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हिंसा का उत्तर प्रतिहिंसा नहीं

हिंसा का उत्तर प्रतिहिंसा नहीं

प्राचीन काल में कान्यकुब्ज (वर्तमान कन्नौज) नगर में शूरदत्त नाम का एक ब्राह्मण रहता था| वह सौ गांवों का स्वामी था|

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उस राज्य का राजा बाहुदत्त भी उसका बहुत सम्मान करता था| शूरदत्त को समस्त सुख उपलब्ध थे, किंतु संतान न होने का दुख उसे सालता रहता था| उसने अनेक देवी-देवताओं से मन्नतें मांगीं, अनेक प्रकार क्व यज्ञ-हवन कराए, किंतु उसके मन की मुराद पूरी न हुई| इस प्रकार एक तरह से वह निराश ही हो गया| उसने सोच लिया कि संतान का सुख उसके भाग्य में है ही नहीं| इस प्रकार अनेक वर्ष बीत गए| अंतत: प्रौढ़ावस्था में उसकी यह इच्छा पूर्ण हुई| उसके पिछले जन्म के कर्मों के पुण्य प्रताप उदित हुए और एक दिन उसका घर बच्चे की किलकारियों से गूंज उठ| प्रभु की कृपा से उसे पुत्र रत्न पैदा हुआ| शूरदत्त और उसकी पत्नी ने उसका नाम रखा – वामदत्त|

वामदत्त जब यौवनावस्था को प्राप्त हुआ तो उसके माता-पिता को उसके विवाह की चिंता हुई| तब उन्होंने एक सुंदर-सी कन्या का चयन कर उसके साथ वामदत्त का विवाह कर दिया| उस कन्या का नाम था – रत्नमोहिनी|

कुछ वर्ष भली-भांति बीते, फिर एक दिन शूरदत्त का देहांत हो गया| पति के मरने के कुछ महीने बाद वामदत्त की माता भी चल बसी| इस कारण गृहस्थी चलाने की समस्त जिम्मेदारी वामदत्त को संभालनी पड़ी| यद्यपि वामदत्त के पास अपने पिता द्वारा विरासत में छोड़ी गई बहुत-सी संपत्ति थी, किंतु उसका मन सदैव यही चाहता रहता था कि वह सेना में भर्ती होकर अपने पौरुष के जौहर दिखाए, अत: पत्नी से परामर्श करके एक दिन वह राजा की सेना में भर्ती हो गया| उसके पीछे उसकी पत्नी रत्नमोहिनी जायदाद का काम संभालने लगी|

रत्नमोहिनी आरंभ से ही स्वेच्छाचारिणी थी| जब तक उसके सास-ससुर जीवित रहे, वह अपनी मनमानी नहीं कर पाई, किंतु जब उनका देहांत हो गया तो उसकी पुरानी प्रवृति पुन: उभर आई| वह अपने पति पर अंकुश लगाने लगी| हर बात में उसकी उपेक्षा करने लगी| वामदत्त द्वारा राजा की सेना में भर्ती होने का शायद यह भी एक कारण था|

खैर, समय गुजरता गया| तत्पश्चात एक दिन ऐसी घटना घट गई, जिसने वामदत्त की जिंदगी से भूचाल पैदा कर दिया|

एक दिन वामदत्त का चाचा उसके पास सैनिक छावनी में पहुंचा| वामदत्त ने उसका खूब स्वागत-सत्कार किया| उस रात उसने अपने चाचा से वहीं ठहरने का आग्रह किया| रात को भोजनोपरांत जब घर-परिवार की बातें हुईं तो उसके चाचा ने बताया – “पुत्र वामदत्त! मुझे बताते हुए संकोच हो रहा है कि तुम्हारी पत्नी तुम्हारे यहां आने के बाद दुराचारिणी हो गई है| उसके एक ग्वाले के साथ अनैतिक संबंध बन गए हैं| पहले वह ग्वाला अपना काम समाप्त करके अपने घर चला जाता था, किंतु अब तुम्हारी पत्नी ने उसे अपने ही मकान में एक कक्ष दे दिया है| तुम्हारी पत्नी रत्नमोहिनी उसका हर प्रकार से ध्यान रखती है, उसे वह भोजन भी अपने हाथों से बनाकर खिलाती है| सारे नगर में उनके संबंधों की चर्चा हो रही है| मैं चाहता हूं तुम कुछ दिनों का अवकाश लेकर घर चलो और अपनी पत्नी को समझाओ कि वह ऐसा कोई काम न करे, जिससे हमारे कुल को कलंकित होना पड़े| पुत्र! मेरी तो इच्छा यही है कि राजकीय नौकरी का मोह त्यागकर स्थायी रूप से हमारे साथ ही रहो, ताकि अपनी पत्नी पर नियंत्रण रख सको|”

