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पाँच पितृभक्त पुत्र

पाँच पितृभक्त पुत्र

पुत्र के लिये माता-पिता की भक्ति ही एकमात्र धर्म है| इसके अतिरिक्त पुत्र के लिये और कोई धर्म नहीं है| एक वर्ष, एक मास, एक पक्ष, एक सप्ताह अथवा एक दिन जो भी पुत्र माता-पिता की भक्ति करता है, वह वैकुण्ठलोक की प्राप्त करता है|

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(1) पितृभक्त यज्ञशर्मा 

द्वारका में शिवशर्मा नामक एक ब्राह्मण रहते थे| वे योगशास्त्र के पारंगत विद्वान थे| सभी सिद्धियाँ उन्हें प्राप्त थीं| उनके पाँच पुत्र थे-यज्ञशर्मा, वेदशर्मा, धर्मशर्मा, विष्णुशर्मा, और सोमशर्मा| ये पाँचों ही पुत्र के परम भक्त और तपस्वी थे|

एक बार शिवशर्मा ने अपने पुत्रों के पितृप्रेम की परीक्षा लेनी चाही| वे सर्वसमर्थ तो थे ही, उन्होंने माया का प्रयोग किया| पाँचों पुत्रों के सामने उनकी माता दारुण ज्वर से पीड़ित हो गयीं| कोई उपचार काम न आया और देखते-देखते वे मर गयीं| विवश होकर पुत्रों ने इसकी सूचना पिता को दी और अगले कर्तव्य का निर्देश चाहा|

पिता तो परिक्षण पर तुले ही थे| आज्ञा दी-‘यज्ञशर्मा! तुम तीक्ष्ण शस्त्र से अपनी माता को खण्ड-खण्ड काटकर इधर-उधर फेंक दो|’ आज्ञाकारी पुत्र ने पिता की आज्ञा का अक्षरशः पालन किया|

(2) पितृभक्त वेदशर्मा 

इसके पश्चात् पिता ने वेदशर्मा से कहा-‘पुत्र! मैंने एक स्त्री को देखा है| उसके बिना मैं रह नही सकता| तुम मेरे लिये उसे प्रसन्न कर लो और बुला लाओ|’ वेदशर्मा पिता की आज्ञा शिरोधार्य कर उस नारी के पास पहुँचे और उसके बिना अपने पिता की विह्वलता सुनायी|

स्त्री ने वेदशर्मा की प्रार्थना को ठुकराते हुए कहा-‘तुम्हारा पिता बूढ़ा और रोगी है| उसके मुख से कफ निकलता रहता है| उससे मै विवाह नही करना चाहती| मैं तो तुम्हें चाहती हूँ| तुम रूपवान और नवयौवन से सम्पन्न हो| उसे बूढ़े के पीछे तुम क्यों व्याकुल हो| तुम जो चाहोगे, मैं सदा दिया करुँगी|’

वेदशर्मा ऐसी असंगत बात सुनकर आश्चर्यचकित होकर बोला-‘देवी! तुम मेरी माता के सदृश्य हो| अपने पुत्र से ऐसी अधार्मिक बात तुम्हें नहीं कहनी चाहिये| मैंने कोई अपराध भी तो नहीं किया है कि तुम ऐसी असंगत बात सुनाकर मुझे व्यथित कर रही हो| मैं हाथ जोड़कर प्रार्थना करता हूँ, तुम मेरे पिता को वरण कर लो| तुम जो चाहोगी, मैं वही दूँगा|’

स्त्री ने कहा-‘यदि तुम देना चाहते हो तो तीनों देवों और इन्द्र के साथ सभी देवों को यहाँ बुला दो| मैं उनका दर्शन करना चाहती हूँ|’

वेदशर्मा ने अपनी तपस्या का उपयोग किया| सभी देव वहाँ आ विराजे| सारा वातावरण पवित्र हो गया| देवताओं ने वेदशर्मा को आदर दिया और वरदान माँगने को कहा| वेदशर्मा ने पिता के चरणों में निर्मल प्रेम माँगा वरदान देकर देवता अन्तर्हित हो गये| इसके पश्चात् भी वह स्त्री वेदशर्मा के पिता को वरण करने के लिये तैयार नहीं हुई और बोली-‘इस घटना से तो केवल तुम्हारी तपस्या के बल का पता चला| उन देवताओं से मेरा कोई लेना-देना नहीं है| यदि तुम अपने पिता के लिये मुझे कुछ देना चाहते हो तो अपना सिर स्वयं काटकर मुझे दे दो|’

वेदशर्मा को प्रसन्नता हुई कि पिता की आज्ञा के पालन में वह सफल हुआ| झट उसने तलवार से अपना सिर काटकर उसे दे दिया| स्त्री खून से लथपथ वेदशर्मा के सिर को काटकर लेकर उसके पिता के पास पहुँची| उसके भाई वहीं थे| इस दृश्य को देखकर उन्हें रोमांच हो आया| उनके मुख से निकल पड़ा-‘हम लोगों में वेदशर्मा ही धन्य हैं, जिसने पिता के लिये अपने शरीर का सदुपयोग किया|’

