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मूर्ख सन्यासी और मेढ़ा

काशीपुर में बड़ी संख्या में लोग मेढ़ों की लड़ाई देखने जमा हुए| तभी एक सन्यासी भी वहाँ आ पहुँचा| उसने एक आदमी से पूछा, क्यों भाई, यहाँ क्या हो रहा है?’

‘मेढ़ों की लड़ाई हो रही है, बाबाजी!’ वह आदमी चहकता हुआ बोला|

सन्यासी भीड़ को चीरता हुआ आगे बढ़ा| उसने एक मेढ़े को सिर नीचे किए लौटते देखा| वह उसी की ओर आ रहा था| सन्यासी सोच में पड़ गया|

‘हे श्रेष्ठ पशु! इस विशाल जनसमूह में तुम्हीं ऐसे हो जो महात्मा को देखते ही पहचान गए|’ सन्यासी ने मेढ़े की ओर देखते हुए कहा|

जनसमूह में से एक सज्जन ने सन्यासी को सचेत किया, ‘बाबाजी, आप सावधान रहे| यह आपके आगे सिर नही झुका रहा बल्कि हमले की तैयारी कर रहा है| पीछे हट जाइए|’

‘असंभव…यह निरीह प्राणी तो मेरा आशीर्वाद लेना चाहता है| मैं इसे आशीर्वाद ज़रूर दूँगा|’

इतना कहकर सन्यासी मेढ़े के पास जा पहुँचा|

लेकिन अगले ही पल मेढ़े ने सिर की टक्कर मारकर सन्यासी को ज़मीन पर गिरा दिया|

‘आह!’ सन्यासी पीड़ा से बिलबिलाया, ‘हाय! मूर्खता के कारण ही मेरी यह दुर्दशा हुई है|’

शिक्षा: साधु-सन्यासी का चोला धारण करने मात्र से कुछ नही होता…दुनियादारी की समझ भी होनी चाहिए| मेढ़ों की लड़ाई हो रही थी, वे उतेजित तो थे ही| समझाने पर भी सन्यासी न माना और परिणाम भुगता| मूर्खता का परिणाम दुर्दशा के अलावा और कुछ नही होता|