अपने चाचा से पत्नी के दुराचारिणी होने की बात सुनकर वामदत्त क्रोध से भर उठा| उसने वह रात जैसे-तैसे करके काटी और सवेरे अपने नायक को अपना त्यागपुत्र सौंपकर घर के लिए चल पड़ा| मार्ग में उसने विचार किया – ‘हो सकता है, नगरवासी ईर्ष्यावश मेरी पत्नी पर झूठा दोषारोपण कर रहे हों, अत: सबसे पहले मैं स्वयं अपनी पत्नी के चरित्र का मूल्यांकन करूंगा, तत्पश्चात ही कोई कदम उठाऊंगा|’ ऐसा विचारकर वामदत्त जब अपने नगर में पहुंचा तो वह सीधा अपने घर नहीं गया| वह घर के समीप एक बगीचे की घनी झाड़ी के पीछे छिपकर बैठ गया और ग्वाले के घर लौटने की प्रतीक्षा करने लगा|

शाम हुई तो ग्वाला पशुओं को लेकर लौटा| वामदत्त ने देखा कि अब वह पहले जैसा दीन-हीन फटे-पुराने वस्त्र पहनने वाला ग्वाला नहीं रहा था| उस वक्त वह वही पोशाक पहने हुए था, जो कभी उसने (वामदत्त ने) बड़े चाव से अपने लिए तैयार कराई थी| पैरों में चमरौधे की जूतियों के बजाय वह चमचमाती उत्तम किस्म की जूतियां पहने हुए था| यह देखकर उसे संदेह की और भी पुष्टि हो गई|

रात हुई तो रत्नमोहिनी सोलह सिंगार किए उसके लिए स्वादिष्ट भोजन बनाकर लाई| जब तक ग्वाले ने भोजन किया, वामदत्त की पत्नी उस ग्वाले को पंखे से हवा करती रही| अपने क्रोध पर जबरन काबू करता हुआ वामदत्त सब कुछ देखता रहा, लेकिन भोजनोपरांत जब उसकी पत्नी उसी (वामदत्त) की सेज पर लेटकर ग्वाले को आमंत्रण देने लगी तो वामदत्त के सब्र का बांध टूट गया| उसने अपनी कमर में बंधी तलवार निकाल ली और तेजी से चलकर कक्ष में पहुंच गया|

“ठहर तो दुष्ट! अभी तुझे तेरी करतूतों का मजा चखाता हूं|” ऐसा कहकर वह उस ग्वाले की ओर झपटा| बचने के लिए ग्वाला तेसी से उस पलंग के नीचे छिप गया, जिस पर रत्नमोहिनी लेटी हुई थी|

अपने पति को एकाएक आया हुआ देख कुछ पल के लिए तो रत्नमोहिनी भी सकते में आ गई, लेकिन फिर वह चैतन्य हुई| उसने साड़ी के छोर में बंधी एक पुड़िया खोली और कोई मंत्र पढ़ते हुए पुड़िया में रखी राख अपने पति की ओर उछाल दी| जैसे ही वामदत्त पर वह राख गिरी, अचानक एक चमत्कार हो गया| वामदत्त का शरीर गायब हो गया और उसके स्थान पर एक भैंसा वहां प्रकट हो गया| वामदत्त को मालूम ही नहीं था कि विवाह से पूर्व ही उसकी पत्नी रत्नमोहिनी ने एक शाकिनी को अपनी पूजा से प्रसन्न करके तंत्र विद्या की प्राप्ति कर ली थी| शाकिनी द्वारा दी गई सिद्धि से वह किसी का भी अनिष्ट करने में समर्थ थी| वह किसी को भी किसी भी रूप में बदलने में दक्ष हो गई थी|

