Homeशिक्षाप्रद कथाएँकुसंग परमार्थ का बाधक

कुसंग परमार्थ का बाधक

राजकुमार असमंजस के पिता महाराज सगर थे| सगर महान् धार्मिक थे| उन्होंने जीवन में एक बार भी अधर्म का आचरण नहीं किया था| उन्होंने पुत्र की प्राप्ति के लिये परमसमाधि के द्वारा भगवान् की आराधना की थी| इससे प्रसन्न होकर महर्षि और्व ने उन्हें दो प्रकार के पुत्र होने का वरदान दिया|

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उन्होंने महाराज की दोनों पत्नियों को यह वरदान दिया कि वे दोनों प्रकार के पुत्रों में से किसी को अपनी इच्छा के अनुसार चुन लें| पहले वरदान में हजार पुत्रों की प्राप्ति होनी थी| दूसरे वरदान में एक ही पुत्र की प्राप्ति थी, किंतु इसी को वंशधर होना था| महारानी सुमित ने हजार पुत्र वाला वरदान माँगा| महाराज की दूसरी पत्नी केशिनी ने दूसरे वरदान को चुना था| केशिनी से असमंजस हुए, जिनका पुत्र अंशुमान हुआ, जिसने सगर की वंश-परम्परा को आगे बढ़ाया|

असमंजस पहले जन्म में योग की साधना कर रहे थे| उन्हें पूर्वजन्म में ऊँची स्थिति प्राप्त हो गयी थी| सारी सिद्धियाँ उनके वश में थीं| इस तरह वे परमार्थ के पथ पर बहुत दूर आगे निकल चुके थे| किंतु कुछ क्षण के कुसंग ने उन्हें पथ से च्युत कर दिया था| फलतः भगवान् तो न मिले उन्हें दूसरा जन्म लेना पड़ा|

यह बात असमंजस को बचपन से याद थी| अतः वे प्रारम्भ से ही ममता से दूर रहते थे वे इस प्रयास में रहते थे कि इस जन्म में किसी तरह की आसक्ति न हो जाय| परिवार का बन्धन कठिन होता है| परिवार का कोई सदस्य इन से स्नेह न करे, इसके लिये कभी-कभी वे पागलपन का भी अभिनय करते थे| कभी-कभी अनुचित कार्य भी कर बैठते थे| वे खेलते हुए बच्चों को सरयू में फेंक देते थे, यह कितना अशोभनीय कार्य था? परिवार वाले उन्हें त्याग देते थे, इसके लिये ऐसा कर्म भी असमंजस को करना पड़ा था| इसका परिणाम यह हुआ कि सारी प्रजा और सारा परिवार असमंजस से अप्रसन्न हो गया| पिता को भी पुत्र-स्नेह की तिलांजलि देनी पड़ी| सबने मिलकर उन्हें घर से निकाल बाहर कर दिया|

राजकुमार असमंजस यही चाहते थे| वे प्रसन्नता से धुनी रमाने चल दिये| योगी किसी की हत्या नहीं करता| असमंजस ने वन जाने के पहले सभी बच्चों को जीवित कर अपने पिता के चरणों में डाल दिया| बच्चे प्रसन्न थे| वे राजा का आशीर्वाद लेकर अपने-अपने परिवार में मिल गये| इस अदभुत घटना को देखकर चारों ओर विस्मयकी लहर फैल गयी| असमंजस पर लोगों का जो आक्रोश था, वह श्रद्धा में बदल गया| पिता के पश्चात्ताप की कोई सीमा न थी, स लोग असमंजस की खोज में जुट गये| लेकिन योगी को कौन पा सकता है? असमंजस भगवान् में युक्त हो गये थे| मानव-जीवन की यही तो सार्थकता है?