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भगवान् नारायण की सर्वव्यापकता

भगवान् नारायण की सर्वव्यापकता

प्राचीन काल में अश्वशिरा नामक एक परम धार्मिक राजा थे| उन्होंने अश्वमेघ यज्ञ के द्वारा भगवान् नारायण का यजन किया था, जिसमें बहुत बड़ी दक्षिण बाँटी गई| यज्ञ की समाप्ति पर राजा ने अवभृथ-स्नान किया| इसके पश्चात् वे ब्रह्मणों से घिरे हुए बैठे थे, उसी समय भगवान् कपिल देव वहाँ पधारे|

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उनके साथ योगीराज जैगीषव्य भी थे| उन्हें देखकर महाराज अश्वशिरा बड़ी शीघ्रता से उठे, अत्यंत हर्ष के साथ उनका सत्कार किया और तत्काल दोनों मुनियों के विधिवत् स्वागत की व्यवस्था की| जब दोनों मुनि श्रेष्ठ भलीभाँति पूजित होकर आसन पर विराजमान हो गए, तब महापराक्रमी राजा अश्वशिरा ने उनकी ओर देखकर पूछा- ‘आप दोनों अत्यंत तीक्ष्ण बुद्धिवाले और योग के आचार्य है| आपने कृपापूर्वक स्वयं अपनी इच्छा से यहाँ आकर मुझे दर्शन दिया है| आप मनुष्यों में श्रेष्ठ ब्राह्मण देवता है| आप दोनों मेरे इस संशय का समाधान करे कि मैं भगवान् नारायण की आराधना कैसे करुँ?’

दोनों ऋषियों ने कहा- ‘राजन! तुम नारायण किसे कहते हो? महाराज! हम दो नारायण तो तुम्हारे सामने प्रत्यक्ष रुप से उपस्थित है|’

राजा अश्वशिरा बोले- ‘आप दोनों महानुभाव ब्राहमण है| आपको सिद्धि सुलभ हो चुकी है| तपस्या से आप के पाप भी नष्ट हो गए है- यह मैं मानता हूँ, किंतु ‘हम दोनों नारायण है’, ऐसा आप लोग कैसे कह रहे है? भगवान् नारायण तो देवताओं के भी देवता है| उनकी भुजाएँ शंख, चक्र और गदा से अलंकृत रहती है| वे पीताम्बर धारण करते है| गरुड़ उनका वाहन है| भला, संसार में उनकी समानता कौन कर सकता है?’

कपिल और जैगीषव्य- ये दोनों ऋषि कठोर व्रत का पालन करने वाले थे| वे राजा अश्वशिरा की बात सुनकर हँस पड़े और बोले- ‘राजन्! तुम विष्णु का दर्शन करो|’ इस प्रकार कहकर कपिल जी उसी क्षण स्वयं विष्णु बन गए और जैगीषव्य ने गरुड़ का रुप धारण कर लिया| अब तो राजाओं के समूह में हाहाकार मच गया| गरुड़ वाहन सनातन भगवान् नारायण को देखकर महान् यशस्वी राजा अश्वशिरा हाथ जोड़कर कहने लगे- ‘विप्रवरों! आप दोनो शांत हो| भगवान् विष्णु ऐसे नही है| जिनकी नाभि से उत्पन्न कमल पर प्रकट होकर ब्रह्मा अपने रुप से विराजते है, वह रूप परम प्रभु भगवान् विष्णु का है|