भैंसा बनते ही वामदत्त ने घबराकर कक्ष से भाग जाना चाहा, किंतु कक्ष के दरवाजे सहसा बंद हो गए, अत: वह बाहर न निकल सका| तब आवाज देकर रत्नमोहिनी ने ग्वाले को पलंग के नीचे से निकल आने का आदेश दिया| ग्वाला इस चमत्कार को देखकर भय से कांपने लगा| रत्नमोहिनी ने उसे आश्वस्त किया – “घबराओ मत प्रिय! मैं तुम पर अपनी तंत्र विद्या का प्रयोग नहीं करूंगी| अब इस भैंसे को कक्ष से बाहर ले जाओ और अन्य भैंसों के साथ इसे पशुशाला में बांधने के बाद इस पर इतने डंडे बरसाना कि यह बेदम होकर नीच गिर पड़े|”

ग्वाले ने उसके आदेश का पालन किया| उसने भैंसा बने वामदत्त पर इतने डंडे बरसाए कि उसके मुंह से खून की धारा फूट पड़ी| कमजोरी के कारण वह चेतनाशून्य होकर भूमि पर गिर पड़ा| तब ग्वाले ने उसकी गर्दन में एक मोटी सांकल डाल दी और अन्य पशुओं के बीच उसे एक खूंटे से बांध दिया| उस दिन के पश्चात नित्यप्रति उस पर जुल्म ढाए जाने लगे| उसे नाम मात्र को चारा दिया जाता और ढेरों वजन उसकी पीठ पर लादकर इधर-से-उधर पहुंचाया जाता| परिणाम यह निकला कि भैंसा बना वामदत्त बहुत कमजोर हो गया, उसमें चलने-फिरने की शक्ति भी बाकी न बची|

कहा जाता है कि हर जुल्म का एक दिन अंत होता है| एक दिन जब ग्वाला उसकी पीठ पर बोझा लादकर उसे डंडों से पीटता खेतों की ओर ले जा रहा था, तो मार्ग में एक योगिनी ने उसे देख लिया| अपने तपोबल से वह सब कुछ समझ गई कि भैंसा कोई स्वाभाविक भैंसा नहीं, अपितु एक मनुष्य है| तब उसने ग्वाले से कहा – “दुष्ट ग्वाले! तत्काल इस भैंसे पर जुल्म करना बंद कर दे, अन्यथा अपनी तंत्रशक्ति से मैं तुझे ही भैंसा बना दूंगी| तब तू इसी भांति पशु रूप में रहते हुए आजीवन बोझा ढोता रहेगा|”

ग्वाला तंत्रशक्ति का चमत्कार पहले ही देख चुका था| योगिनी की बात सुनकर वह भयभीत हो गया और तत्काल वहां से भाग गया| तब योगिनी भैंसा बने वामदत्त के पास पहुंची| उसने अपनी तंत्रशक्ति का प्रयोग किया| तत्काल ही भैंसा अपना स्वरूप छोड़कर अपनी स्वाभाविक अवस्था में आ गया| उस समय भी वह भय के कारण थर-थर कांप रहा था|

योगिनी ने उसके सिर पर हाथ रखकर उसे शांत किया, फिर पूछा – “पुत्र! तुम्हारी यह हालत कैसे हुई?”

