया है| यह तुम्हारी बहू है, पांडव वंश की राजलक्ष्मी है|”

कुंती ने द्रौपदी को आशीर्वाद देते हुए कहा, “मैंने तो भिक्षान्न समझ कहा था कि पांचों भाई आपस में बांटकर खा लो| यह तो लक्ष्मी है, शक्ति है|

युधिष्ठिर बोल उठे, “तुमने चाहे जो भी समझकर कहा हो, पर अब तो तुम्हारे मुख से जो निकल गया है, वही होगा| मां का स्थान ईश्वर के समान होता है|” कुंती विस्मय-भरे स्वर में बोली, “अरे तुम क्या कह रहे हो युधिष्ठिर? एक नारी पांच मनुष्यों की पत्नी कैसे हो सकती है|”

उसी समय वहां वेदव्यास पहुंचे| उन्होंने कहा, “कुंती, तुम चिंता मत करो| द्रौपदी ने स्वयं भगवान शंकर को प्रसन्न करके, उनसे पांच पतियों का वरदान मांगा था| उसकी इच्छा पूर्ण हुई| वह स्त्री पत्नी-धर्म का पालन तो अर्जुन के साथ ही करेगी, पर मन से शेष चारों भाइयों को भी अपना पति समझेगी|” वेदव्यास जी ने अपने कथन को समाप्त ही किया था कि, द्रुपद भी वहां आ पहुंचे| उन्हें किसी तरह पता चल गया था कि मत्स्य को भेदने वाला ब्राह्मण कुमार ब्राह्मण नहीं, अर्जुन है| वे उसी समय से पांडवों और कुंती की खोज कर रहे थे| आखिर वे कुम्हार के द्वार पर उस जगह जा पहुंचे, जहां वेदव्यास जी, पाण्डव, कुंती और द्रौपदी सभी जन एकत्रित थे| वेदव्यास जी के मुख से द्रुपद सबकुछ सुनकर हर्ष के सागर में डूब गए| फिर तो शंख बजने लगे, शहनाइयां बजने लगीं| पांडवों का द्रौपदी के साथ विवाह हो गया| उस विवाह को यदि ऐतिहासिक विवाह कहा जाए, तो आश्चर्य नहीं मानना चाहिए, क्योंकि विवाह के पश्चात जो घटनाएं घटीं वे ऐतिहासिक ही नहीं, परम ऐतिहासिक थीं|