नृपश्रेष्ठ वरेण्यपर भगवान् गजानन की कृपा
प्राचीन काल में माहिष्मति नाम की एक श्रेष्ठ नगरी थी, जो नृपश्रेष्ठ वरेण्य की राजधानी थी| महाराज वरेण्य परम धर्म परायण थे| ऐसा लगता था कि मानो मूर्तिमान धर्म ने उनके रुप में अवतार ग्रहण किया हो| वे बड़ी तत्परता से प्रजा का पालन करते थे| उन्हीं की भांति उनकी पत्नी महारानी पुष्पिका भी परम गुणवती, पतिव्रता एवं सदाचारिणी थी|
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पूर्वजन्म ये दंपति भगवान् गणेश के परम भक्त थे| दोनों ने बारह वर्ष तक गणपति की आराधना करके उनका परम अनुग्रह प्राप्त किया था| भगवान् गणेश ने उन्हें अनुग्रहपूर्वक वरदान दिया था कि ‘तुम लोगों के भावी जन्म में मैं तुम्हारा पुत्र बनूँगा|’
इन्द्रप्रभृति देवगण दैत्य सिंदूरा सुर अत्याचार से भया क्रांत थे, अतः वे सुरगुरु बृहस्पति की आज्ञा से भगवान् गणेश के पास गए और उनसे प्रार्थना करते हुए बोले- ‘जगत् का संहार करने वाले सिंदूरा सुर का निर्माण किसने किया है? आप-जैसे स्वामी के जागरुक रहते हुए उस असुर ने संपूर्ण विश्व को संकट में डाल दिया है| इस दशा में हम आपको छोड़कर और किसकी शरण में जाएँ? कौन हम सबका पालन करेगा? अतः आप ही भगवान् शिव के घर में अवतीर्ण होकर इस दृष्ट बुद्धि असुर का संहार कीजिए|’
देवताओं एवं ऋषियों के इस प्रकार स्तुति एवं आराधना करने से कृपालु भगवान् गणेश प्रसन्न हो गए और उन्होंने सबको अभय करने का आश्वासन दिया|
भगवती जगदंबा पार्वती के गर्भ से भगवान् गणेश ने चतुर्बाहु-रक्तवर्ण-गजानन के रुप में इस पृथ्वी पर अवतार लिया| करुणानिधान गजानन नृपश्रेष्ठ वरेण्य को दिए वचन भूले न थे| उनकी योगमाया-शक्ति ने सब योजना पूर्ववत् बना रखी थी| भगवान् गजानन के प्राकट्य के समय ही महारानी पुष्पिका ने एक बालक को जन्म दिया था| प्रसव के समय वह मूर्च्छित हो गई और उस बालक को एक क्रूर राक्षसी उठा ले गई| ठीक उसी समय शिवगण नंदी ने भगवान् बाल गजानन को मूर्च्छिता रानी पुष्पिका के पास पहुँचा दिया| भगवान् गजानन के माता-पिता गौरी-शंकर को अपने पुत्र के वरदान देने की जानकारी थी ही, अतः उसका सुरक्षित रुप से रानी पुष्पिका के पास पहुँचना उनके लिए आनंद का विषय ही था|
मूर्च्छा टूटने पर रानी पुष्पिका ने अपने पास अदभुत बालक को देखा| उस गजमुख-चतुर्बाहु-रक्तवर्ण बालक के सभी चिन्हों ने माता को चकित ही नही, भयभीत भी कर दिया| भयवश रानी रोने लगी| रानी का रुदन सुनते ही परिचारिकाएँ आदि एकत्र हो गयी| भगवान् की माया शक्ति ने वहाँ एकत्रित सभी लोगों पर माया का पर्दा डाल दिया, जिससे परात्पर परब्रह्मा भगवान् गजानन को कोई पहचान न सका| सभी ने कहा- ‘ऐसा बालक होना बड़ा अशुभ है|’ राजा वरेण्य के पास भी