पास का भी नहीं दिखता
एक बार की बात है| एक माली ने एक बगीचे में गुलाब के फूल लगाए| फूल देखकर वहाँ एक बुलबुल आने लगी, वो उन्हें नोच लेती थी, माली ने बार-बार उसे भगाया, परंतु वह बार-बार आकर फूल नोच जाती थी|
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अंत में माली ने एक जाल लगा दिया| बुलबुल उसमें फँस गई| उसे माली ने पिंजरे में बाँधकर लटका दिया| बुलबुल अपनी कहानी कहने लगी- एक जंगल में पाँच आदमी जा रहे थे कि एक तीतर चिल्ला उठा| इस पर वे मुसाफिर उस तीतर की बात की व्याख्या करने लगे| मुसाफिरों में से एक पहलवान था, बोला- “तीतर कहता है- दण्ड, कुश्ती और कसरत|” दूसरा यात्री मुसलमान था, बोला- “सुभान तेरी कुदरत|” तीसरा मुसाफिर एक दुकानदार था| वह बोला- “तीतर कहता है सोंठ, अजवायन, अदरक|” चौथा यात्री एक वैरागी साधु था, बोला- “तीतर कहता है- सीताराम और दशरथ|” बुलबुल की कहानी माली को जँच गई| उसने समझा बुलबुल कह रही है- मैं तो अबोध हूँ, मुझे माफ करो, मैं गुलाब को नहीं छोडूंगी परंतु तुम तो इंसान हो, मेरी आजादी को क्यों रोकते हो?
माली ने बुलबुल की कहानी और सीख सुनाकर उसे पिंजरे से छोड़ दिया| बुलबुल उड़कर पेड़ पर जा बैठी और बोली- “भगवान् दयालु है, उसी प्रकार तू भी उदार है जिस पेड़ की शाखा पर मैं बैठी हूँ, उसे खोद, वहाँ अशर्फियों का घड़ा दबा है|” जब माली ने वहाँ खोदा तो अशर्फियों का घड़ा निकला| माली उन्हें देखकर अचंभे से शोकाकुल हो उठा| बोला- “अरी बुलबुल! तुमने निकट के जाल को तो देखा नहीं और भूमि के अंदर दबी हुई वस्तु देख ली?” बुलबुल बोली- “अरे माली, इसमें अचंभे की बात क्या- जब मृत्यु आती है, तब सामने पड़ी वस्तु भी नहीं दिखाई देती |”