वामदत्त ने दोनों हाथ जोड़कर पहले उसे प्रणाम किया, फिर कहने लगा – “हे माता! मेरी यह हालत मेरी पत्नी ने ही बनाई है|”

योगिनी द्वारा आगे पूछने पर वामदत्त ने उसे सारी कहानी कह सुनाई|

सुनकर योगिनी ने कहा – “पुत्र! तुम पर निश्चय ही बहुत अत्याचार किया गया है| हमारे ग्रंथों में कहा गया है – ‘शठे शाठ्यम् समाचरेत्|’ अर्थात दुष्ट व्यक्ति के साथ दुष्टता का ही व्यवहार करना चाहिए, अत: अब तुम भी अपनी दुष्ट पत्नी के साथ वैसा ही व्यवहार करो, जैसा उसने तुम्हारे साथ किया है|”

वामदत्त बोला – “हे योगेश्वरी माता! मैं उस दुराचारिणी के सम्मुख कैसे जाऊं? उसके पास गया तो अपनी तंत्रशक्ति से मुझे फिर कोई पशु बना देगी|”

तब योगिनी ने उसे मंत्र पढ़कर कुछ सरसों के दाने दिए और कहा – “तुम यह सरसों के दाने लेकर उसके पास जाओ और इन्हें उसकी ओर उछाल देना| ये सरसों के दाने उसकी तंत्रशक्ति को उससे छीन लेंगे| तब वह एक साधारण स्त्री मात्र रह जाएगी|”

यह सुनकर वामदत्त ने कहा – “हे माता! उसके साधारण स्त्री बन जाने से भी मेरा प्रतिशोध पूरा नहीं होगा| आप ही तो कह रही हैं कि जैसा व्यवहार उसने मेरे साथ किया है, मैं भी उसके साथ वैसा ही व्यवहार करूं|”

“तुमने ठीक कहा ही पुत्र! उस स्त्री ने तुम्हें अनगिनत दुख दिए हैं, इसका एकमात्र विकल्प यही है कि तुम भी उसे भरपूर पीड़ा पहुंचाओ|” योगिनी ने कहा|

“यह कैसे संभव है माता?” वामदत्त ने पूछा – “वह तो मेरी शत्रु बन गई है| अब वह मेरे साथ तो कदापि नहीं रहेगी| उस ग्वाले के साथ कहीं चली जाएगी और मैं उससे बदला लेने की कामना लिए यूं ही व्याकुल होता रहूंगा|”

“इसका भी उपाय है मेरे पास|” योगिनी बोली – “मैं तुम्हें मंत्रपूरित कुछ और सरसों के दाने देती हूं| सबसे पहले उस ग्वाले का सिर काट देना और तत्पश्चात उस दुराचारिणी स्त्री की ओर यह सरसों के दाने उछाल देना| सरसों के दाने जैसे ही उसके शरीर का स्पर्श करेंगे, वह घोड़ी बन जाएगी| तब तुम उसे अपनी घुड़साल में बांधकर उससे वैसा ही व्यवहार कर सकते हो, जैसा उसने तुम्हारे साथ किया है|” यह कहकर योगिनी ने कुछ और मंत्रपूरित सरसों के दाने उसे दे दिए| फिर उसने कहा – “अपना काम समाप्त करके तुम शीघ्र ही मेरे पास लौटना पुत्र! मैं तुम्हारी जीवन बगिया में एक नई बहार ला दूंगी|”

वामदत्त ने सिर हिलाकर स्वीकृति जताई और प्रसन्न भाव से अपने घर की ओर चल पड़ा| घर पहुंचकर उसने सबसे पहले ग्वाले का सिर काटा, फिर योगिनी द्वारा मंत्रपूरित सरसों के दाने अपनी पत्नी के शरीर पर फेंककर उसे घोड़ी बना दिया| उसने घोड़ी बने रत्नमोहिनी को घुड़साल में बांधा और वापस योगिनी के पास लौट आया| योगिनी उसे अपनी मायावी शक्ति द्वारा विद्याधरों के लोग हिमालय पर्वत पर ले गई| वहां उसने अपनी बेटी कांतिमती का विवाह वामदत्त के साथ कर दिया| कुछ दिन विद्याधरों के लोक में रहकर दोनों वापस कान्यकुब्ज वापस लौट आए| अब आरंभ हुआ रत्नमोहिनी को पीड़ा पहुंचाने का सिलसिला|

