गर्व-भंग

संध्या के पूर्व का समय था| एकचक्रा नगर के एक मकान के एक कमरे में सात मनुष्य बैठे हुए परस्पर वार्तालाप कर रहे थे| मकान उस ब्राह्मण का था, जिसके घर में पांडव अपनी मां कुंती के साथ टिके हुए थे|

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सात मनुष्यों में पांच तो स्वयं पांडव थे, एक स्वयं ब्राह्मण था और सातवां एक अन्य ब्राह्मण था, जो सुदूर से आकर रात बिताने के उद्देश्य से ब्राह्मण के घर ठहर गया था| वह बड़ी रुचि के साथ पांडवों और ब्राह्मणों को पांचाल देश की बातें बता रहा था| उसने पहले तो पांचाल देश के वैभव का वर्णन किया, किंतु धृष्टद्युम्न और द्रौपदी के जन्म की कहानी भी सुनाई|

अतिथि ब्राह्मण जन्म की कहानी सुनाने के बाद द्रौपदी के स्वयंवर की चर्चा करने लगा| वह चर्चा कर ही रहा था कि वेदव्यास जी ने कमरे में प्रवेश किया| उन्होंने प्रवेश करते हुए कहा, “हां, पांचाल की राजधानी में द्रौपदी का स्वयंवर हो रहा है| उसने भगवान शंकर को प्रसन्न करके वरदान में पांच पति मांगे हैं| उसकी इच्छा अवश्य पूर्ण होगी| पांडव भी तो पांच भाई हैं|” वेदव्यास जी अपने कथन के समाप्त करते हुए कमरे से बाहर चले गए| पांडवों को छोड़कर उनके कथन के अर्थ को किसी ने भी नहीं समझा| पांडव यह समझ गए कि, वेदव्यास जी क्या कहने आए थे|

अतिथि ब्राह्मण पांडवों के नाम को सुनकर बोला, “सुनते हैं, महाराज द्रुपद अपनी पुत्री का विवाह पांडवों से ही करना चाहते हैं, पर पांडव तो वारणावत में लाह के घर में जलकर भस्म हो गए हैं|” ब्राह्मण ने भी अतिथि ब्राह्मण की बात का समर्थन किया| उसने कहा, “हां भाई, वारणावत में वह बड़ी दुखद घटना घटी|”

पांडव बातचीत से अपना पिंड छुड़ाकर अपनी मां के पास चले गए| दूसरे दिन प्रभातकाल होते ही पांडव ब्राह्मण के घर से विदा हो रहे थे| ब्राह्मण ही नहीं, एकचक्रा के बहुत से स्त्री-पुरुष आंखों में अश्रु लिए हुए उस ब्राह्मणी को विदा कर रहे थे, जिसके बेटे ने बक का संहार किया था|

पांडव अपनी मां कुंती के साथ ब्राह्मण के घर से निकलकर पांचाल की ओर पैदल ही चल पड़े| रास्ते में और भी बहुत-से ब्राह्मण मिले, जो दान-दक्षिणा पाने की आशा में पांचाल जा रहे थे| वे सभी ब्राह्मण पांडवों के साथ चलना चाहते थे, पर पांडव किसी के साथ चलना नहीं चाहते थे| वे शीघ्र ही साथ छोड़ दिया करते थे और अकेले चलने लगते थे| पांडव मंजिल पर मंजिल समाप्त करते हुए गंगा के तट पर उपस्थित हुए| एक वृक्ष के नीचे बैठकर सुस्ताने लगे| अर्जुन को प्यास लगी हुई थी, इसलिए वह गंगा में पानी पीने के लिए चला गया|

अर्जुन जब गंगा का पानी अंजलि में भरकर पीने लगा, तो कोई बोल उठा, “क्या कर रहे हो? देख रहे हो न, मैं नहा रहा हूं| तुम पानी को गंदा कर रहे हो? भाग जाओ यहां से|” कंठ स्वर एक गंधर्व का था, जिसका नाम चित्ररथ था| उसने अपने रूप, अपनी विद्या और अपने बल का बड़ा घमण्ड था| वह अपने आगे मनुष्य को तो क्या ईश्वर को भी तुच्छ समझता था| अर्जुन ने चित्ररथ की बात को सुनकर उसकी ओर देखा| उसने उसकी ओर देखते हुए कहा, “गंगा तो सबकी है| तुम आनंदपूर्वक नहाओ और मैं पानी पीकर तृषा शांत करूं| मेरे पानी पीने से गंगा का पानी गंदा कैसे हो जाएगा?”

