जानलेवा मंत्र
बात बहुत पुरानी है| एक पंडितजी अपने शिष्य के साथ जंगल से होकर जा रहे थे| तभी एकाएक उनकी नज़र डाकुओं पर पड़ी|
‘अरे, डाकू!’ डाकुओं को देखकर पंडितजी और उनका शिष्य नरेंद्र भय से काँपने लगे| पंडितजी भयभीत होकर बोले, ‘हमारे पास रूपया-पैसा नही है| कृपा करके हमें जाने दे|’
‘हा…हा…हा|’ डाकुओं के सरदार मलखान सिंह ने अट्टहास किया, ‘इन भोली बातों और सादा वेष से किसी और को धोखा देना| तुम्हारे पास धन नही है तो कोई बात नही| तुम्हारे साथ तुम्हारा शिष्य तो है, वह तुम्हारे घर जाकर धन ले आएगा|’
डाकुओं ने पंडितजी को एक पेड़ से बाँध दिया| फिर उनके सरदार ने पंडितजी के शिष्य से कहा, ‘अब झटपट घर जाकर एक हज़ार स्वर्ण मुद्राएँ ले आओ| तभी तुम्हारे गुरुजी को छोड़ा जाएगा|’
नरेंद्र डरते-डरते पंडितजी के पास पहुँचा और बोला, ‘गुरुजी, मैं जल्दी ही लौट आऊँगा| लेकिन आप इन डाकुओं को चमत्कारी वैदर्भ मंत्र के बारे में कुछ न बताना|’
(वैदर्भ मंत्र एक दुर्लभ मंत्र है, जिसका किसी विशेष मुहूर्त में जप करने से रत्न बरसने लगते है|)
डाकुओं के सरदार ने पंडितजी के शिष्य को धमकाते हुए कहा, ‘अब यहाँ से चलता बन छोकरे और जो कहाँ है वह कर|’
‘जी, मैं दो दिन बाद स्वर्ण मुद्राएँ लेकर आ जाऊँगा|’ इतना कहकर नरेंद्र डाकुओं के सरदार को आश्वस्त करके वहाँ से रवाना हो गया|
रात होने पर पंडितजी को सर्दी लगने लगी| डाकुओं को आग तापते देख यह सोचने लगे- ‘काश, मैं भी आग ताप सकता| किंतु ये दुष्ट मेरे शिष्य के लौटने तक मुझे इसी वृक्ष से बाँधे रखेंगे|’ फिर पंडितजी ने आकाश की ओर देखा और सोचने लगे, ‘अरे शुभ ग्रहों का अनुकूल योग होने वाला है| क्यों न मैं इन डाकुओं को वैदर्भ मंत्र के बारे में बताकर इस यंत्रणा से छुटकारा पा जाऊँ?’ किंतु अपने शिष्य की चेतावनी याद करके वे हिचकिचाए| अंत में उन्होंने सोचा, ‘ऐसा ज्ञान किस काम का, जिसका समय पड़ने पर उपयोग न किया जा सके|’
पंडितजी ने काफ़ी सोच-विचार करने के बाद डाकुओं के सरदार को अपने पास बुलाया और हिम्मत जुटाकर कहा, ‘मैं आपको काम की एक बात बताना चाहता हूँ|’
‘जल्दी बोल|’ डाकुओं के सरदार ने क्रोधित स्वर में कहा|
‘यदि मैं रत्नों की वर्षा कर दूँ, तो क्या तुम मुझे छोड़ दोगे?’ पंडितजी ने डरते-डरते पूछा|
‘रत्नों की वर्षा…!’ डाकुओं के सरदार ने उपहासपूर्ण स्वर में कहा, ‘मज़ाक कर रहे हो क्या?’
