कैसे बना वाराह तीर्थ
प्राचीन समय की बात है, सिंधुसेन नामक एक दैत्य ने देवताओं को परास्त कर यज्ञ छीनकर उसे रसातल में छिपा दिया। यज्ञ के अभाव में देवताओं का बल, ऐश्वर्य और वैभव नष्ट होने लगा। तब उन्होंने भगवान विष्णु से सहायता की प्रार्थना की।
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भगवान विष्णु उन्हें सांत्वना देते हुए बोले- “देवताओ! आप निश्चिंत रहें। मैं वाराह-रूप धारण कर दैत्यों का संहार करूँगा और पुण्यमय यज्ञ को वापस लाऊँगा।” इसके बाद भगवान श्रीविष्णु वाराह-रूप धारण कर भयंकर गर्जना करने लगे।
उन्होंने अपने तीव्र गर्जन से ब्रह्मा सहित सभी प्रधान ऋषि-मुनियों के मन में आनन्द की लहरें उत्पन्न कर दीं। दसों दिशाएं उनकी गर्जना से गूँज उठीं। देवताओं ने उस गर्जन को सुना तो उन्होंने ऋग, साम और यजुर्वेद के उत्तम वैदिक स्त्रोतों द्वारा आदिपुरुष भगवान वाराह की स्तुति की।
उनकी स्तुति सुनकर श्रीवाराहरूपी भगवान विष्णु अपनी कृपा-दृष्टि से उन्हें अनुगृहित करके जल में प्रविष्ट हो गए। जिस मार्ग से देवी गंगा रसातल में गई थीं। उसी मार्ग से भगवान वाराह भी रसाताल में पहुँच गए।
तभी सिंधुसेन वहाँ आया। भगवान वाराह को देखकर वह हँसते हुए बोला “अरे! जंगली पशु जल में कहाँ से आ गया? लगता है, इसे अपने प्राणों का मोह नहीं रहा अथवा इसे मेरी शक्ति के बारे में ज्ञान नहीं है। दुष्ट! रूप बदल कर तू मुझे भ्रमित नहीं कर सकता। तू अवश्य ही देवताओं का प्रिय विष्णु है, जो हम दैत्यों का सबसे बड़ा शत्रु है। आज तुझे मुझसे कोई नहीं बचा सकता। मैं इसी क्षण अपनी गदा के प्रहार से तेरे टुकड़े-टुकड़े कर दूँगा। फिर देवताओं और ऋषि-मुनियों का भी संहार कर दूँगा, जो इस समय तेरी जय-जयकार कर रहे हैं।”
भगवान वाराह भयंकर गर्जना करते हुए बोले-“दुष्ट सिंधुसेन! तुझे अपने बल पर बड़ा अहंकार है। आज मैं तेरा वही अहंकार चूर-चूर कर तुझे काल का ग्रास बनाऊँगा। अब तुझे कोई शक्ति नहीं बचा सकती। तूने मेरी शक्ति को ललकारा है। तेरी इच्छा मैं अवश्य पूरी करूँगा। देख मेरा बल और पराक्रम। ”
यह कहकर भगवान वाराह ने सिंधुसेन पर अपनी गदा का भीषण प्रहार किया। गदा-प्रहार से वह मीलों दूर जाकर गिरा। किंतु गिरते ही फुर्ती से उठा और गदा लेकर भगवान वाराह से युद्ध करने लगा। देखते ही देखते भगवान वाराह ने उसकी गदा तोड़ डाली। तब वह मुष्टि-प्रहार करने के लिए आगे बढ़ा। बिना कोई अवसर दिए भगवान ने गदा के एक ही प्रहार से उसके प्राण हर लिए।
तभी शंख बज उठे और देवगण भगवान वाराह पर पुष्प-वर्षा कर उनकी स्तुति करने लगे। इसके बाद भगवान वाराह यज्ञ को अपने मुख में रखकर पाताल से निकल आए। तत्पश्चात उन्होंने अपने रक्त-रंजित अंगों को गंगा-स्रोत में धोया। वही स्थान वाराह-कुंड के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
इसके बाद उन्होंने अपने मुख से महायज्ञ को निकालकर देवगण को सौंप दिया। चूँकि उनके मुख से यज्ञ का प्रादुर्भाव हुआ था, इसलिए वाराह-तीर्थ परम पवित्र और समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाला तीर्थ माना जाता है। यह तीर्थ वर्तमान में कुरुक्षेत्र के निकट स्थित है।