चित्ररथ बड़े गर्व के साथ बोले, “तुम मेरी बराबरी कर रहे हो? मैं गंधर्व हूं और तुम हो एक साधारण मनुष्य-भिखारी बाह्मण| मैं नहाकर चला जाऊं, तो जी भर का पानी पीना|”

गंधर्व के कथन ने अर्जुन को क्षुब्ध कर दिया| वह उसकी बात पर ध्यान न देकर फिर पानी पीने लगा| गंधर्व भी क्षुब्ध हो उठा| वह क्रोध भरे स्वर में बोला, “भिखारी ब्राह्मण ! क्या तेरा काल निकट आया है?” अर्जुन की रगों में बिजली दौड़ गई| उसने गंगा के पानी में घुसकर चित्ररथ को जा पकड़ा| वह उसे खींचकर बाहर लाता हुआ बोला, “देखो तो किसका काल निकट आया है|”

चित्ररथ जब अर्जुन से भिड़ गया, तो अर्जुन ने उसे धरती पर गिराकर बंदी बना लिया| चित्ररथ के साथी गंधर्व जब उसकी सहायता के लिए दौड़े, तो अर्जुन ने उन्हें मारकर भगा दिया| अर्जुन चित्ररथ को बंदी रूप में घसीटता हुआ अपनी मां के पास ले गया| कुंती उसे देखते ही बोली, “बेटा अर्जुन ! यह तुम किसे बांधकर लाए हो?”

अर्जुन बोला, “मां, यह एक गंधर्व है| इसका नाम चित्ररथ है| इसे अपने रूप, अपने बल और अपनी विद्या का बड़ा घमंड है| घमण्डी को दण्ड देना ही चाहिए|”

कुंती के मुख से अर्जुन का नाम सुनकर चित्ररथ चौंक पड़ा – क्या यह ब्राह्मण अर्जुन है? अवश्य ही यह अर्जुन ही है| यदि यह अर्जुन न होता तो मुझे बंदी नहीं बना सकता था|

चित्ररथ बोला, “अर्जुन ! मुझसे भूल हुई, मुझे क्षमा कर दो| मैंने तुम्हारा अपमान अनजाने में किया था| अनजाने में किया हुआ अपराध क्षम्य होता है| मैं तुम्हारी वीरता पर मुग्ध हूं| मैं तुम्हें एक ऐसी विद्या बता रहा हूं जिससे तुम आकाश मार्ग से उड़कर कहीं से कहीं जा सकते हो|”

अर्जुन ने चित्ररथ के बंधन खोल दिए| वह बंधन खोलता हुआ बोला, “मैं भी आज से तुम्हें अपना मित्र समझूंगा|” बंधन से मुक्त होकर चित्ररथ बोला, “अर्जुन, तुम सब द्रौपदी के स्वयंवर में पांचाल जा रहे हो न? मैं तुम्हें एक रथ दे रहा हूं| तुम रथ पर बैठकर पांचाल जाओ|”

अर्जुन ने कृतज्ञता प्रकट करते हुए कहा, “नहीं मित्र, रथ की आवश्यकता नहीं है| हम पैदल ही इसी वेश में पांचाल जाएंगे|” चित्ररथ अर्जुन की वीरता पर मुग्ध होकर और भी बहुत कुछ देना चाहता था, पर अर्जुन ने उसकी मित्रता को छोड़कर कुछ भी स्वीकार नहीं किया| उन्नत्मना लोग वस्तु को नहीं, सुंदर भावों और विचारों को ही महत्व देते हैं|