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नागपंचमी-व्रत महात्मय

नागपंचमी-व्रत महात्मय

एक बार महाराज युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण से नागपंचमी-व्रत के विषय में जिज्ञासा व्यक्त की, तब भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा- ‘युधिष्ठिर! दयिता-पंचमी नागों के आनंद को बढ़ाने वाली होती है| श्रावण शुक्ला पंचमी में नागों का महान् उत्सव होता है| उस दिन वासुकि, तक्षक, कालिक, मणिभद्रक, धृतराष्ट्र, रैवत, कर्कोटक और धनंजय- ये सभी नाग प्राणियों को अभय (दान) देते है|

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जो मनुष्य नागपंचमी के दिन नागों को दूध से स्नान कराते है, दूध पिलाते है| उनके कुल में प्राणियों को ये सदा अभयदान देते रहते है| जब नाग माता कद्रू ने नागों को शाप दे दिया, तब वे रात-दिन संतप्त हो रहे थे| जब उन्हें गाय के दूध से तृप्त किया गया तब से वे प्रसन्न होकर सुखी हो गए|’

युधिष्ठिर ने पूछा- ‘जनार्दन! माता कद्रू ने नागों को क्यों शाप दिया? उस शाप का निराकरण कैसे हुआ?’ भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा- ‘अश्वों का राजा उच्चैः श्रवा अमृत से उत्पन्न हुआ था, वह श्वेत वर्ण का था|’ उसे देखकर नाग माता कद्रू ने अपनी बहन विनता से कहा- ‘देखो, देखो अमृत से उत्पन्न यह अश्व रत्न श्वेत है, पर आज इसके सभी श्वेत बाल काले दिखाई पड़ते है| तुम देखती हो या नही?’ विनता बोली- ‘इस श्रेष्ठ घोड़े का सर्वांग श्वेत है, न काला है न लाल| कैसे तुम्हें काला दिखाई पड़ता है?’

कद्रू बोली- ‘विनता! मैं एक आँख वाली इसे काले बालों वाला देखती हूँ, परंतु तू दो आँखो वाली होकर भी नही देखती? कुछ शर्त रखो| विनता ने कहा- ‘कद्रू! यदि तुम इसके काले केश दिखा दोगी तो मैं तुम्हारी दासी हो जाऊँगी| यदि तुम काले केश नही दिखा पाओगी तो तुम मेरी दासी होगी|’ इस प्रकार शर्त (प्रण) कर वे दोनों कद्रू होकर चली गई| रात्रि मे सबके सो जाने पर कद्रू ने कुटिलता सोची| उसने अपने पुत्रों- काले नागों को बुलाकर कहा कि ‘तुम लोग उच्चैः श्रवा के बाल बनकर उससे चिपक जाओ, जिससे मैं बाजी जीत जाऊँ- विनता को दासी बना लूँ|’ तब उन नागों ने माता की कुटिलता पर उसे फटकारा कि यह महान् पाप है| हम तुम्हारा कहा नही करेंगे| तब कद्रू ने क्रुद्ध हो उन्हें शाप दे दिया- ‘जाओ, तुम्हें अग्नि जला देगी| बहुत दिनों के बाद पांडववंशी राजा जनमेजय विकराल सर्प यज्ञ करेंगे| उस यज्ञ में प्रचंड पावक तुम्हें जला देगा|’ ऐसा शाप देकर कद्रू चुप हो गई|

माता के द्वारा अभिशप्त सर्पों को कुछ सूझा ही नही| वासुकि नाग दुःख से संतप्त हो मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़ा| उसे दुःखी देख ब्रहमा जी सहसा वहाँ आ पहुँचे और सांत्वना देते हुए बोले- ‘वासुकि! शोक मत करो| मेरी बात सुनो| यायावर वंश में जरत्कारू नामक द्विज उत्पन्न हुए है| आगे चलकर वे बड़े तेजस्वी तपोनिधि होंगे| उन्हें तुम अपनी बहन विवाह दो| उससे आस्तिक नामक विख्यात पुत्र होगा| वह नागों के विनाश कारी उस नागयज्ञ को राजा को समझा-बुझाकर रोक देगा|’

ब्रहमा जी की बात सुनकर प्रसन्न वासुकि ने वैसा ही किया| नागों को इससे अभयदान मिला| वे इससे परम प्रसन्न हुए कि उनका वंशधर आस्तिक हम नागों का विनाश रोक देगा| ब्रहमा जी ने उनसे कहा- ‘आस्तिक द्वारा तुम लोगों का यह भय-निवारण (श्रावण-शुक्ल) पंचमी को होगा|’ इसीलिए युधिष्ठिर! यह पंचमी शुभादयिता कही जाती है तथा नागों को आनंद देने वाली है| इस तिथि को ब्रह्मणों को भोजन कराकर नागों की इस प्रकार पूजा-प्रार्थना करनी चाहिए- ‘भूतल पर जो नाग है, वे प्रसन्न हो| जो नाग हिमालय पर रहते है, जो आकाश में है, जो देवलोक में है, जो नदियों-सरोवरों में है और जो बावली-तालाबों में है, उन सबको नमस्कार है|’ ऐसा कहकर नागों और विप्रों की यथायोग्य पूजा कर उनके विसर्जन करे| तत्पश्चात् सेवकों और परिजनों सहित स्वयं भोजन करे| पहले मधुर पदार्थ खाएँ, पीछे अन्य भोज्य पदार्थ स्वेच्छा से ग्रहण करे| इस प्रकार व्रत-नियम करने वाला मरने के बाद नागलोक को जाता है, वहाँ अप्सराएँ उसकी पूजा करती है और वह श्रेष्ठ विमान पर आरुढ़ हो अभीष्ट काल तक विहार करता है| वहाँ से पुनः इस भूतल पर जन्म लेने पर वह राजाधिरज होता है| उसके पास सभी रत्नों का भंडार होता है, सवारियाँ होती है, संपत्ति होती है| वह पाँच जन्मों तक निरंतर राजा होता है| उस अवधि में वह आधि-व्याधि से मुक्त रहता है| पत्नी और पुत्र, उसके सहायक-अनुकूल होते है| इसीलिए नागों की घी-दूध आदि से सदा पूजा करनी चाहिए|

