हस्तिनापुर की ओर प्रस्थान
अठारह-दिवसीय युद्ध समाप्त हो चूका था| पांडव धृतराष्ट्र के पास गए और उनके चरणों पर गिरकर क्षमा माँगी| धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर को गले लगा लिया, फिर भीम को बुलाया| भीम के महाराज के पास पहुंचने से पूर्व ही कृष्ण ने शीघ्रता से मनुष्य के आकार का एक लोहे का पुतला, जन्म से अंधे पर अत्यधिक शक्तिशाली, धृतराष्ट्र के हाथों में पकड़ा दिया|
“हस्तिनापुर की ओर प्रस्थान” सुनने के लिए Play Button क्लिक करें | Listen Audio
कृष्ण ने उनके अभिप्राय को समझ लिया था और वे किसी भी दुर्घटना के लिए तैयार थे| धृतराष्ट्र ने अपने मृत पुत्र दुर्योधन के बारे में सोचा और रोष में आकर पूरी शक्ति से उस लोहे के पुतले को मसल दिया| वे जोर से चिल्लाए, “मैंने भूल से भीम को मार दिया है|” कृष्ण बोले, “मैं जानता था कि ऐसा ही होगा, इसलिए मैंने भीम के बदले एक लोहे का पुतला आपके हाथों में दिया था|”
पांडव अब गांधारी से मिलने गए और जो कुछ हुआ था उसके लिए क्षमा माँगी| गांधारी रोते हुए बोली, “यदि तुमने हमारे सौ बेटों में से एक पुत्र को भी जीवित छोड़ दिया होता तो वह हमारे बुढ़ापे का सहारा बन जाता| परन्तु तुम्हारा क्या दोष? दुर्योधन ने ही युद्ध प्रारंभ किया था|” यह कहकर गांधारी ने अपना मुंह फेर लिया क्योंकि वे डर गई कि उनका शोक-संतप्त हृदय कहीं अपनी क्रोधाग्नि से युधिष्ठिर को भस्म न कर दे| तभी उन्हें भूल से आँखों की पट्टी के नीचे झिरी से युधिष्ठिर के पैर का अंगूठा दिखा| सबके देखते ही देखते वह कोयले के समान काला पड़ गया|
गांधारी को उसी समय श्रीकृष्ण की उपस्थिति का ध्यान आया| वह बोलीं, “देवकीनंदन आप यहां हैं और युद्ध में भी आप साथ थे| आप चाहते तो शायद युद्ध को रोक लेते, मगर आपने ऐसा नहीं किया| मै आपको क्षमा करूँ या न करूँ लेकिन मैं आपके यादवकुल का विनाश और अंत होता देख रहीं हूँ| कृपया आप मेरे सामने से दूर चले जाएँ|” श्रीकृष्ण और अन्य सब उपस्थित जन यह सुनकर काँप उठे|
पांडव अपनी माता कुंती से चौदह वर्षों के बाद मिले थे| माँ के चरणों पर गिरकर उन्होंने आशीर्वाद माँगा| कुंती ने युधिष्ठिर से कर्ण का अंतिम संस्कार करने के लिए कहा| यह सुनकर युधिष्ठिर बहुत चकित हुए| कुंती ने रोते हुए कहा, “कर्ण हमारा शत्रु नहीं था| वह मेरा ज्येष्ठ पुत्र था|” यह सुनकर युधिष्ठिर शोक में डूब गए| युधिष्ठिर बोले, “हमने अपने भाई का वध कर दिया| माताश्री आपने हमें पहले क्यों नहीं बताया?”
कुंती बोलीं, “मुझे इस बात को गुप्त ही रखना था, मैं असहाय थी|” शोक-विदीर्ण हृदय से युधिष्ठिर बोले, “मैं पापी हूँ, मैंने अपने भाई को मारा है|” साधुओं और ऋषियों ने उन्हें सांत्वना दी और बताया, “कर्ण को परशुराम द्वारा श्राप मिला था जिसके अनुसार ही उनकी मृत्यु हुई| परशुराम ने कर्ण से कहा था *”जिस समय तुम्हें रण-विद्या की सबसे अधिक आवश्यकता होगी, उस समय मेरी दी हुई शिक्षा तुम भूल जाओगे|” उन्हें एक ब्राह्मण ने भी गाय का वध करने पर श्राप दिया था| ब्राह्मण ने कहा था, “जब तुम्हारा अपने सबसे बड़े शत्रु से सामना होगा, तब तुम असहाय हो जाओगे|” क्रोध के एक क्षण में कर्ण अपना विशेष अस्त्र घटोत्कच के विरुद्ध करने की योजना कर चुके थे जबकि उसका प्रयोग अर्जुन के विरुद्ध करने की योजना बनाई थी| कर्ण बहुत उदार, दानी और तेजस्वी थे| भगवान सूर्य की चेतावनी कि इंद्र को वे अपने कुंडल और कवच न दें, अनसुनी करके उन्होंने वे भी दान कर दिये| युद्ध आरंभ होने से पूर्व कर्ण जान गए थे कि ज्येष्ठ कुंती-पुत्र होने के नाते वे हस्तिनापुर के राजा बन सकते हैं, परन्तु फिर भी उन्होंने मित्रता निभाई और दुर्योधन के प्रति निष्ठावान रहे|” ऋषियों के यह वचन सुनकर युधिष्ठिर को धीरज मिला|
धृतराष्ट्र और गांधारी ने पांडवों को क्षमा कर दिया| शोक का समय समाप्त होने पर युधिष्ठिर को हस्तिनापुर का राजमुकुट पहनाया गया| श्रीकृष्ण उन्हें भीष्म के पास अंतिम दर्शनों के लिए ले गए| बुझती हुई लौ की तरह भीष्म बाणों की शैया पर लेते हुए थे| भीष्म ने युधिष्ठिर को राज्य के प्रति उनके कर्तव्यों से अवगत कराया| सच्चाई और निस्स्वार्थ भाव की आवश्यकता तथा ज्ञानार्जन का संदेश दिया| वे बोले, “युधिष्ठिर, मृतक वीरों के लिए दुखी मत हो| जीवन का महत्व समझो और मन को शांत करो| धर्म का मार्ग अपनाकर प्रजा की देखभाल करो|” यह कहकर इच्छामृत्यु के वरदानवाले तेजस्वी, देवतुल्य भीष्म ने प्राण त्याग दिए|
भीम को राजकीय कार्यभार सौंपा गया| अर्जुन, सेना के संचालक नियुक्त किए गए| युधिष्ठिर ने अश्वमेघ यज्ञ किया| समय आने पर उत्तरा ने एक बालक को जन्म दिया जिसका नाम परीक्षित रखा गया| धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती ने शान्ति से पांडवों के साथ पन्द्रह वर्ष व्यतीत किए| कुछ समय बाद वृद्ध राजा और रानी ने निश्चय किया की वे वन में जाकर रहेंगे| कुंती भी उनके साथ गईं| वन में वे सब लगभग तीन वर्ष तक रहे| वहीं आश्रम में आग लगने से धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती की उस दावानल में मृत्यु हो गई|