घोड़ा अड़ गया
संत महात्माओं को हमारी विशेष गरज रहती है| जैसे, माँ को अपने बच्चे की याद आती है| बच्चे को भूख लगते ही माँ स्वयं चलकर बच्चे के पास चली आती है, ऐसे ही संत-महात्मा सच्चे जिज्ञासुओं के पास खींचे चले जाते हैं| इस विषय में एक कहानी सुनी है-
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एक गृहस्थ बहुत ऊंचे दर्जे के तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त महापुरुष थे| वे अपने घोड़े पर चढ़कर किसी गांव जा रहे थे| चलते-चलते घोड़ा एक अन्य रास्ते पर चल पड़ा| उन्होंने उसको कितना ही मोड़ना चाहा, लेकिन वह तो उसी रास्ते पर चलने के लिए अड़ गया|
इस पर उन्होंने सोचा कि अच्छी बात है, इसके मन में जिधर जाने की है, उधर चलना चाहिए| अपने थोड़ा चक्कर पड़ेगा, कोई बात नहीं| वह थोड़ा जाते-जाते एक घर के सामने रुक गया| समय अधिक हो गया था, अतः वे संत घोड़े से नीचे उतर पड़े और उस घर के अन्दर गये| वहाँ एक सज्जन मिले| उन्होंने उन महापुरुष का बड़ा आदर-सम्मान किया, क्योंकि वे उन्हें नाम से जानते थे कि अमुक महापुरुष बड़े संत हैं| वे सज्जन अच्छे साधक थे| वे कई बार सोचते थे कि संत-महात्मा के पास जावें और उनसे साधन-सम्बन्धी रास्ता पूछे| आज तो भगवान ने कृपा कर दी, तो घर बैठे गंगा आ गयी| उन्होंने उन गृहस्थ-संत को भोजन आदि कराया| सत्संग-सम्बन्धी बातें हुईं| जो बातें उन संत ने किया| वे संत जाते-जाते बोले कि भाई! जब भी कोई शंका हो तो यह मेरा पता है, आ जाना य मुझे समाचार कर देना, मैं आ जाउँगा|’ इस पर उन सज्जन ने पूछा-‘महाराज! अभी आपको किसने समाचार भेजा था कि आप पधारिये?’ तो वे संत बोले-‘मेरा घोड़ा अड़ गया था, इसलिए मुझे आना पड़ा|’ तो उन सज्जन ने कहा- ‘अबकी बार फिर आपका घोड़ा अड़ जाय तब फिर आ जाना|’ तात्पर्य यह है कि जब साधक की सच्ची जिज्ञासा होती है तो संतों का घोड़ा अड़ जाता है|
संतो की बात क्या! स्वयं भगवान् के कानों में भी सच्ची पुकार तुरन्त पहुँच जाती है और वे किसी संत के साथ हमारी भेंट करा देते हैं-
सच्चे हृदय से प्रार्थना जब भक्त सच्चा गाय है|
तो भक्त-वत्सल कान में वह पहुँच झट ही जाय है||