लालची सास
पहाड़ी की तलहटी में बना सुंदरपुर नामक एक गाँव था| सुंदरपुर में वैसे तो सुख-शांति का वास था लेकिन वहाँ के सरपंच की पत्नी कुमति बड़े ही दुष्ट स्वभाव की स्त्री थी| उसके कुटिल स्वभाव से सभी घरवाले परेशान थे| अपनी सीधी-सादी बहू सुकन्या को तो वह कुछ ज्यादा ही परेशान करती थी|
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एक दिन सुबह सुकन्या घर में झाडू-बुहारी कर रही थी कि उसकी सास कुमति वहाँ आई और बोली, ‘तेरे हाथों में जान नही है क्या? ज़रा जल्दी-जल्दी हाथ चला| मैं मंदिर जा रही हूँ, मेरे आने तक खाना तैयार रखना, आते ही खाऊँगी| और सुन, एक भी दाना अन्न का बर्बाद न होने पाए|’ सुकन्या क्या कहती बेचारी, चुपचाप स्वीकृति में गर्दन हिला दी|
घर की सफ़ाई करके सुकन्या तुरंत खाना बनाने में जुट गई|
तभी बाहर से दरवाजा खटखटाने की आवाज़ आई| सुकन्या ने सोचा- अभी भोजन तैयार ही हुआ है, लगता है सासूजी जल्दी लौट आई है| उसने उठकर दरवाजा खोला तो देखा एक सन्यासी खड़ा हुआ था| वह बोला, ‘बेटी! तेरा सुहाग अमर रहे, बाबा को कुछ भोजन करा दे|’
सुकन्या बहुत ही सुशील तथा संस्कारी स्त्री थी| उसने सोचा- साधु महाराज को भोजन करा तो दूँ, पर कहीं उसकी सास कुमति आ गई तो खैर नही| अतः कुछ देर सोच-विचार करने के बाद उसके मन में पुकार उठी- सास से कैसा डरना? मैं अपने हिस्से का भोजन दे रही हूँ| यह सोच वह साधु को भीतर ले गई और आतिथ्य धर्म का पालन करते हुए उसे भोजन कराने लगी|
अभी साधु भोजन कर ही रहा था कि सुकन्या की सास आ गई| साधु को घर के भीतर बैठे भोजन करता देख, उसका पारा सातवें आसमान पर जा चढ़ा| बोली, ‘यहाँ कोई भंडारा या लंगर नही चल रहा, उठ भिखमंगे बाहर निकल|’ सुकन्या ने सास को रोकने की चेष्टा की लेकिन उस दुष्ट स्त्री ने सन्यासी को धक्के मारकर घर से निकाल दिया| अब उसका क्रोध सुकन्या पर टूटा, ‘तुझसे कहा था अन्न का एक दाना भी बर्बाद न करना और तू…|’
सुकन्या डरते-डरते बोली, ‘मैंने तो उसे अपने हिस्से का भोजन दिया था| अतिथि तो देव स्वरूप होता है, आतिथ्य धर्म का पालन तो हर गृहस्थ को करना चाहिए|’
काफ़ी देर तक सास-बहू की तकरार चलती रही| अंत में उस कुटिल सास ने सुकन्या को भी धक्के मारकर घर से निकाल दिया| अब सुकन्या के पास एक ही रास्ता शेष बचा था कि अपने पिता के घर लौट जाए|
उसका मायका वहाँ से काफ़ी दूर था और बीच में घना जंगल भी पड़ता था| सुकन्या भूख-प्यास से निढाल चली जा रही थी कि अचानक जोरों से बादल गरजे और मूसलाधार वर्षा शुरू हो गई| वर्षा से बचने के लिए सुकन्या यह सोचकर एक पेड़ के कोटर में घुस गई कि वर्षा रुकने पर बाहर निकल आऊँगी|