(3) पितृभक्ति धर्मशर्मा की 

पिता ने वेदशर्मा के उस कटे सिर को धर्मशर्मा को देते हुए कहा-‘बेटा! अपने भाई के इस सिर को लो और इसे जीवित कर दो|’ धर्मशर्मा ने धर्मराज का आह्वान किया| धर्मराज प्रकट होकर बोले-‘वत्स! तुमने मुझे क्यों बुलाया है? तुम्हें क्या चाहिये?’ धर्मशर्मा ने कहा-‘यदि मेरी पितृभक्ति सही है तो मेरा यह भाई जीवित हो जाय|’ धर्मराज ने तुरंत उसके भाई को जीवित कर दिया| फिर धर्मशर्मा को पितृभक्ति का वरदान देकर वे अन्तर्हित हो गये| वेदशर्मा ने जब आँखे खोलीं, तब वहाँ न तो वह स्त्री थी और न उसके प्रिय पिता| उसने पूछकर सारी बातें जान लीं| फिर दोनों भाई पिता से आ मिले|

(4) विष्णुशर्मा की पितृभक्ति 

इसके बाद भी उनके पिता चिन्तित ही दिखायी पड़े| उन्होंने विष्णुशर्मा को सम्बोधित किया-‘बेटा! मैं रुग्ण हूँ| अमृत के बिना मैं स्वस्थ न हो सकूँगा| तुम देवलोक से मेरे लिये अमृत से भरा कलश ले जाओ|’

विष्णुशर्मा ने योग की शक्ति का आश्रय लिया| वे तीव्रगति से स्वर्गलोक की ओर बढ़े| अमृत का कलश देना देवता क्यों चाहेंगे! इन्द्र ने विष्णुशर्मा को रास्ते में ही प्रलोभित करने के लिये मेनका को भेजा| मेनका ने अपनी माया अच्छी तरह से फैलायी| उसकी सुन्दरता और गीत की मधुरता से कण-कण आप्लावित हो उठा| वह झूले में झूल रही थी| झूलेने उसमें निखार  ला दिया था| विष्णुशर्मा ने यह सब देखा और सुना, परन्तु उन पर इनका कोई प्रभाव नहीं पड़ा| वे सब को छोड़ते हुए आगे बढ़ रहे थे| अब मेनका को इनके पीछे लगाना पड़ा| उसने दीनता भरे शब्दों में प्रणय-याचना की, किंतु विष्णुशर्मा-जैसे पितृभक्त पर उसकी कोई माया न चली| इसके पश्चात् इन्द्र ने अनेक विघ्न प्रकट किये| इनकी चेष्टा से विष्णुशर्मा को क्रोध हो आया| वे इन्द्र को पदच्युत कर दूसरे इन्द्र को उनके पद पर बैठाने की बात सोचने लगे| तब इन्द्र हाथ में अमृत-कलश लेकर प्रकट हुए और उन्होंने सम्मान के साथ उसे विष्णुशर्मा को दे दिया|

अमृत-कलश लेकर विष्णुशर्मा घर लौटे और उसे पिता को दे दिया| पिता बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने पुत्रों से कहा-‘बच्चों! तुम्हारी सेवा से मैं प्रसन्न हूँ| तुम सब वरदान माँगों|’ पुत्रों ने अपनी माता को जीवित देखना चाहा| पिता ने यह वरदान उन्हें दे दिया| थोड़ी ही देर बाद ममता और स्नेह लुटाती हुई उनकी माता वहाँ आ पहुँचीं| उन्होंने हर्ष में भरकर कहा-‘तुम सभी पुत्रों के कारण मेरा भाग्य चमक उठा है| न जाने मैंने कौन-से पुण्य किये थे कि मुझे तुम्हारे-जैसे पुत्र मिले|’

माता को हर्षित देख सभी पुत्र आनन्द से विह्वल हो गये| उन्होंने कहा-‘हमारा कोई बहुत बड़ा पुण्य है, जिससे हम लोगों ने तुम्हें माता के रूप में पाया|’

पिता भी अपने प्रिय पुत्रों पर अत्यन्त प्रसन्न होकर बोले-‘पुत्रो! तुम लोग और वरदान माँगों| मेरे संतुष्ट होने पर तुम्हें अक्षयलोक भी प्राप्त हो सकता है|’ पुत्रों ने वरदान में अक्षयलोक ही माँगा| पिता के ‘तथास्तु’ कहते ही दीप्तिशाली विमान उतर आया| भगवान् ने माता-पिता सहित सभी पुत्रों को विष्णुलोक चलने के लिये कहा, परन्तु शिवशर्मा ने कहा-‘मैं, मेरी स्त्री और मेरा छोटा पुत्र उस लोक में नहीं नहीं जाना चाहते, पीछे आयेंगे| आप चार पुत्रों को ही वह दिव्य धाम दें|’

