किरातवेषधारी शिवजी की अर्जुन पर कृपा
जब पाँचों पाण्डव द्रौपदी सहित वन में अज्ञातवास कर रहे थे, तब उनके कष्टों को देखकर भगवान् श्रीकृष्ण तथा महर्षि व्यासजी ने अर्जुन से भगवान् शिव को प्रसन्न करके वर प्राप्त करने के लिये कहा तथा उसके लिये उपाय बताया|
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वीर अर्जुन अपने तथा राज्य पर आये हुए संकटों का नाश करने के लिये व्यासजी के निर्देशानुसार इन्द्रकील पर्वत पर गये|
वहाँ उन्होंने जान्हवी के मनोहर तटपर मनोरम पार्थिव शिवलिंग का निर्माण गुप्तचरों द्वारा जब इन्द्र को अर्जुन के इस तप का पता लगा, तब वे अपने पुत्र का मनोरथ समझ गये और वृद्ध ब्रम्हचारी का वेष धारण कर उनकी परीक्षा लेने के उद्देश्य से वहाँ आये तथा अर्जुन का आतिथ्य ग्रहण करने के बाद अनेक प्रकार से उन्हें तप से विमुख करने का प्रयत्न करने लगे, परंतु अर्जुन का दृढ़ निश्चय देखकर वे अपने वास्तविक रूप में प्रकट हो गये| फिर तो वे उन्हें शंकर के दिव्य मन्त्र का उपदेश देकर तथा अपने अनुचरों को अर्जुन की रक्षा के लिये आदेश देकर अन्तर्धान हो गये|
तदुपरान्त महर्षि व्यास के कथानुसार अर्जुन भगवान् शिव का ध्यान कर एक पैर पर खड़े हो गये तथा सूर्य की ओर एकाग्र दृष्टि करके शिव जी के दिव्य पंचाक्षर-मन्त्र (ॐ नमः शिवाय) का जप करने लगे| उनकी घोर तप को देखकर देवगण आश्चर्यचकित हो गये| वे भगवान् शिव के पास गये और अर्जुन को वर प्रदान करने के लिये प्रार्थना करने लगे देवताओं की बात सुनकर भगवान् शिव हँस पड़े और उन्हें निश्चिन्त रहने के लिये कहा| देवता आश्वस्त होकर अपने-अपने स्थान को लौट गये|
इधर दुर्योधन द्वारा भेजा हुआ ‘मूक’ नाम का एक मायावी राक्षस सूकर का रूप धारण कर अनेक प्रकार भयंकर शब्द करता हुआ तथा वृक्ष- पर्वतादि को उखाड़ना हुआ वहाँ पहुँचा, जहाँ अर्जन तप कर रहे थे| उसे देखते ही अर्जुन समझ गये कि यह निश्चय ही मेरा अनिष्ट करना चाहता है, अतः उसे मार देने के उद्देश्य से बाण का संधान करने लगे| उसी समय भक्तवत्सल सर्वज्ञ शिव अर्जुन की रक्षा करने तथा उसकी परीक्षा लेने के उद्देश्य से अपने गणोंसहित भील का वेश धारण कर वहाँ उपस्थित हुए| वह भीलसमूह मुँह से विविध शब्दों का घोष कर रहा था| इधर सूकर ने भी भयंकर घोष किया| अर्जुन उस भीलराज शब्दों को सुनकर मन-ही-मन शंका करने लगे कि कहीं ये किरतावेषधारी भगवान् शिव तो ही नहीं हैं? इस प्रकार वे सोच-विचार कर ही रहे थे, तबतक वह सूकर वहाँ आ गया और भीलराज तथा अर्जुन-दोनों ने उसे मारने के उद्देश्य से एक साथ बाण छोड़े| भीलराज का बाण सूकर के पुच्छभाग में लगा और मुख से निकलता हुआ पृथ्वी में चला गया, जबकि अर्जुन का बाण मुख से पुच्छभाग की ओर निकलकर पृथ्वी पर गिर गया और सूकर तुरंत मर गया|
तदुपरान्त अर्जुन अपना बाण उठाने के लिये झुके ही थे कि उसी समय भीलराज की आज्ञा से उनका अनुचर भी उस बाण को उठाने के लिये झपटा और अर्जुन से बाण माँगने लगा| अर्जुन ने बहुत समझाया कि बाण मेरा है, मेरा नाम भी अंकित है, परन्तु वह अपने हठपर अड़ा रहा| इस प्रकार दोनों में बहुत देर तक वाद-विवाद होता रहा| अंत में उसने अर्जुन को कृतघ्न तथा मिथ्याभाषी आदि शब्दों द्वारा अपमानित करते हुए युद्ध के लिये ललकारा| तब अर्जुन क्रुद्ध होकर बोले-‘मैं तुमसे नहीं, तुम्हारे राजा से युद्ध करूँगा|’ गण के द्वारा अर्जुन की बात को सुनकर किरातवेषधारी भगवान् शिव अपने गणोंसहित युद्ध के लिये वहाँ उपस्थित हुए और दोनों में भयंकर युद्ध होने लगा| अर्जुन के बाणों के आघात से घबराकर शिवगण चारों दिशाओं में भागने लगे| किरातराज ने अर्जुन के कवच तथा सभी बाणों को नष्ट कर दिया| तब अर्जुन भगवान् शिव का स्मरण कर उस किरात का पैर पकड़कर उसे घुमाने लगे| उसी समय भगवान् शंकर में अपना परमसुन्दर वास्तविक रूप प्रकट कर दिया, जिसे देखकर अर्जुन अवाक् रह गये तथा लज्जित होते हुए अनेक प्रकार से पश्चात्ताप करने लगे| वे शिवजी को प्रणाम करके स्तुति करने लगे| तब शिवजी उन्हें अनेक प्रकार से आश्वस्त करते हुए बोले-‘मैं तुम पर प्रसन्न हूँ, वर माँगों|’ किंतु अर्जुन भक्तिभाव से पूर्ण हो अनेक प्रकार से उनकी स्तुति करते हुए बारम्बार प्रणाम करने लगे| भगवान् शिव हँसकर पुनः बोले-‘मैं तुम पर अत्यधिक प्रसन्न हूँ, जो अभीष्ट हो वह माँगो|’ अर्जुन ने कहा-‘नाथ! मेरे ऊपर जो शत्रुओं के संकट थे, वे तो आपके दर्शन मात्र से ही नष्ट हो गये, अतः जिससे मेरी इहलोक की परासिद्धि हो ऐसी कृपा करें|’ तब भगवान् शिव ने अपना अजेय पाशुपत-अस्त्र अर्जुन को दिया और कहा-‘वत्स! इस अस्त्र से तुम सदा अजेय रहोगे, जाओ विजय प्राप्त करो| मैं श्रीकृष्ण से भी तुम्हारी सहायता के लिये कहूँगा|’ इस प्रकार भगवान् शिव अर्जुन को आशीर्वाद देकर अन्तर्धान हो गये और अर्जुन प्रसन्नचित हो अपने बन्धुओं के पास लौट आये|