युधिष्ठिर ने पुनः पूछा- ‘भगवान्! क्रुद्ध नाग जिस व्यक्ति को डँस लेते है, उसका क्या होता है?’ भगवान् श्रीकृष्ण बोले- ‘राजन्! नाग के डँसने से मृत्यु को प्राप्त व्यक्ति अधोलोक में गिरता है| वहाँ वह विषहीन सर्प होता है|’ युधिष्ठिर ने पुनः पूछा- ‘साँप के काटने से जिसके माता-पिता, भाई-मित्र, पुत्र, बहन, कन्या या स्त्री- कोई भी संबंधीजन मर जाते है, उनके उद्धार के लिए उसे क्या दान-व्रत-उपवास करना चाहिए, जिससे वे स्वर्ग को प्राप्त हो|’ भगवान् श्री कृष्ण ने कहा- ‘राजन्! उन्हें नागों को प्रसन्न करने वाली पंचमी का व्रत एक वर्ष तक करना चाहिए| उसका विधान सुनिए- भाद्रपदमास के शुक्ल पक्ष की पंचमी अधिक पुण्यकारक है| सद्गति की कामना से उसे ग्रहण करना चाहिए| इस प्रकार एक वर्ष में बारह पंचमियाँ होती है| व्रत के पूर्व दिन चतुर्थी को रात्रि में एक अन्न ग्रहण करना चाहिए| दूसरे दिन पंचमी को नाग की पूजा करनी चाहिए| सोने या चाँदी या लकड़ी अथवा मिट्टी के पाँच फनों का नाग बनवाकर श्रद्धा-भक्तिपूर्वक उसकी पूजा करे| उन्हें करवीर के फूल, कमल के फूल, सुंदर जाती-पुष्प, चंदन, नैवेध आदि समर्पित कर पूजा करे| पूजा के पश्चात् ब्राह्मण को भोजन कराएँ| ब्राहमण-भोजन में घी-खीर-मोदक की प्रधानता होनी चाहिए| सर्प के काटने से मरे हुए प्राणी के लिए नारायण-बलि करे| दान और पिंड-दान में ब्राह्मणों को तृप्त करना चाहिए| एक वर्ष पूर्ण होने पर वृषोत्सर्ग करना चाहिए| स्नानघर जल दान करे- ‘यहाँ श्री कृष्ण प्रसन्न हो’- यह प्रार्थना करे| प्रत्येक मास में अनंत, वासुकि, शेष, पद्भ, कंबल, अश्वतर, धृतराष्ट्र, शंखपाल, कालिय, तक्षक कथा पिंगल नामक महानागों का नामोच्चारण करना चाहिए| वर्ष की समाप्ति पर पारण के समय ब्राहमणों को भोजन कराएँ| इतिहास-वेता (विद्वान) विप्र को स्वर्ण का नाग तथा सवत्सा सीधी गौ, काँसे की दोहनी (दुग्ध दूहने का पात्र) सहित देनी चाहिए|

विद्वानों ने यह पारण-विधि बताई है| इस श्रेष्ठ व्रत के करने से बांधवों को सद्गति की प्राप्ति होती है| सर्पादि के काटने से जिनकी अधोगति हो जाती है, उनके निमित यदि एक वर्ष तक यह उत्तम व्रत भक्ति पूर्वक किया जाए तो वे जीव उस यातना से मुक्त होकर शुभ गति को प्राप्त होते है| जो भक्तिपूर्वक नित्य इस आख्यान को पढ़ता या सुनता है, उसके कुटुंब में नागों से कोई भय नही होता| इसी प्रकार जो भाद्रपदशुक्ला पंचमी को काले रंगों से नागों का चित्र बनाकर गंध-पुष्प-घी-गूगल-खीर आदि से भक्ति पूर्वक पूजा करता है, उस पर तक्षक आदि नाग प्रसन्न होते है| उसके सात कुल (पीढ़ी) तक नागों से भय नही रहता| इसी प्रकार आश्विनमास की शुक्ला पंचमी को कुश के नाग बनाकर इंद्राणी के साथ उनकी पूजा करे| घी-दूध और जल से स्नान कराकर दूध में पके गेहूँ तथा अन्य भोज्य पदार्थ उन्हें श्रद्धा-भक्तिपूर्वक समर्पित करे तो शेष आदि नाग उस पर प्रसन्न होते है, उसे सुख-शांति प्राप्त होती है| मृत्यु के बाद वह प्राणी उत्तम लोक को प्राप्त करता है, जहाँ चिरकाल तक आनंद भोगता है| यह पंचमी व्रत का विधान है| सर्पों का सर्वेदोष-निवारक मंत्र यह है- ‘ॐ कुरुकुल्ले हुं फट् स्वाहा|’ इस मंत्र से भक्तिपूर्वक सौ पंचमियों को जो सर्पों की पूजा पुष्पों से करते है, उनके घर में साँपों का कभी भय नही होता|