वामदत्त ने नियम बना रखा था कि भोजन से पूर्व वह घोड़ी बनी रत्नमोहिनी को गिनकर सात डंडे जरूर मारता था| हां, इतनी मेहरबानी वह उस पर अवश्य करता था कि उसे भूखी नहीं रखता था| यद्यपि उसकी पत्नी कांतिमती उसे ऐसा करने से बहुत रोकती थी| कारण यह था कि वह एक विद्याधर की बेटी थी और विद्याधरों का उद्देश्य ही हमेशा प्राणिमात्र पर दया करना होता है| हां, किसी पर अत्याचार होता वह देख नहीं पाते और तुरंत उसका प्रतिरोध करने को तैयार हो जाते हैं, जैसा कि वामदत्त की सास ने अपनी आंखों से वामदत्त की दुर्दशा देखकर रत्नमोहिनी के साथ किया था|

इसी कथा क्रम में एक बार एक ब्राह्मण अतिथि वामदत्त के घर आकर ठहरा| वामदत्त ने उसका भरपूर स्वागत-सत्कार किया| ब्राह्मण रात को वहीं ठहरा| अगली सुबह वामदत्त को भी कहीं जाना था, अत: उसने कांतिमनी से कह दिया कि ब्राह्मण के लिए भोजन बनाने के साथ-साथ वह उसके लिए (स्वयं के लिए) भी भोजन बनाए| कांतिमनी ने ऐसा ही किया| दोनों जब भोजन करने के लिए चौके में बैठे तो अचानक वामदत्त को याद आ गया कि नियमनुसार भोजन से पूर्व आज उसने घोड़ी बनी अपनी पूर्व पत्नी रत्नमोहिनी को डंडे तो मारे ही नहीं है, इसलिए वह भोजन से उठकर घुड़साल में गया और सात डंडे मारकर वापस लौट आया| यह देखकर ब्राह्मण को आश्चर्य हुआ| उसने वामदत्त से परोसी हुई थाली छोड़कर बाहर जाने का कारण पूछा| तब वामदत्त ने उसे सारी कहानी सुना दी| सुनकर ब्राह्मण कहने लगा – “वामदत्त! यह तो तुम ठीक कार्य नहीं कर रहे हो| माना कि तुम्हारी पूर्व पत्नी ने तुम पर बहुत अत्याचार किए हैं, लेकिन हिंसा का जवाब प्रतिहिंसा से देना तो किसी भी तरह से उचित नहीं होता| सहिष्णुता एवं सर्व प्राणियों से समभाव रखने को तो धर्म-शास्त्रों में बहुत पुण्यकारी कार्य बताया गया है और फिर स्त्रियों पर अत्याचार करने को तो हमारे देश में बहुत ही निकृष्ट कार्य माना गया है| इस प्रकार तो तुम अपने अर्जित किए हुए पुण्यों का क्षय ही कर रहे हो| मेरा कहना मानो, आज के बाद अपनी पूर्व पत्नी पर अत्याचार करना बंद कर दो| उसे मुक्त कर दो और अपनी इस पत्नी के साथ संसार में रहकर शुभ कार्य करते हुए सुखी जीवन व्यतीत करो| मित्र! हानि, लाभ, जीवन व मरण इन चारों चीजों पर मनुष्य का कोई वश नहीं चलता| ये चारों चीजें तो व्यक्ति को अपने पूर्व जन्मों के कर्मानुसार ही मिलती हैं| मेरा परामर्श है कि इस विषय में तुम एक बार फिर से अपनी योगिनी सास से मिलकर उनसे विचार कर लो| प्राणिमात्र पर दया करना, जैसा व्यवहार तुम दूसरों से चाहते हो, वैसा ही व्यवहार दूसरों के साथ करना ही भारतीय संस्कृति का मूलमंत्र है|”

ब्राह्मण के इस प्रकार समझाने पर वामदत्त का संताप कुछ कम हुआ| तब उसने अपनी पत्नी कांतिमती से विचार- विमर्श किया| कांतिमती ने भी ब्राह्मण की बात का समर्थन किया| वामदत्त बोला – “तब तो प्रिये! तुम्हीं अपनी माता का आह्वान करो| अपनी माता की तरह तुम भी मंत्र-विद्या में निपुण हो, अपने योगबल से अपनी माता को यहां बुला लो|”