भगवान् विष्णु ने उन चारों भाग्यवान पुत्रों को ही साथ चलने के लिये कहा| उन चारों का स्वरूप विष्णु का-सा हो गया| वे वैकुण्ठलोक पधार गये|

(5) पितृभक्त सोमशर्मा 

चारों पुत्रों को विष्णुलोक प्रदान कर शिवशर्मा संतुष्ट थे| अब उन्हें अपने छोटे पुत्र सोमशर्मा के सत्त्व को परखना था|एक दिन उन्होंने सोमशर्मा से कहा-‘बेटा! तुम हम में स्नेह तो रखते ही हो, इस बार एक कठिन कार्य दे रहा हूँ| अमृत से भरा हुआ यह घड़ा हम तुझे सौंपकर तीर्थयात्रा करने जा रहे हैं| इस घड़े सावधानी से रक्षा करना|’

सोमशर्मा पिता की कोई आज्ञा मिलने पर बहुत हर्ष होता था| इस बार भी उन्हें बहुत हर्ष हुआ| उन्होंने माता-पिता को इस ओर से निश्चिन्त बनाकर तीर्थयात्रा के लिये भेज दिया| इसके बाद वे बड़ी तत्परता से अमृतकुम्भ की रखवाली करने लगे|

दस वर्ष के पश्चात् माता-पिता लौटे| उन्होंने माया से अपने शरीर में कोढ़ पैदा कर लिया था| वे मांस के पिण्ड की तरह त्याज्य दीख रहे थे| यह देखकर सोमशर्मा को बड़ी व्यथा हुई, साथ-साथ विस्मय भी हुआ| उन्होंने पूछा-‘आप दोनों तो विष्णुतुल्य हैं| आपको यह अधम रोग कैसे हो गया?’ पिता ने कहा-‘पुत्र! अदृष्ट का भोग तो भोगना ही पड़ता है| किसी जन्म का कोई पाप उदित हुआ होगा|’

सोमशर्मा दोनों का कष्ट देखकर बड़ा कष्ट होता| वे जी-जान देकर सेवा में जुट गये| वे उनका मल-मूत्र साफ करते, मवाद धोते, मलहम-पट्टी करते, समय से खिलाते, समय से सुलाते, सब समय सेवा में लगे रहते, परन्तु पिता अग्निशर्मा कठोर बने रहते| वे सदा सोमशर्मा को फटकारा झलकता था| पिता की ओर से डाट-फटकार और मार की झड़ी लगी रहती, परंतु सोमशर्मा की बोली सदा मधुर निकलती और व्यवहार में आदर झलकता था|

समर्थ पिता ने एक दिन सोचा-‘मैंने तो बहुत ही कठोरता बरती है, किंतु सोमशर्मा में कभी प्रेम की कमी नहीं आयी| पितृप्रेम की परीक्षा में तो यह उत्तीर्ण है, अब कुछ इसकी तपस्या की परीक्षा कर लूँ|’

समर्थ शिवशर्मा ने पुत्र पर माया का प्रयोग किया-सुरक्षित अमृत के घड़े से अमृत का अपहरण कर लिया| इसके बाद सोमशर्मा से बोले-बेटा! अमृत से भरा हुआ कुम्भ मैनें सुरक्षा के लिये तुम्हें सौंपा था, उसे लाकर दो| उसे पीकर हम स्वस्थ हो जायँगे| सोमशर्मा ने अमृतकुम्भ को खाली पाया| उसमें अमृत की एक बूँद भी न थी, उन्हें चिंता हुई कि इस सुरक्षित कुम्भ से अमृत कौन ले गया! विवश होकर उन्होंने अपनी तपस्या की शरण ली| आँखे बंद करके बोले-‘यदि मैंने निश्छल तपस्या की है और अन्य धर्मों का भी आदर से पालन किया है तो अमृत का यह घड़ा अमृत से लबालब भरा हो हुआ था| उन्हें संतोष हुआ कि अब इससे पिता-माता स्वस्थ हो जायँगे| उन्होंने वह घड़ा पिता जी के सामने रखकर उनके चरणों में प्रणिपात किया|

बिना अमृत पिये ही माता-पिता भले-चंगे हो गये| दोनों के शरीर पहले-जैसे दीप्तिमान हो उठे| वे वस्तुतः रोगी तो थे नहीं| इधर सोमशर्मा माता-पिता को स्वस्थ देख प्रसन्नता से भर गये, उधर पिता ने सोमशर्मा को बहुत-बहुत आशीर्वाद दिया| इतने में उनकी इच्छा से विष्णुलोक से एक विमान उतरा और उस पर सोमशर्मा सहित माता-पिता बैठकर परम धाम को चले गये| यही सोमशर्मा अगले जन्म में प्रह्वाद हुए|