Homeशिक्षाप्रद कथाएँलोभी ब्राह्मण

लोभी ब्राह्मण

पाटिलपुत्र नगर में चार ब्राह्मण मित्र रहते थे| वे निर्धन थे| एक दिन नगर में महात्मा भैरवानन्द का आगमन हुआ| भैरवानन्द की ख्याति सुन चारों ब्राह्मण मित्र उनके पास पहुँच कर बोले- ‘आप त्रिकालदर्शी सिद्ध महात्मा है| आपकी कृपादृष्टि हम जैसे अभागों का भाग्य बदल सकती है|’

“लोभी ब्राह्मण” सुनने के लिए Play Button क्लिक करें | Listen Audio

महात्मा भैरवानन्द ने उन चारों ब्राह्मण मित्रों पर तरस खाकर उन्हें चार बतियाँ देते हुए कहा- ‘तुम चारों एक-एक बती आपस में बाँट लो और हिमालय की ओर उतर दिशा में बढ़ते चले जाओ| जिसके हाथ से बती जहाँ गिरेगी, वहाँ खुदाई करने पर उसे उसके भाग्य का धन अवश्य प्राप्त होगा|’

ब्राह्मणों ने महात्मा भैरवानन्द को आदरपूर्वक प्रणाम किया और हिमालय पर्वत की ओर चल दिए| लंबी यात्रा के पश्चात हिमालय पर पहुँचने के बाद वे उतर दिशा की ओर बढ़ने लगे| थोड़ी दूर चलने के बाद एक ब्राह्मण के हाथ से बती गिर पड़ी| वहाँ खुदाई करने पर ताँबे की खान मिली| ताँबे की खान प्राप्त करने वाले ब्राह्मण ने अपने बाकी साथियों से कहा- ‘मेरे भाग्य में जो था, मैंने पा लिया है| तुम आगे जा सकते हो|’ कहकर वह जितना ताँबा ले जा सकता था, ले गया|

तीनों अभी कुछ ही आगे बढ़े थे कि एक और ब्राह्मण के हाथ से बती छूटकर नीचे गिर गई| वहाँ खुदाई करने पर उन्हें चाँदी की खान मिली| ब्राह्मण ने अपने दोनों साथियों से कहा- ‘मित्रों, अब आगे न जाकर हमें अपनी सामर्थ्यानुसार चाँदी लेकर वापस लौट चलना चाहिए|’

इस पर बाकी दोनों ब्राह्मणों ने  कहा- ‘पीछे ताँबे की खान मिली थी और अब चाँदी की खान मिली, आगे हमें ज़रूर सोने की खान मिलेगी| हम तो आगे बढ़ेंगे| तुम जाना चाहो तो जा सकते हो|’

उनके यह वचन सुनकर दूसरा ब्राह्मण अपनी सामर्थ्यानुसार चाँदी लेकर वापस लौट गया| उधर आगे बढ़ते दोनों ब्राह्मणों में से एक ब्राह्मण के हाथ से फिर बती गिर गई| उस जगह की खुदाई करने पर सोने की खान मिली| उसने अपने साथी से कहा- ‘मित्र! अब हम दोनों को अपनी-अपनी सामर्थ्यानुसार सोना लेकर वापस चल देना चाहिए|’

‘नही! पहले ताँबे की खान मिली थी, फिर चाँदी की और अब सोने की खान मिली है| अब आगे अवश्य ही रत्नों की खान मिलेगी| अगर तुम जाना चाहते हो तो सोना लेकर चले जाओ|’ अंतिम ब्राह्मण ने कहा|

कुछ दूर आगे जाने के बाद अकेला बचा ब्राह्मण रास्ता भटक गया| भटकते-भटकते वह एक ऐसे मैदान में जा पहुँचा जहाँ खून से लथपथ और सिर पर घूमते चक्र को धारण किए एक व्यक्ति खड़ा था| आश्चर्यचकित ब्राह्मण ने अभी कुछ कहने के लिए मुहँ खोला ही था कि सामने खड़े व्यक्ति के सिर पर घूमता चक्र उससे अलग होकर ब्राह्मण के सिर पर आकर घूमने लगा| यह देखकर अचंभित ब्राह्मण ने उस व्यक्ति से पूछा- ‘यह सब क्या है? तुम्हारे सिर से हटकर यह मेरे सिर पर कैसे आ गया?’

‘यह अत्यधिक लालच का फल है| लोभ के कारण ही मैं इस स्थति में पहुँचा था और तुम्हारे आने से मुझे इससे मुक्ति प्राप्त हुई है|’

‘मेरा उद्धार कब होगा?’ ब्राह्मण ने दुखी स्वर में पूछा|

‘जब कोई दूसरा व्यक्ति तुमसे भी अधिक लोभ करेगा, तभी तुम्हें इससे मुक्ति मिलेगी|’ उस व्यक्ति ने कहा और वहाँ से चला गया|


कथा-सार 

संतोषं परमं धनं| जो मिले, जितना मिले उतने में ही संतोष करना सबसे बड़ा धन है| अधिक प्राप्ति के लोभ में हाथ में आई वस्तु या धन भी जाता रहता है|