पति की आज्ञानुसार कांतिमती ने अपने योगबल से अपनी माता का आह्वान किया| अपनी पुत्री का आह्वान सुनकर यौगिनी वहां पहुंची| वामदत्त ने ब्राह्मण द्वारा कही हुई सभी बातें उसे कह सुनाईं| सुनकर योगिनी ने कहा – “पुत्र वामदत्त! उस ब्राह्मण ने सत्य ही कहा है| हिंसा से हिंसा का कभी दमन नहीं होता, अपितु हिंसा और भी भड़कती है और यह सिलसिला अनवरत चलता ही रहता है| रत्नमोहिनी ने जो कुछ तुम्हारे साथ किया था, उसकी सजा उसे मिल चुकी है| उसकी शाकिनी द्वारा दी गई समस्त शक्तियों को मैं अपने तपोबल से पहले ही छीन चुका हूं| अब तो वह एक निरीह स्त्री मात्र है, अत: अब उसे मुक्त कर दो| वह जैसा जीवन जीना चाहे, उसे जीने दो| यहां की समस्त संपत्ति, धन-दौलत उसे दे दो और तुम दोनों मेरे साथ विद्याधर लोक में चलकर फिर से अपना नया जीवन शुरू करो|”

सुनकर वामदत्त ने कहा – “हे माता! ब्राह्मण के उपदेश को सुनकर मेरा क्रोध तो पहले ही काफी कुछ शांत हो गया था| रहा-सहा क्रोध आपका उपदेश सुनकर जाता रहा| अब मुझे अपनी पूर्व पत्नी से कोई शिकायत नहीं रही| अब कृपा करके उसका पुराना स्वरूप वापस कर दीजिए|”

तब वे तीनों घुड़साल में गए| योगिनी ने अपने मंत्र बल से रत्नमोहिनी को फिर से उसका स्वरूप वापस दे दिया| जब वह अपने पुराने रूप में आ गई तो योगिनी ने कहा – “रत्नमोहिनी! आज से यहां की जो भी धन-संपत्ति है, उस पर तुम्हारा अधिकार है| सत्क्रम करते हुए उसका उपभोग करो, लेकिन एक बात मेरी याद रखना| तुम एक भारतीय स्त्री हो, तुमने अपनी पूर्वज नारियों की गाथाएं अवश्य सुनी होंगी| उन पूर्वज महान नारियों की गाथाओं का स्मरण करते हुए सद्जीवन व्यतीत करो| प्रयास करो कि तुम भी अपनी पूर्वज नारियों की भांति महान बन सको| दुराचरण छोड़कर यदि तुम मेरी कही हुई बातों पर ध्यान रखोगी तो जीवन में तुम्हें कभी दुख प्राप्त नहीं होगा, तुम हमेशा सुखी रहोगी|”

योगिनी की बातें सुनकर रत्नमोहिनी की आंखों से पश्चाताप के आंसू बह निकले| वह योगिनी के चरणों में गिरकर बार-बार अपने किए दुष्कर्मों की क्षमा मांगने लगी| दयालु योगिनी ने तब उसे क्षमा कर दिया| उसने अपने पति से भी बार-बार क्षमा मांगी और कांतिमती के सिर पर हाथ रखकर अखंड सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद दिया|

अपनी धन-संपत्ति रत्नमोहिनी को देकर तब वामदत्त अपनी पत्नी कांतिमती सहित अपनी सास के साथ विद्याधर लोक चला गया| वहां उसने आशुतोष शंकर की भक्तिभाव से तपस्या की| भगवान शिव की कृपा से उसे विद्याधरों जैसी अनेकों सिद्धियां प्राप्त हो गईं| तब वामदत्त ने मलयपर्वत के रजतकूट नामक शिखर पर एक उत्तम नगर बसाया और सुखपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करने लगा|