‘नही, मैं बिलकुल सच कह रहा हूँ| मुझे ऐसा चमत्कारी मंत्र ज्ञात है, जिसके द्वारा मैं रत्नों की वर्षा कर सकता हूँ|’ पंडितजी ने डाकुओं के सरदार को संबोधित करते हुए कहा|
‘लेकिन…|’ डाकुओं के सरदार ने अविश्वसनीय मुद्रा में कुछ कहना चाहा कि उससे पहले ही पंडितजी बोल पड़े, ‘कुछ क्षणों बाद ग्रह अनुकुल स्थिति में होगें, तभी रत्नों की वर्षा प्रारंभ कर सकता हूँ|’
डाकुओं के सरदार को विश्वास नही हुआ| लेकिन फिर कुछ सोचते हुए उसने पंडितजी से कहा, ‘अच्छा शुरू करो|’
‘उसके लिए पहले मुझे स्नान करके रेशमी वस्त्र पहनने होंगे| इसके लिए मेरा मुक्त होना जरूरी है|’ पंडितजी ने कहा|
‘ठीक है, लेकिन याद रहे…यदि तुमने कोई भी चालाकी दिखने की कोशिश की तो जान से हाथ धो बैठोगे|’ डाकुओं के सरदार ने पंडितजी को धमकाया|
कुछ देर बाद बंधन मुक्त होने पर पंडितजी स्नान आदि से निवृत होकर, रेशमी वस्त्र धारण करके मंत्र जाप करने लगे|
करीब आधा घंटे में पंडितजी ने पूजा समाप्त की और अगले क्षण रत्नों की बारिश होने लगी|
‘अरे, ये तो हीरे-मोती बरस रहे है|’ डाकुओं के सरदार की हर्षोल्लास भरी आवाज़ निकली| उसके बाद उसने अपने साथियों को आदेश दिया, ‘जल्दी करो! बटोर लो सारे रत्न…एक भी न छूटे|’
फिर वह पंडितजी से कहने लगे, ‘शाबाश! अब तुम जा सकते हो|’
पंडितजी ने मन-ही-मन सोचा, ‘अच्छा ही हुआ जो मैंने अपने शिष्य की सलाह नही मानी अन्यथा मेरी जान को खतरा हो सकता था|’
तभी एक दूसरा डाकुओं का गिरोह वहाँ आ पहुँचा, जिसका सरदार दलखान सिंह था|
खबरदार! कोई भी अपनी जगह से न हिले| तुम सब चारों ओर से घिर चुके हो|’ दूसरे डाकू दल के सरदार दलखान सिंह ने चेतावनी दी|
दूसरे डाकू दल ने, जो पहले वाले दल से शक्तिशाली था, सबको चारों ओर से घेर लिया|
‘ठहरो! पहले तो ये बताओ कि तुम ये सब क्यों कर रहे हो?’ पहले डाकू दल के सरदार मलखान सिंह ने पूछा|
‘यह भी कोई पूछने की बात है|’ दूसरे डाकू के दल के सरदार दलखान सिहं ने उपहास किया, ‘तुम लोगों से रत्न हासिल करने के लिए|’
‘इतनी-सी बात है| तब तो तुम्हें इन पंडितजी को काबू में करना चाहिए| क्योंकि…|’
‘चुप|’ दलखान सिहं ने उसकी बात काटी, ‘अब और मज़ाक किया तो इस पेड़ पर उल्टे झूलते नज़र आओगे| भला यह पोंगा पंडित मेरे किस काम का है?’
‘अरे, यह तो बड़ा गुणवान है| इसे एक ऐसा मंत्र आता है, जिसके जाप से आसमान से हीरे-मोती बरसते है| हमें ये रत्न इसकी बदौलत ही तो मिले है|’ मलखान सिंह ने कहा|
दलखान सिंह कुछ देर तक सोचता रहा| फिर उसने निर्णायक स्वर में कहा, ‘ठीक है, हम तुम्हें छोड़ देंगे, मगर इस पंडित को हम अपने साथ ही रखेंगे|’ फिर वह पंडितजी की ओर मुड़ते हुए बोला, ‘क्या तुम रत्नों की बरसात कर सकते हो?’
‘रत्न आपको अवश्य मिलेंगे, किंतु एक वर्ष के बाद|’ पंडितजी ने डरते-डरते कहा|
‘बेवकूफ न बनाओ| मुझे रत्न अभी चाहिए, समझे?’
‘जी…म…मुझे क्षमा करें|’ पंडितजी हकलाते हुए बोले, ‘वह मंत्र केवल एक विशेष मुहूर्त में ही प्रभावी होता है और वह मुहूर्त अब अगले वर्ष ही आएगा|’ पंडितजी ने दयनीय स्वर में कहा|
यह सुनकर दलखान सिहं का पारा सातवें आसमान पर जा पहुँचा, ‘झूठे ढोंगी! तुम मेरे हाथों बच नही सकते|’ कहने के साथ ही उसने पंडितजी के मुहँ पर घूँसा जड़ दिया|
पंडितजी ह्रदयविदारक चीख निकालते हुए दूर जा गिरे| फिर भी वह पीड़ा को पीते हुए बोले, ‘मेरा विश्वास कीजिए| अब मैं आपके लिए कुछ भी नही कर सकता|’
‘हमसे ही चालाकी|’ दलखान सिंह ने पंडितजी का गिरेबान पकड़ते हुए कहा, ‘क्या तुमने हमें बुद्धू समझा है?’