कपिल और जैगीषव्य- ये दोनों मुनियों में श्रेष्ठ थे| राजा अश्वशिरा की उक्त बात सुनकर उन्होंने योग माया का विस्तार कर दिया| फिर तो कपिलदेव पदनाभ विष्णु के तथा जैगीषव्य प्रजापति ब्रह्मा के रूप में परिणत हो गये| कमल के ऊपर ब्रह्माजी सुशोभित होने लगे और उनके श्रीविग्रह से कालाग्नि के तुल्य लाल नेत्रों वाले परम तेजस्वी रुद्रका प्राकट्य हो गया| राजा ने सोचा- ‘हो-न-हो, यह इन योगीश्वरों की ही माया है; क्योंकि जगदीश्वर इस प्रकार सहज ही दृष्टिगोचर नही हो सकते| वे सर्वशक्ति सम्पन्न श्रीहरि तो सदा सर्वत्र विराजते है|’ राजा अश्वशिरा अपनी सभा में इस प्रकार कह ही रहे थे कि उनकी बात समाप्त होते-न-होते खटमल, मच्छर, जूँ, भौंरे, पक्षी, सर्प, घोड़े, गाय, हाथी, बाघ, सिंह, श्रृगाल, हरिण एवं इनके अतिरिक्त अन्य भी करोड़ों ग्राम्य एवं वन्य-पशु राजभवन में चारों ओर दिखाई पड़ने लगे| उस झुँड-के-झुँड प्राणी समूह को देखकर राजा के आश्चर्य की सीमा न रही| वे यह विचार करने लगे कि अब मुझे क्या करना चाहिए| इतने में ही सारी बात उनकी समझ में आ गई| अहो! यह तो परम बुद्धिमान कपिल और जैगीषव्य मुनि का ही महात्म्य है| फिर तो राजा अश्वशिरा ने हाथ जोड़कर उन ऋषियों से भक्तिपूर्वक पूछा- ‘विप्रवरों! यह क्या प्रपंच है?’

कपिल और जैगीषव्य ने कहा- ‘राजन! हम दोनों से तुम्हारा प्रश्न था कि भगवान् श्रीहरि की आराधना एवं उन्हें प्राप्त करने का क्या विधान है?’ महाराज! इसीलिए हम लोगों ने तुम्हें यह दृश्य दिखलाया है| राजन्! सर्वज्ञ भगवान् श्रीहरि की यह त्रिगुणात्मक सृष्टि है, जो तुम्हें दृष्टिगोचर हुई है| भगवान् नारायण एक ही है| वे अपनी इच्छा के अनुसार अनेक रुप धारण करते रहते है| किसी काल में जब वे अपनी अनंत तेजो राशि को आत्मसात् करके सौम्यरुप में सुशोभित होते है, भी मनुष्यों को उनकी झाँकी प्राप्त होती है| अतैव उन नारायण की अव्यक्त रुप में अराधना सधः फलवती नही हो पाती| वे जगत प्रभु परमात्मा ही सब के शरीर में विराजमान है| भक्ति का उदय होने पर अपने शरीर में ही परमात्मा का साक्षात्कार हो सकता है| परमात्मा किसी स्थान विशेष में ही रहते हो, ऐसी बात नही है, वे तो सर्वव्यापक है| महाराज! इसी निमित हम दोनों के प्रभाव से तुम्हारे सामने यह दृश्य उपस्थित हुआ है| इसका प्रयोजन यह है कि ‘भगवान् की सर्वव्यापकता पर तुम्हारी आस्था दृढ़ हो जाए| राजन्! इसी प्रकार तुम्हारे इन मंत्रियों एवं सेवकों के- सभी के शरीर में भगवान् श्रीहरि विराजमान है| राजन्! हमने जो देवता एवं कीट-पशुओं के समूह तुम्हें अभी दिखलाये है, वे सब-के-सब विष्णु के ही रुप है| केवल अपनी भावनाओं को दृढ़ करने की आवश्यकता है; क्योंकि भगवान् श्रीहरि तो सब में व्याप्त है उनके समान दूसरा कोई भी नही है, ऐसी भावना से उन श्रीहरि की सेवा करनी चाहिए| राजन्! इस प्रकार मैंने सच्चे ज्ञान का तुम्हारे सामने वर्णन कर दिया| अब तुम अपनी परिपूर्ण भावना से भगवान् नारायण का, जो सबके परमगुरु है, स्मरण करो| धूप-दीप आदि पूजा की सामग्रियों से ब्रह्मणों को तथा तर्पण द्वारा पितरों को तृप्त करो| इस प्रकार ध्यान में चित को समाहित करने से भगवान् नारायण शीघ्र ही सुलभ हो जाते है|