Homeशिक्षाप्रद कथाएँनारदजी का कामविजय-विषयक अभिमान भंग

नारदजी का कामविजय-विषयक अभिमान भंग

हिमालय पर्वत पर एक बड़ी पवित्र गुफा थी, जिसके समीप ही गंगा जी बह रहीं थीं| वहाँ का दृश्य बड़ा मनोरम तथा पवित्र था| देवर्षि नारद एक बार घूमते-घामते वहाँ पहुँचे तो आश्रम की पवित्रता देखकर उन्होंने वहीं तप करने की ठानी|

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फिर तो उन्होंने भगवान् का स्मरण किया, श्वास रोका| मन निर्मल तो था ही, सहज ही समाधि लग गयी| सौ सहस्त्र अयुत वर्ष बीत गये, पर नारद जी की समाधि भंग न हुई| उनकी गति देख इन्द्र को बड़ा भय हुआ| उन्होंने सोचा कि देवर्षि मेरा पद लेना चाहते हैं| अतएव उन्होंने कामदेव को आदरपूर्वक बुलाकर बड़ा सम्मान किया और पूरी सामग्री के साथ नारद जी के पास तपोभंग के लिये तत्काल भेज दिया|

वहाँ जाकर कामदेव ने अपनी सारी कलाओं का प्रयोग किया, पर मुनि पर उसकी एक न चली| कारण कि वह यही स्थान था, जहाँ भगवान् शंकर ने काम को जलाया था| रति के रोने-पीटने पर उन्होंने कहा था कि कुछ समय बीतने पर कामदेव जीवित तो हो जायगा और उसे पुनर्देह भी प्राप्त हो जायगी, पर इस स्थान पर यहाँ से जितनी दूर तक की पृथ्वी दिखलायी पड़ती हैं, वहाँ तक काम के बाणों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता| विवश होकर कामदेव अपने सहायकों के साथ अमरावती लौट गया और नारद जी की सुशीलता का वर्णन करने लगा| उसने कहा-‘न तो नारदजी को काम ही है और न क्रोध ही, क्योंकि उन्होंने मुझे पास बुलाकर सांत्वना दी और मधुर वचनों से मेरा आतिथ्य किया|’ यह सुनकर सभी दंग रह गये|

इधर नारद जी की तपस्या पूरी हो गयी| वे वहाँ से सीधे चलकर भगवान् शंकर के पास पहुँचे और अपनी कथा सुनायी| शंकर जी ने उन्हें सिखाया-‘नारदजी! इसे अब आप कहीं भी न कहियेगा| विशेषकर विष्णु भगवान् पूछें भी तो आप इसे छिपा लीजियेगा|’ पर नारदजी को यह सब अच्छा नहीं लगा, वे विणा लेकर वैकुण्ठ को चल दिये और वहाँ जाकर भी अपना काम-विजय का माहात्म्य गाने लगे| भगवान् ने सोचा-‘इनके हृदय में सकल शोकदायक अहंकार का मूल अंकुर उत्पन्न हो रहा है, सो इसे झट उखाड़ डालना चाहिये’ और वे बोले-‘महाराज! आप ज्ञान-वैराग्य के मूर्त-रूप ठहरे, भला आपको कैसे सम्भव है|’ नारद जी ने अभिमान से ही कहा-‘प्रभो! यह आपकी कृपामात्र है|’