वास्तव में वह पेड़ दो राक्षसियों का निवास स्थान था| वे भी वर्षा से परेशान होकर पेड़ की ओर ही आ रही थी| एक बोली, ‘अब तो चला भी नही जाता वरना मन तो कर रहा था कि सोना टापू चली जाऊं|’ दूसरी राक्षसी बोली, ‘इसमें क्या बड़ी बात है, यह पेड़ हमें अभी उड़ाकर वहाँ पहुँचा देगा|’ कहकर दोनों पेड़ की शाख पर बैठ गई|
उधर थकी-हारी सुकन्या को कोटर में घुसते ही नींद ने आ घेरा था लेकिन पेड़ के उड़ने से लगने वाले झटकों से उसकी नींद खुल गई| पेड़ को उड़ता देख वह घबरा गई, शेष कसर बाहर झाँककर देखने से पूरी हो गई, जब उसने पेड़ की शाख पर दो राक्षसियों को बैठे देखा| अंततः उसने परिस्थितयों से समझौता करते हुए सोचा, जो होगा अच्छा ही होगा|
कुछ ही देर कि उड़ान के बाद वह पेड़ सोना टापू पहुँचकर उतर गया| दोनों राक्षसियों को भूख लग आई थी, सो वे दोनों शिकार की तलाश में निकल गई| उनके जाने के बाद डरी-सहमी सुकन्या ने कोटर से बाहर निकलकर टापू पर फैली रेत देखी तो चौंककर बड़बड़ा उठी, ‘यह रेत तो चमचमा रही है|’ जब उसने रेत हाथ में उठाई तो ज़ोर से चिल्लाई, ‘अरे यह तो सोने की रेत है|’ अपनी धोती के आँचल में वह जितनी रेत बाँध सकती थी, बाँध ली और पुनः कोटर में घुस गई|
तभी दोनों राक्षसियाँ पेड़ की ओर वापस आई| एक बोली, ‘भरपेट खाकर तृप्ति हो गई, अब वही लौट चलते है, जहाँ से आए थे|’ थोड़ी ही देर में वह पेड़ फिर वहीं पहुँच गया|
पौ फटने पर सुकन्या उन राक्षसियों के भय से कोटर में ही छिपी रही, जब किसी कार्यवश वे वहाँ से गई तो वह बाहर निकल आई और घर कि ओर चल दी| वह सोच रही थी- इतना सोना देखकर सासूजी खुशी से पागल हो जाएँगी और उसके सभी गिले-शिकवे दूर हो जाएँगे| घर के द्वार पर पहुँचते ही सुकन्या बोली, ‘देखो सासूजी, मैं क्या लाई हूँ|’ और घर के भीतर प्रवेश कर सोना मिलने की पूरी घटना सास को बता दी|
कुमति कुटिल तो थी ही, साथ लालची भी कम न थी, बोली, ‘बहुत कम सोना लाई है तू| अरी मूर्ख! अब मैं जाऊँगी, फिर देखना कितना सोना बटोरकर लाती हूँ|’
कुमति फौरन उस पेड़ के कोटर में जा छिपी| रात होने पर राक्षसियाँ पेड़ पर आई और पेड़ उन्हें लेकर उड़ चला| कुमति उत्सुकतावश जाग ही रही थी, तभी उसके कानों में एक राक्षसी का स्वर टकराया, ‘आज मछली खाने को मन कर रहा है|’ दूसरी ने उतर दिया, ‘चलो, मत्स्य द्वीप पर चलते है, वहाँ बहुत मछलियाँ मिल जाएँगी|’
उनकी बातों को सुनकर कोटर में बैठी लालची कुमति संयम न रख सकी और बोल पड़ी, ‘अरे! तुम सोना टापू क्यों नही जा रही?’ उसकी आवाज़ सुनने की देर थी कि राक्षसियाँ समझ गई ज़रूर कोई चोर पेड़ में छिपा बैठा है और उन्होंने कुमति को कोटर से उठाकर बाहर फेंक दिया| धरती पर गिरते ही उसके प्राण पखेरू उड़ गए|
कथा-सार
मनुष्य को लालच कभी नही करना चाहिए| जितना मिल जाए, जो मिल जाए उसी में संतोष करना चाहिए| अधिक पाने कीई लालसा में हाथ आया भी जाता रहता है| यह भी ध्यान रहे, कि लालची व्यक्ति का हश्र एक दिन कुमति जैसा ही होता है|