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महानता के गुण

अपने साधना-काल में एक दिन महावीर एक ऐसे निर्जन स्थान पर ठहरे, जहां एक यक्ष का वास था| वहां वे कोयोत्सर्ग मुद्रा में ध्यान-मग्न हो गए| रात को यक्ष आया तो वह अपने स्थान पर एक अपरिचित व्यक्ति को देखकर आग-बबूला हो गया| वह बड़े जोर से दहाड़ा| उसकी दहाड़ से सारी वनस्थली गूंज उठी|

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वन्यजन्तु भयभीत होकर इधर-उधर दौड़ने लगे, लेकिन महावीर का ध्यान भंग नहीं हुआ| तब यक्ष ने हाथी आदि के रूप धारण करके उन्हें सताया, फिर भी वे विचलित न हुए अंत में उसने भयंकर विषधर बनकर उन पर दृष्टिपात किया, लेकिन उसके विष का उन पर कोई प्रभाव न पड़ा| यह देखकर यक्ष ने आगे बढ़कर पूरे वेग से उनके पैर के अंगूठे पर मुंह मारा महावीर फिर भी अप्रभावित रहे| ये सब देखकर यक्ष पूरी तरह आग-बबूला हो गया| यक्ष ने अब अंतिम प्रयत्न किया| वह उनके शरीर पर चढ़ गया और उन्हें गले पर काटा, पर महावीर तो महावीर ठहरे वे यथावत ध्यान में मग्न रहे|

विवश होकर नाग रूपी यक्ष नीचे उतर आया और पस्त होकर उनसे कुछ पग की दूरी पर पड़ा रहा|

ध्यान पूर्ण होने पर महावीर ने आंखें खोलीं तो उन्हें अपने सामने विषैला नाग दिखाई दिया| उन्होंने उस पर प्यार की वर्षा की, उसके मंगल की कामना की| सर्प का विष अमृत के रूप में परिणत हो गया|

इस घटना से यह स्पष्ट है कि अपने कषायों को जीतने के लिए मन की एकाग्रता, समता और प्रेम संपादित करके ही व्यक्ति महान बन सकता है, महावीर का पद प्राप्त कर सकता है|