‘भगवान के लिए मुझ पर विश्वास करो|’ कहते-कहते पंडितजी की रुलाई फूट पड़ी| फिर वह मन-ही-मन सोचने लगे, ‘काश! मैंने अपने शिष्य की सलाह मानी होती तो शायद यह दुर्दिन ने देखना पड़ता|’
किंतु दलखान सिंह को रहम नही आया और उसने पंडितजी का टेंटुआ दबा दिया| पंडितजी कुछ देर छटपटाकर ईश्वर को प्यारे हो गए|
उसके बाद दलखान सिंह बोला, ‘चलो! उन बदमाशों का पीछा करते है, जो हमारे हाथ से निकल गए है| उन्होंने हमारी आँखों में धूल झोंकी है, पर वह अभी ज्यादा दूर नही गए होंगे|’
कुछ दूर चलने पर उन्हें पहले वाला डाकुओं का दल दिखाई दिया| फिर उन दोनों में घमासान मुठभेड़ हुई| दलखान सिंह का दल मलखान सिंह के दल से अधिक ताकतवर था| जल्दी ही मलखान सिंह के दल का उसने सफ़ाया कर दिया|
‘अब सारे रत्न मेरे है|’ दलखान सिंह खुशी से चिल्लाया|
अभी वह रत्नों की ओर बढ़ रहा था कि एक लुटेरा जो घोड़े पर सवार था, रत्नों से बँधी गठरी को उठाकर भागने लगा|
‘ठहर!’ दलखानसिंह ने उसे लपक लिया|
‘नही दोस्त, अब यह गठरी मेरी है|’ वह लुटेरा बोला|
कुछ ही देर में उस आदमी के अन्य साथी भी वहाँ आ गए| एक बार फिर घमासान मुठभेड़ हुई| उस लड़ाई में दलखान सिंह और वह लुटेरा ही बच पाए थे, बाकी सब मारे जा चुके थे|
‘अब लड़ने का कोई फायदा नही, हम दोनों ही शेष बचे है| बेहतर होगा कि माल को आधा-आधा बाँट ले|’ लुटेरे ने कहा|
दलखान सिंह कुछ देर तक सोचता रहा| फिर दोनों ने आपस में मित्रता करने का संकल्प लिया और खज़ाने को एक खोखले पेड़ के तने में छिपा दिया|
‘दोस्त, बड़ी भूख लग रही है, कुछ खाने की व्यवस्था करनी होगी|’ लुटेरा बोला, ‘लेकिन खजाने की रक्षा के लिए हममें से किसी एक को तो यहाँ रुकना पड़ेगा|’
दलखान सिंह बोला, ‘ठीक है, मैं खाना लेने के लिए जाता हूँ, तुम यही रुकना|’ कहकर दलखान सिंह भोजन-पानी की व्यवस्था करने चला गया|
अब लुटेरा अकेला रह गया| उसने सोचा, ‘क्यों न मैं उसे मारकर इस खज़ाने का अकेला ही मालिक बन जाऊँ|’ फिर वह एक चट्टान के पीछे छिपकर बैठ गया|
उधर दलखान सिंह भोजन सामग्री लेकर लौटा| रास्ते में उसने सोचा, ‘पहले मैं अपना पेट भर लूँ, फिर जो बचेगा, वह अपने मित्र के लिए ले जाऊँगा| किंतु वह मेरा किस बात का मित्र है? मैं उसको हिस्सा क्यों दूँ? चाहे खज़ाना हो या खाना, मैं उसे हरगिज़ भागीदार नही बनाऊँगा| उसे रास्ते से हटाकर ही रहूँगा|’ फिर उसने बचे हुए भोजन में ज़हर मिला दिया और मंजिल की ओर चल दिया| जैसे ही दलखान सिंह वहाँ पहुँचा, उस लुटेरे ने पीछे से आकर उसके सिर पर वार कर दिया| एक ही वार में दलखान सिंह ढेर हो गया|
‘अ…हा! अब तो यह सारा खज़ाना मेरा ही है| पहले मैं भरपेट खाऊँगा, फिर ख़जाने को लेकर यहाँ से चंपत हो जाऊँगा|’
…और वह भोजन करने बैठ गया| लेकिन भोजन विषैला होने के कारण उसके प्राण पखेरू उड़ गए|
दो दिन के बाद जब पंडितजी का शिष्य स्वर्ण मुद्राएँ लेकर लौटा तो उसे चारों ओर लाशें-ही-लाशें दिखाई दी| वह बड़बड़ाया, ‘गुरूजी ने मंत्र का उपयोग कुपात्रों के लिए किया| काश, उन्होंने मेरी बात मान ली होती|’
फिर वह नम आँखों तथा उदास मन से वापस घर की ओर चल दिया|
शिक्षा: पंडितजी के शिष्य ने परिस्थितियाँ देखकर ही मंत्रोच्चार न करने को कहा था| लेकिन पंडितजी ने क्षणिक सुख के लोभ में उसकी बात अनसुनी कर दी और इसके फलस्वरूप उनके प्राण चले गए| छोटों की सीख भी कभी-कभी बड़े काम की होती है|