इंद्रप्रस्थ

इंद्रप्रस्थ

राजा धृतराष्ट्र ने विवश होकर निश्चय किया की वे भीष्म की सलाह मानेंगे| उन्होंने विदुर को भेजकर पांडवों को हस्तिनापुर में रहने के लिए आमंत्रित किया| पांडव, माता कुंती और कृष्ण के साथ हस्तिनापुर आ गए|

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कृष्ण, यादवों के राजा और कुंती के भतीजे थे| शत्रुओं से घिरे पांडवों को कृष्ण पर पूरा विश्वास था| जब भी उन पर विपत्ति आती, वे कृष्ण से सलाह और सहायता माँगते|

धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर से कहा, “तुम मेरे भाई के पुत्र हो, इसलिए मैं तुम्हे अपना आधा राज्य देना चाहता हूँ|” और उन्होंने पांडवों को खांडवप्रस्थ दिया, जो कि बीहड़ जंगल के समान था| पांडव बहुत निराश हुए परन्तु बिना असंतोष प्रकट किये उन्होंने खांडवप्रस्थ को स्वीकार किया|

अब सब भाई उस बीहड़ जंगल को साफ करने लग गए| भीम का शारीरिक बल बहुत काम आया| वह अपने हाथों से वृक्षों को जड़ से उखाड़ फेंकता| उधर अग्निदेव के प्रकोप से उस वन में आग लग गई| सारा वन जल गया|

पांडव-पुत्र बड़े परिश्रम से उस बंजर भूमि को उपजाऊ और बसने योग्य बनाने में जुट गए| खांडवदाह के समय मय नाम का एक दानव बच गया था| वह एक श्रेष्ठ शिल्पी था| अर्जुन और मय में मित्रता हो गई| कृष्ण ने मय से कहा कि तुम श्रेष्ठ शिल्पी हो| इस स्थान पर एक ऐसे सभा-भवन का निर्माण करो जो अपने शिल्प में अनुपम और अद्वितीय हो| मय ने इसे मना सिर-माथे लगाया और भवन-निर्माण में जुट गया|

जब वह नगर पूर्णतया बस गया तब वह हस्तिनापुर से कहीं अधिक सुन्दर दिखने लगा| इतना सुन्दर कि उसे देखने के लिए दूर-दूर से आने लगे| इस नवीन नगरी का नाम रखा गया-इंद्रप्रस्थ|