तुरंत यह सूचना गई और वरेण्य पर भी माया का पर्दा पड़ गया| राजा ने अशुभ की आशंका से उस बालक को निर्जन वन में फेंकवा दिया| वहाँ भगवान् गजानन की कृपा शक्ति ने महर्षि पराशर पर कृपा की, जिसके प्रभाव से उन्होंने निर्जन वन में पड़े परात्पर परब्रह्मा बालक गजानन को उनके शुभ चिन्हों से पहचान लिया| अपने ऊपर विलक्षण भगवत कृपा का अनुभव करते हुए महर्षि बालक को अपने आश्रम में ले आए और उसे अपनी पत्नी वत्सला को सौंप दिया| महर्षि पत्नी वत्सला के आनंद का पार न था| वह मातृ-स्नेह से शिशु के पालन में लग गई| साक्षात् भगवान् के निवास से महर्षि के आश्रम की शोभा निराली हो गई| सभी वृक्ष नवपल्लव, फल, पुष्पादि से सुशोभित हो गए|
बालरुप भगवान् गणेश ने अनेक प्रकार की बाल-लीलाएँ करते हुए नवें वर्ष में प्रवेश किया| परम अनुग्रह मूर्ति भगवान् गजानन देवताओं की प्रार्थना को भूले न थे| उन्हें दैत्यराज सिंदूरा सुर का उद्धार करके देवताओं एवं ऋषि-मुनियों को भय-मुक्त करना था| अतः उन्होंने अपना शौर्यरूप प्रकट करके सिंदूरवाड़ में जाकर दैत्यराज सिंदूर का वध किया, जिससे इंद्रादि देवताओं के हर्ष की सीमा न रही| भगवान् गजानन की इस अदभुत कृपा का स्मरण कर स्वाभाविक ही उनके मुख से ये वचन निकल पड़े-
‘भगवान्! आप नाना प्रकार के अवतार लेकर विशेष रुप से जगत् का पालन करते है एवं दुष्टों का विनाश करके भक्तों की कामनाओं को तत्काल पूर्ण करते है|’
राजा वरेण्य से भी अपने बालक गजानन की लीलाएँ छिपी न रही| अपने बालक का महर्षि पराशर द्वारा पालन-पोषण एवं सिंदूर-उद्धार आदि सभी कृपा मयी लीलाएँ सुनकर राजा वरेण्य हर्ष एवं पश्चाताप् के सागर में गोते लगा रहे थे| अंत में भगवान् गजानन की कृपा से माया का पर्दा हटते ही उन्होंने बालक को पहचान लिया| फिर तो वे शीघ्रतापूर्वक भगवान् गजानन के पास पहुँचकर अत्यंत दीनभाव से प्रार्थना करने लगे- ‘प्रभु! मैं अज्ञानी आपकी कृपा को समझ न सका| भला, मेरे-जैसा अज्ञानी पुरुष आपके स्वरुप को कैसे पहचान पाता| कृपानिधान! आप मुझे क्षमा करे| माया से मोहित होकर मैंने महान अनर्थ कर डाला|’
करुणामूर्ति गजानन पिता वरेण्य की प्रार्थना सुनकर अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने राजा को कृपापूर्वक अपने पूर्वजन्म के वरदान का स्मरण कराया|
भगवान् गजानन पिता वरेण्य से अपने स्वधाम-यात्रा की आज्ञा माँगी| स्वधाम-गमन की बात सुनकर राजा वरेण्य व्याकुल हो उठे अश्रुपूर्ण नेत्र एवं अत्यंत दीनता से प्रार्थना करते हुए बोले- ‘कृपामय! मेरा अज्ञान दूरकर मुझे मुक्ति का मार्ग प्रदान करे|’
राजा वरेण्य की दीनता से प्रसन्न होकर भगवान् गजानन ने उन्हें ज्ञानोपदेश प्रदान किया| यही अमृतोपदेश गणेश-गीता के नाम से विख्यात है|