विष्णुलोक से जब नारद जी भूलोक पर आये, तब देखते क्या हैं कि एक बहुत बड़ा विस्तृत नगर जगमगा रहा है| यह नगर वैकुण्ठ से भी अधिक रम्य तथा मनोहर है| भगवान् की माया की बात वे न समझ सके| उन्होंने सोचा-‘यह कहाँ से आ गया| मैं तो बराबर संसार का पर्यटन करता रहता हूँ| आजतक तो यह नगर दीखा नहीं था|’ इधर-उधर लोगों से पूछने पर पता चला कि इस नगर का राजा शीलानिधि अपनी लड़की ‘श्रीमती’ का स्वयंवर कर रहा है| इसी की तैयारी में नगर सजाया गया है| देश-विदेश के राजालोग पधार रहे हैं| नारदजी कौतुकी तो स्वभाव से ही ठहरे| तुरन्त पहुँच गये राजा के यहाँ| राजा ने अपनी लड़की को बुलाकर नारदजी को प्रणाम कराया| तत्पश्चात उनसे उस लड़की का लक्षण पूछा| नारदजी तो उसके लक्षणों को देखकर चकित रह गये| उसके लक्षण सभी विलक्षण थे-जो इसे विवाह ले, वह अजर-अमर हो जाय, संग्राम क्षेत्र में वह सर्वथा अजेय हो| सम्पूर्ण चराकर विश्व उसकी सेवा करे| वह सर्वथा अजेय हो| सम्पूर्ण चराचर विश्व उसकी सेवा करे| वह सर्वथा सर्वश्रेष्ठ हो जाय| नारदजी ने ऊपर से राजा को कुछ कहकर छुट्टी ली और चले इस यत्न में कि कैसे इसे पाया जाय|

सोचते-विचारते उन्हें एक उपाय सुझा| वे झट भगवान् विष्णु की प्रार्थना करने लगे| प्रभु प्रकट हुए| नारदजी बोले-‘नाथ! मेरा हित करो| अपना रूप मुझे दे दो| आपकी कृपा के बिना कोई उपाय उसे प्राप्त करने का नहीं है|’ प्रभु ने कहा-‘वैद्य जिस प्रकार मैं तुम्हारा हित अवश्य करूँगा|’ यद्यपि भगवान् की ये बातें बड़ी स्पष्ट थीं, नारदजी इस समय मोह तथा काम से अंधे-से हो रहे थे, इसलिये कुछ न समझकर, भगवान् ने मुझे अपना रूप दे दिया’-यह सोचकर तत्काल स्वयंवर-सभा में जा विराजे| इधर भगवान् ने उनका मुँह तो बंदर बना दिया, पर शेष अंग अपने-से बना दिये थे|

अब राजकुमारी जयमाल लेकर स्वयंवर-सभा में आयी| जब नारदजी पर उसकी दृष्टि पड़ी, तब वह बंदर का मुँह देखकर जल-भुन-सी गयी| भगवान् विष्णु भी राजा के रूप में वहाँ बैठे थे| श्रीमती ने उनके गले में जयमाल डाल दी और वे उसे लेकर चले गये| इधर नारदजी बड़े दुःखी और बेचैन हुए| उनकी दशा को दो हरगण अच्छी प्रकार जानते थे| उन्होंने कहा-‘जरा अपना मुँह आइने में देख लीजिये|’ नारदजी को दर्पण तो नहीं मिला, पानी में अपना मुँह देखा तो निराला बंदर| अब दौड़े विष्णु लोक को| बीच में ही श्रीमती के साथ भगवान् मिल गये| नारद जी के क्रोध का अब क्या पूछना|झल्ला पड़े-‘ओहो! मैं तो जानता था कि तुम भले व्यक्ति हो, पर वास्तव में तुम इसके सर्वथा विपरीत निकलें| समुद्र-मन्थन के अवसर पर असुरों को तुमने मद्य पिलाकर अचेत कर दिया और स्वयं कौस्तुभादि चार रत्न और लक्ष्मीतक को ले लिया| शंकर को बहलाकर दे दिया विष| यदि उन कृपालु ने उस समय उस हलाहल को न पी लिया होता तो तुम्हारी सारी माया नष्ट हो जाती और आज हमारे साथ यह कौतुक| अच्छा चलो, तुमने मेरी अभीष्ट कन्या छीनी, अतएव तुम भी स्त्री के विरह में मेरे-जैसे ही विकल होओगे|’

भगवान् ने अपनी माया खीँच ली| अब नारदजी देखते हैं तो न वहाँ राजकुमारी है और न लक्ष्मी ही| वे बड़ा पश्चात्ताप करने लगे और ‘त्राहि-त्राहि’ कहकर प्रभु के चरणों पर गिर पड़े| भगवान् ने उन्हें सान्त्वना दी और सौ बार शिवनाम जपने को कहकर आशीर्वाद दिया कि अब माया तुम्हारे पास न फटकेगी|